May 21, 2013

Range Rover Evoque


कहानी इवोक की 
एक नई सवारी और एक नया दिन था मेरे लिए, जब सामने थी मेरे रेंज रोवर इवोक। एक नामी ब्रांड की चर्चित एसयूवी। जो भारत में आजकल काफ़ी दिखने लगी है। तो इस गाड़ी को लेकर मैं निकला मिट्टी वाले उबड़ खाबड़ वाले रास्ते पर। और वहां पर ये गाड़ी मस्त होकर भागना शुरू हो गई। और ख़ास बात ये रही कि जब इसे सड़क पर लेकर गया तो भी उतने ही अच्छे से भागी। यानि मिट्टी में एक एसयूवी और सड़क पर कार की तरह। फिर लगा कि 52 से 58 लाख रु की क़ीमत में अगर ऐसा मज़ा नहीं आएगा तो किन गाड़ियों में आएगा। लेकिन ये गाड़ी है दरअसल शौकीनों के लिए। जो इतने पैसे ख़र्च करें इवोक को ख़रीदने के लिए। अब ये कहना ग़लत नहीं होगा कि इस मुख्य बनावट ऐसी है जो इसे ड्राइवरों के लिए ज़ोरदार बनाएगा। पिछली सीट उतनी आरामदेह और जगह वाली नहीं जैसे हम इस कीमत की गाड़ियों में देखते हैं। तो ऐसे में शौक़ीन ही तो इसे लेंगे जिन्हें ऐसी गाड़ियों को चलाने का मन करता है। हां इसकी क़ीमत का तो मसला ही अलग है। 
लेकिन कई बार कहानी जितना हम सोचते हैं उससे लंबी चली जाती है। यानि जहां से शुरू करने की सोचते हैं वहां से भी पीछे जाना पड़ता है। जैसे रेंज रोवर की गाड़ी चलाते हुए मुझे महसूस हुआ। दरअसल पिछले दिनों मुझे मौक़ा मिला रेंज रोवर की नई गाड़ी इवोक चलाने का। ये एक एसयूवी है, जैसे कि रेंज रोवर की सभी गाडियां होती हैं। और इस गाड़ी का कैसे परिचय करवाया जाए अपने दर्शकों से, यही सोच रहा था। सोच इसलिए क्योंकि इस ब्रांड को लेकर लोगों में कई तरीके की उत्सुकता है। उत्सुकता इसलिए क्योंकि जब से टाटा ने इस ब्रांड को ख़रीदा है लोग इसके बारे में सुन तो रहे हैं लेकिन इसकी कहानी साफ़ नहीं हो पा रही थी। इसी वजह से लग रहा था कि इसकी कहानी को केवल इस कार के ज़रिए नहीं समझाया जा सकता है, इसके इतिहास में जाना पड़ेगा। ऐसे में ज़ाहिर सी बात है कि इस ब्रांड के अब तक के सफ़र को देखना पड़ेगा, वो भी रेंज रोवर के नहीं लैंड रोवर के इतिहास को जिसकी शुरूआत हुई थी 1948 में। क्योंकि यही है वो कंपनी जो रेंज रोवर बनाती है।

दूसरे विश्वयुद्द के बाद अमेरिकी जीप की लोकप्रियता ऐसी थी जिसे चुनौती देना मुश्किल था। जीवन मुश्किल हो रहा था और हालात पेचीदा। गा़ड़ियों की उपलब्धता कम थी और पार्ट-पुर्ज़े की मारामारी अलग। ऐसे में एक ब्रिटिश शख़्स इस चिंता में पड़े थे कि कैसे ऐसी गाड़ी तैयार हो जो जीप का विकल्प हो सके । जिनका नाम था मॉरिस विल्क्स । विल्क्स  परेशान थे क्योंकि उनकी ज़िंदगी जीप पर चल रही थी और उन्हें डर था कि इस गाड़ी के ना होने पर क्या होगा। और यही सोचते हुए उन्होंने तैयार किया डिज़ाइन लैंड रोवर का। एक जीप नुमा यूटिलिटी वेह्किल जो किसी भी माहौल में, कैसे भी रास्ते पर चल सके। किसी भी ज़रूरत के लिए। चाहे किसान इससे खेती करना चाहें या ऑफ़रोडिंग के शौकीन इसे मिट्टी कीचड़ में भगा सकें। और गाड़ी इन सब माहौल में ना सिर्फ चली बल्कि दौड़ी। धीरे धीरे इस गाड़ी ने अपनी काबिलियत की वजह से दुनिया भर में नाम कमाया। दुनिया के सबसे मुश्किल रास्तों पर ये गाड़ी भागी। लैंड रोवर प्रेमियों ने ना सिर्फ़ इसे मिट्टी कीचड़ में भगाया, बल्कि पहाड़ियों से लेकर बर्फ़ीली जगहों तक में ले गए। कितने ही देश की सेना ने इसका इस्तेमाल किया। लोगों के इस भरोसे के साथ कंपनी फलती-फूलती गई। कंपनी अगले क़दम के तौर रेंज रोवर लेकर आई। यानि वो एसयूवी जिनमें कार जैसे फीचर्स थे। 1970 से बनने वाली रेंज रोवर ढेर सारे फीचर्स से लैस आरामदेह एसयूवी बनी। कंपनी के लिए ये बेस्टसेलर साबित हुई। वक्त बदला ज़रूरतें बदलीं और इन सबके साथ कंपनी ने अपने प्रोडक्ट भी बदले। कंपनी के सामने हालांकि चुनौतियां भी बढ़ती गईं। जहां पर कंपनी बिकी, बिकी और फिर बिकी। एक वक्त में रोवर कंपनी के अंदर रहने वाला ये ब्रांड बीएमडब्ल्यू के पास गया। फ़ोर्ड ने भी इस ब्रांड को ख़रीदा। आख़िरकार अब ये टाटा के पास चली आई है। और जब से आई है, इसकी किस्मत चमकी है।   
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May 14, 2013

Sail Sedan सेल सेडान


शेवरले की सेल सेडान
जैसा कि बाज़ार में होता है कुछ प्रोडक्ट का इंतज़ार चल रहा होता है और अचानक से बीच में कुछ और आ जाता है और चर्चा पूरी तरह से बदल जाती है। जैसा कि एक बार फिर से हुआ। सभी बात कर रहे थे छोटी सेडान कारों के बारे में और इंतज़ार चल रहा था हौंडा अमेज़ का। जिसे हौंडा मारुति की डिज़ायर के टक्कर में लेकर आ रही है। लेकिन इससे पहले कि वो लौंच हो और उसकी क़ीमतों का ऐलान हो, बीच में अचानक आ गई शेवरले की नई सेडान कार। वो जिसकी चर्चा तो थी लेकिन सेगमेंट पर उसके असर के बारे में बहुत कुछ कहा नहीं गया था। लेकिन कंपनी ने एक ऐसी क़ीमत के साथ अपनी कार को लौंच कर दिया जिसने छोटी सेडान कार को लेकर होने वाली परिचर्चा को बदल दिया। शेवरले ने लौंच की अपनी कार सेल एक सेडान के तौर पर। यानि सेल कार एक डिक्की के साथ। उन भारतीय ग्राहकों के लिए जो चाह रहे हैं अब बड़ी गाड़ी, या कहें थोड़ी बड़ी कार। जिसमें जगह ज़्यादा हो और वक्त पड़ने पर ज़्यादा सामान के साथ लंबे सफ़र पर भी जाया जा सके। और सबसे ख़ास पहलू जिसका ज़िक्र हम कर रहे हैं वो है इस कार की इंट्रोडक्टरी क़ीमत। कंपनी ने इस कार को लौंच किया है पेट्रोल और डीज़ल इंजिन विकल्प के साथ। जहां पेट्रोल सेल सेडान की क़ीमत 4 लाख 99 हज़ार से शुरू होकर 6 लाख 41 हज़ार रु तक जाती है। वहीं डीज़ल सेल सेडान की क़ीमत शुरू होती है 6 लाख 29 हज़ार रु से और जाती है 7 लाख 1 हज़ार रु तक। फिलहाल ये इंट्रोडक्टरी क़ीमत है। लेकिन इस क़ीमत के बारे में ये ज़रूर कहा जा सकता है कि वो ग्राहकों के ज़ेहन में ज़रूर अटकेगी। कार देखने में आकर्षक है। शेवरले की क्रूज़ के लुक से जो लोग इंप्रेस हुए थे उनके लिए वैसे ही डिज़ाइन परंपरा की कार है। वहीं पिछला हिस्सा भी संतुलित और आकर्षक है, जिसके पीछे एक वजह तो ये है कि इसकी लंबाई को ज़बरदस्ती 4 मीटर से छोटा रखने की कोशिश नहीं की गई है। इसकी लंबाई लगभग सवा चार मीटर है। तो लंबाई के हिसाब से तो ये कार स्मॉल कार की कैटगरी में नहीं आती है लेकिन हां इंजिन के हिसाब से ज़रूर आती है। इसमें लगा है 1.2 लीटर पेट्रोल इंजिन और 1.3 लीटर डीज़ल इंजिन। और इन इंजिन के साथ पहला अंदाज़ा तो यही होता है कि कंपनी जल्द एक छोटा और सस्ता वर्ज़न लेकर आएगी। लेकिन अभी इसकी संभावना से कंपनी ने इंकार किया है। शेवरले की सेल के बारे में आपको पता होगा कि इस कार को शेवरले की सहयोगी चाईनीज़ कंपनीSAIC  द्वारा तैयार की गई कार है। आमतौर पर एशियन कार कंपनियां एशियन ग्राहकों की छोटी-छोटी ज़रूरतों को समझती हैं। जिनमें से एक है ज़्यादा सामान रखने के लिए एक्स्ट्रा स्पेस। सेल सेडान में बूटस्पेस के अलावा पिछली सीट के नीचे भी सामान रखने के लिए एक्सट्रा स्पेस दिया गया है। इसके अलावा शेवरले ने अपनी कार को ज़्यादा पैसा वसूल कार बनाने के लिए कार, इंजिन और ट्रांसमिशन पर अलग अलग वारंटी दी है। कुल मिलाकर कोशिश कि ग्राहकों के ज़ेहन में अमेरिकी कारों और उनके रखरखाव को लेकर जो शंका है वो दूर हो। तो इस कार का प्रदर्शन देखना भी दिलचस्प होगा, ख़ासकर तब जब एक और छोटी जापानी सेडान कार लौंच के मुहाने पर है।
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New Thunderbird


एक ऐसी मोटरसाइकिल जिसके साथ मेरी शुरूआत अच्छी नहीं रही थी। रॉयल एनफ़ील्ड थंडरबर्ड। एक क्रूज़र बाइक, जैसी इनफ़ील्ड की सभी मोटरसाइकिलों को हम मानते हैं, जिसका आकार प्रकार भी क्रूज़र जैसा था। लंबी हैंडिल और कम ऊंचाई वाली सीट । वो शेप जिसे आमतौर पर हम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूज़र बाइक के तौर पर देखते आए हैं। जब पहली बार ये बाइक आई थी तो मैं इसे चलाने नौएडा और ग्रेटर नौएडा के बीच एक्सप्रेस्वे पर गया था। तब सड़क बन ही रही थी, एक तरफ का ही काम पूरा हुआ था। उसी पर दोनों साइड का ट्रैफ़िक चल रहा था। और उसमें भी ट्रक ज़्यादा। और मेरे ठीक आगे चलने वाले ट्रक ने बीच सड़क ऐसी ब्रेक लगाई की कहानी ख़राब हो गई। बिना इंडीकेटर, बिना ब्रेक लाइट के ट्रक को रुका हुआ समझने में जितना वक्त लगा वो एक ऐक्सिडेंट के लिए काफ़ी था। मैंने ब्रेक किया, बाइक स्किड कर गई, कई मीटर तक घिसटती गई, साथ में मैं भी । ख़ैर । जैसा कि हर ऐक्सिडेंट के बाद होता है आप उसके हर पहलू को दिमाग़ में कई बार ध्यान दुहराते हैं, सोचते हैं। तो बहुत सारी चीज़ों में एक ख़ास चीज़ नए थंडरबर्ड ने लगा फ्रंट डिस्क ब्रेक। मेरे पास ख़ुद भी एक बुलेट ही थी और उसके ब्रेक की मुझे आदत थी, लेकिन थंडरबर्ड का डिस्क ब्रेक कहीं ज़ोरदार था। अगला पहिया तो वक्त से रुक गया, पिछला नहीं । पहली मुलाक़ात जब ऐसी रोमांचक थी तो याद तो आती ही। वैसे अब जो नई थंडरबर्ड आई है उसमें पिछले पहिए में भी डिस्क ब्रेक दिया गया है। लेकिन ये तो एक पहलू है। इसके अलावा भी कई बदलाव हैं जो नई थंडरबर्ड 500 को अहम बनाते हैं। ना सिर्फ़ ग्राहक के लिए बल्कि कंपनी के लिए भी। मोटरसाइकिल अब नए इंजिन, फीचर्स और लुक के साथ आई है। 500 सीसी का इंजिन अब लगभग 27 बीएचपी की ताक़त दे रहा है। जो इसे तेज़-तर्रार तो बनाती है। इसके अलावा छोटे मोटे ऐसे बदलाव हैं जो रॉयल एनफ़ील्ड की बदलती कहानी बयान कर रहे हैं। पिछले पहिए में डिस्क ब्रेक के बारे में तो बता दिया, लेकिन इसका असर एनफ़ील्ड की राइड पर कैसा पड़ा है वो भी बता दूं। आमतौर पर एनफ़ील्ड की मोटरसाइकिलों की ब्रेकिंग हमेशा से बड़ा मुद्दा रही है। कमसेकम वैसे ब्रेक नहीं रहे हैं जैसा आजकल हम बाकी मोटरसाइकिलों में देखते रहे हैं। लेकिन अब एनफ़ील्ड ने उस कमी को पूरा किया है। दोनों पहियों में डिस्क के बाद एक संतुलन और कांफिडेंस महसूस होता है राइडर को।  और केवल ब्रेक ही क्यों इंजिन और गियरशिफ़्ट भी अब राइड का कहीं बेहतर तजुर्बा दे रहे हैं। शहर के बाहर ही नहीं, शहरी ट्रैफ़िक में भी। लेकिन वो तो एक पहलू है। इस मोटरसाइकिल को नया बनाने के लिए और भी कई काम किया है कंपनी ने। जैसे टेक्नॉलजी को अपडेट करना। आमतौर पर देखते रहे हैं कि मोटरसाइकिल कंपनियां जो भी टेक्नॉलजी लाएं, फीचर्स लाएं, एनफ़ील्ड मोटरसाइकिलों में वो नहीं आते थे। जिसकी एक वजह थी ग्राहकों का प्यार, जो किसी भी हालत में एनफ़ील्ड ही लेना चाहते थे, फ़ीचर्स कैसे भी हों । लेकिन हाल में हार्ली डेविडसन ने एक तरह से क्रूज़र बाइक्स की दुनिया को भारत में बदला है। हालांकि एनफ़ील्ड के मुक़ाबले बहुत महंगी हैं लेकिन फिर भी ग्राहकों को नई टेक्नॉलजी और फ़ीचर्स से तो परिचित करवाया ही है। और इस नए और बदले माहौल में थंडरबर्ड एक ऐसी ही कोशिश लग रही है। डिजिटल डिस्प्ले लगा हुआ है इसके इंस्ट्रुमेंटेशन में। जिसमें फ़्यूल गेज और घड़ी के अलावा ट्रिपमीटर भी लगेगा। अब रॉयल एनफ़ील्ड की मोटरसाइकिल में एलईडी लाइट भी मिल रहा है। और ये सब दिल्ली में लगभग 1 लाख 57 हज़ार रु के एक्सशोरूम क़ीमत में मिल रहा है। 
तो लग रहा है कि कांपिटिशन का असर हो रहा है। टेक्नॉलजी बदल रही है, नज़रिया बदल रहा है। एक वक्त का आरामतलब ब्रांड ख़ुद को नए तरीके से बदलने की कोशिश कर रहा है। और इन सबके बीच ग्राहकों के लिए विकल्पों में बढ़ोत्तरी हो रही है। 

May 12, 2013

Lifestyle Biking 2013


सुपर 2013
अगर सबकुछ अपनी रफ़्तार से चला और वो लौंच देखने को मिले जिनकी योजना थी तो साल 2013 मोटरसाइकिलों के लिए भी एक ख़ास साल रहेगा। वो भी बड़ी मोटरसाइकिलों के इलाक़े में, वो मोटरसाइकिलें जिन्हें लोग शौक की वजह से ख़रीदते हैं ज़रूरत के लिए नहीं। पिछले दो-तीन सालों में, ख़ास तौर पर हार्ली डेविडसन के भारत आने के बाद हमने भारतीय लाइफ़स्टाइल बाइकिंग में ठोस तब्दीलियां देखी हैं। कंपनी ने लगभग दो साल में दो हज़ार के आसपास मोटरसाइकिलें बेची हैं। और ये संख्या केवल इस कंपनी के बारे में नहीं बता रहा है बल्कि बाज़ार के बारे में भी बता रहा है, ग्राहकों के बारे में भी । वो मोटरसाइकिलें, जिसका सबसे सस्ता मॉडल साढ़े पांच लाख रु के आसपास शुरू होता है, जो सिर्फ़ क्रूज़र बाइक्स बनाती है, उसने क्या ऐसा किया जो सही था। तो इसमें कंपनी की सभी कोशिशों को याद करना पड़ेगा, जिनमें अच्छे प्रोडक्ट, भारतीय बाज़ार के मद्देनज़र सस्ते प्रोडक्ट, आकर्षक पेमेंट स्कीम से लेकर ठोस आफ़्टर सेल्स सर्विस नेटवर्क की कवायद भी थी। इस कंपनी के अभी तक के प्रदर्शन से कुछ चीज़ें साफ़ हुई हैं, बाज़ार थोड़ा ऑर्गनाइज़्ड दिख रहा है। पहले लाखों की मोटरसाइकिलों का बाज़ार बहुत उहापोह में दिखता था। कुछेक पॉकेट्स में और चुनिंदा शहरों में। ये भी साफ़ हुआ है कि अगर भरोसा दिलाया जाए तो हिंदुस्तानी ग्राहक लाखों रुपए मोटरसाइकिल पर ख़र्च करने से नहीं डरेंगे। 2013 के बारे में बात करते हुए इस पुरानी कहानी का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि एक बड़ा ब्रांड जो इस साल भारत में अपने प्रोडक्ट ला सकती है, उसके लिए हार्ली का सफ़र एक बड़ी सीख हो सकता है। ये वो कंपनी है जिसने भारत में आने का ऐलान 2012 की शुरूआत में ही कर दिया था। ब्रिटिश मोटरसाइकिल कंपनी ट्रायंफ़। कंपनी ने ना सिर्फ़ ऐलान किया था भारत में एंट्री के बारे में बल्कि मोटरसाइकिलों की फ़ाइनल लिस्ट और उनकी क़ीमतों का ऐलान भी कर दिया। लेकिन 2012 के भीतर लौंच का वायदा पूरा नहीं कर पाई। जो अच्छी शुरूआत नहीं कही जा सकती है। लेकिन उम्मीद यही है कि इस साल भी आ जाए वक्त पर तो ज़्यादा नुकसान नहीं होगा। ये एंट्री मुझे इसलिए भी ख़ास लग रही है क्योंकि ट्रायंफ़ मोटरसाइकिल कंपनी हार्ली से जुदा है। केवल अमेरिकी और ब्रिटिश कंपनी की बात नहीं है। ट्रायंफ़ का पोर्टफ़ोलियो कहीं ज़्यादा विस्तृत है। जहां हार्ली केवल क्रूज़र मोटरसाइकिलें बनाती है वहीं ट्रायंफ़ के पास हर तरीके की मोटरसाइकिलें हैं जो ना सिर्फ़ ग्राहकों को विकल्प देंगी बल्कि ग्राहकों को नए कौंसेप्ट से परिचित भी करवाएगी। यानि अब तक हम हिंदुस्तानी मोटरसाइकिल प्रेमी दो तरीके की बड़ी मोटरसाइकिलों को जानते हैं सुपरबाइक्स और क्रूज़र। लेकिन ट्रायंफ़ ने अपने पत्ते सही खोले तो ग्राहक उसकी टूरिंग मोटरसाइकिलों को पहचान पाएंगे, क्लासिक सिटी स्पोर्ट्स बाइक जान पाएंगे, ऑफ़ रोड मोटरसाइकिलें भी देख पाएंगे। लेकिन उन सबके लिए ग्राहक जाएं इससे पहले कंपनी को अपनी तरफ़ से गंभीरता दिखानी पड़ेगी, ठोस रणनीति और नेटवर्क के साथ । लेकिन सवाल ये है कि क्या कंपनी कर पाएगी ये सब ? जवाब वही जानती है कि कितना आत्मविश्वास है और भारतीय बाइकरों पर विश्वास है। लेकिन केवल एक कंपनी ही साल को ख़ास नहीं बनाएगी भारतीय बाइक बाज़ार को। ये सिर्फ़ एक सिरा है। बाकी प्रोडक्ट और भी हैं। 
जिस सेगमेंट के बढ़ने का इंतज़ार मैं कई सालों से कर रहा था वो अब दिख रहा है। यानि किफ़ायती मोटरसाइकिलों और सुपरबाइक्स के बीच के सेगमेंट में इस साल कई एंट्री हम देख सकते हैं। वैसे इस सेगमेंट में हाल में जो गतिविधियां दिखी हैं वो बता रही हैं कि ये सेगमेंट काफ़ी ज़ोरों से बढ़ रहा है। और इसके अगले चैप्टर इस साल देखेंगे। जैसे हौंडा की तरफ़ से हमने ढाई सौ सीसी की मोटरसाइकिल देखी सीबीआर 250 के तौर पर, फिर 150 सीसी की स्पोर्ट्स बाइक आई। अब इस साल हौंडा की 500 सीसी वाली नई सीबीआर हम देख सकते हैं, जिसे कंपनी ने अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पेश किया था। वहीं एक सीनियर बाइक आ सकती है केटीएम की तरफ़ से। केटीएम ने अपनी 200 सीसी की ड्यूक को काफ़ी इंतज़ार करवाने के बाद भारत में पेश किया था और अब वो लेकर आ रही है अपनी ड्यूक 390। देखते हैं कि इसकी क़ीमत क्या होती है। वैसे इनके अलावा भी कुछ मोटरसाइकिलों की फेहरिस्त है। और इनकी क़ीमत 4 लाख रु के इर्दगिर्द रह सकती है। 
तो इन सब मोटरसाइकिलों के लौंच की वजह से साल 2013 को शायद वो साल पुकारा जा सकता है जब लाइफ़स्टाइल बाइकिंग भारतीय बाइकर्स के लाइफ़स्टाइल का हिस्सा बने।
Published in jan 2013

May 11, 2013

मंद-मंद-मंदी


मंदी एक सच्चाई है और सुविधा एक अलग सच्चाई। हां लोग ख़र्च करने से बच रहे हैं। गाड़ियों की ख़रीद को या तो टाल रहे हैं या फिर बारीक तराज़ू से तौल तौल कर पैसा वसूल कार ख़रीद रहे हैं। और इनके अलावा सिर्फ़ वही गाड़ियां ख़रीद रहे हैं जो कोई एक ख़ास कार ख़रीदना ही चाहते हैं। यानि शौकीन।

तो बदले वक्त में नए पैमाने इस कार बाज़ार के उस हिस्से को भी बढ़ते देख रहे हैं जिनको कुछ साल पहले तक बहुत ही ऐहतियात से बढ़ते देखा था। जैसे ऑटोमैटिक कारें। वो वक्त चला गया है जब ग्राहक सिर्फ़ माइलेज के नाम पर ऑटोमैटिक कारों को ख़ारिज कर देते थे। आमतौर पर ऑटोमैटिक कारों की माइलेज मैन्युअल ट्रांसमिशन से कम ही होता रहा है। और भारत जैसे देश के ग्राहकों के लिए हर छोटा अंतर भी बहुत रहा है। हां साथ में ये भी ज़रूर हुआ है कि इस ट्रांसमिशन पर भरोसा भी बढ़ा है ग्राहकों के बीच।

ऑटोमैटिक कारों और ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन के मेकेनिज़्म की समझ भी अब थोड़ी बेहतर हुई है। बिना गियर और क्लच वाली गाड़ी के तौर पर। इसीलिए अब छोटी कारों में ऐसे ट्रांसमिशन पहले से कहीं ज़्यादा आ रहे हैं। पहले जहां मारुति और ह्युंडै के पास सिर्फ़ नाम के लिए ऑटोमैटिक कारें थीं, अब वो कोशिश में हैं इस सेगमेंट में बिक्री बढ़ाने की ।
तो ऐसे में अगर इन गाड़ियों पर नज़र डाली जाए तो ग़लत नहीं होगा। मारुति जो अपनी पैसा वसूल कारों के लिए जानी जाती है उसने हाल ही में ए स्टार कार को ऑटोमैटिक अवतार में उतारा था। कंपनी ने माइलेज के अंतर को कम करने की भी कोशिश की है। इसकी एक्स शो रूम क़ीमत है 4 लाख 61 हज़ार रु। मारुति की रिट्ज़ भी आ चुकी है बाज़ार में 6 लाख 15 हज़ार रु के एक्सशोरूम क़ीमत के साथ। ये भी छोटी हैचबैक कारों का सेगमेंट है। स्विफ़्ट और एस्टार के बीच।
केवल मारुति ही नहीं ह्युंडै ने भी अपने प्रोडक्ट की संख्या बढ़ाई है। आई 10 सवा पांच से सवा छह लाख रु के बीच है । साथ में आई-20 भी आती है ऑटोमैटिक अवतार में। इसमें एक और एंट्री है जो हाल में आई है। हौंडा की ब्रियो ऑटोमैटिक। यहां पर हौंडा के पास डीज़ल अवतार नहीं था तो कंपनी ने अपना पोर्टफ़ोलियो बढ़ाने के लिए ऑटोमैटिक अवतार चुना। पौने छह से छह लाख रु के बीच।
तो कुल मिलाकर बदलती अर्थव्यवस्था और लाइफ़स्टाइल में इनकी जगह बनती भी जा रही है। जहां सड़कों पर ज़्यादा ज़िंदगी गुज़र रही है, घर में कम। परिवार के साथ कम। भारत में ट्रैफ़िक व्यवस्था जैसी हो रही है, प्लानिंग जैसी देखी जा रही है उसमें स्थिति और भयावह ही होगी। तो ऐसे में ग्राहक बिना क्लच वाली कार लेकर अपने पैर और हाथ को आराम देना चाहते हैं।

May 10, 2013

Bajaj Discover 100T

चाहे कितनी भी हज़ार सीसी वाली सुपरबाइक्स आ जाएं। 400-600 सीसी की स्पोर्ट्स बाइक्स आ जाएं। भारतीय मोटरसाइकिल मार्केट जहां आमतौर पर हर महीने 7-8 लाख बाइक्स बिकती हैं वहां पर अगर किसी ने राज किया है और करने वाला है तो वो है सौ सीसी सेगमेंट। हालांकि इसे केवल इंजिन की क्षमता से इसे नहीं समझा जा सकता है। ये दरअसल वैसी मोटरसाइकिलों का सेगमेंट है जो सौ सीसी की रही हैं और इनकी क़ीमत कम रहे। तो एक तरह से एंट्री सेगमेंट और सौ सीसी मोटरसाइकिलों को एक ही माना जाता रहा है। और जब पैमाना कम क़ीमत हो तो कई बार प्रोडक्ट केवल पैसा वसूल बन कर रह जाती हैं, क़ीमत को कम रखने के चक्कर में कंपनी की तरफ़ से फ़ीचर्स की लिस्ट बिल्कुल ख़त्म हो जाती थी और लुक की तो बात ही मत कीजिए, और ये चल भी जाता था। लेकिन हाल के सालों में ये ट्रेंड बदला है, ग्राहक पैसा वसूल सवारी भी थोड़ा अपटूडेट चाहते हैं। स्टाइल की थोड़ी छौंक चाहते हैं और कंपनी से थोड़े फ़ीचर्स की उम्मीद भी होती है। हाल के कई प्रोडक्ट ऐसे ही मापदंड पर बनते दिखाई दे रहे हैं। हरेक बाइक निर्माता अपनी ओर से कोशिश कर रहा है सबसे बड़े मोटरसाइकिल सेगमेंट में अपने प्रोडक्ट को ज़्यादा बेहतर पैकेज बनाने की। और अगर कहें कि ग्राहकों को इससे फ़ायदा ही हो रहा है तो ग़लत नहीं होगा। हाल में इस सेगमेंट में काफ़ी हलचल देखी जब पहली बार हीरो से गठजोड़ टूटने के बाद हौंडा ने अपने बूते इस सेगमेंट की बाइक ड्रीम युगा उतारी, सुज़ुकी ने भी अपनी हायाते उतारी थी। और ऐसे में बाकी पुराने खिलाड़ी तो पीछे रहेंगे नहीं। इन सब गतिविधियों को देखकर बजाज ने भी अपनी कोशिश तेज़ कर दी है। इसी सिलसिले में आई है नई बजाज डिस्कवर 100टी। सौ सीसी की मोटरसाइकिल जो दावा कर रही है कि इसकी माइलेज तो सौ सीसी वाली होगी और ताक़त सवा सौ सीसी वाली। तो एक तीर से कई निशाने लगाने की कोशिश है बजाज की। यानि कंपनी ने अपनी पिछली कोशिश को बिल्कुल उलट कर अपने ग्राहकों को फिर आकर्षित करने की कोशिश की है। आपको याद होगा कि कंपनी ने एक सवा सौ सीसी मोटरसाइकिल एक्सीड उतारी थी। जिसके साथ कंपनी का दावा था कि वो सवा सौ सीसी की ताकत तो देगी ही, फ़ीचर्स तो देगी ही, साथ में सौ सीसी वाला माइलेज भी। अपने ख़ास इंजिन के सहारे कंपनी को उम्मीद थी कि वो हीरो की सत्ता पलट देगी। लेकिन वैसा हुआ नहीं था। इस बार दूसरी तरफ़ से आक्रमण किया है बजाज ने। देखते हैं ग्राहक 51 हज़ार रू की एक्स शोरूम क़ीमत वाली इस बाइक को कैसे देखते हैं। हालांकि कंपनी के हिसाब से इसमें वो सब मसाला है जो किसी भी फ़िल्म को हिट कर सकता है। 10 बीएचपी की ताक़त , 5 स्पीड गियरबॉक्स । यही नहीं कंपनी का दावा है 87 किमीप्रतिलीटर की माइलेज का। अब ये सब पैकेज ऐसा है जो ग्राहकों को पसंद आ सकता है, लेकिन कितना ये फिलहाल पता नहीं। वैसे ये तो तय है कि बजाज अपनी तरफ़ से पूरी ताक़त ज़रूर लगा रही है इस मोटरसाइकिल पर। और हो भी क्यों नहीं, कंपनी बड़ी मोटरसाइकिल सेगमेंट में तो बेस्टसेलर है लेकिन सौ सीसी सेगमेंट में कंपनी ऊपर नीचे जाती रही है। कभी प्लैटिना और डिस्कवर 100 ने अच्छी बिक्री देखी कभी फीकी रही, लेकिन ये साफ़ है कि बजाज को अब अगर अपनी पोज़ीशन संभालनी है, आगे जाना है तो फिर सौ सीसी सेगमेंट में ऐसा प्रोडक्ट ज़रूर चाहिए जो लंबे वक्त तक बढ़िया प्रदर्शन करे।
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May 08, 2013

अपन हिंदुस्तानी हैं शौकीन...


विंटेज कारों की दुनिया बहुत ही ख़ास होती है, सभी कारों के साथ एक से एक कहानी जुड़ी होती है। सब एक से एक दिलचस्प। ऐसी ही दुनिया में घूमते हुए एक विंटेज कार रिस्टोरर से सालों पहले मुलाक़ात हुई थी। दिल्ली के एक किनारे में बने एक फ़ॉर्महाउस में उनके वर्कशॉप पर उनसे बात हो रही थी, मैंने पूछा कि सबसे अनोखी कार कौन सी है उनके कलेक्शन में । तो उन्होंने बताया कि एक कार ऐसी थी जिसके लिए उन्होंने काफ़ी पैसे ख़र्च किए। ना सिर्फ़ पैसे बल्कि सौदे के लिए उन्होंने पुरानी रोल्स रॉयस तक दे डाली। ये सब एक कार के लिए जिसका  नाम था मिनर्वा। इसके बारे में आम भारतीय कार प्रेमियों को कम पता है क्योंकि ये बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में कार बनाती थी। ऐसा नहीं कि ये कार बहुत ही ज़ोरदार हो, या इंजनीयरिंग का अद्भुत शाहकार हो । लेकिन अब दुनिया भर में इक्का-दुक्का कारें ही ऐसी बची थीं, ऐसे में ये कार बहुत ही नायाब बन गई थी।


कुछ साल पहले लुधियाना के सफ़र पर निकला था। साइकिल और होज़ियरी के लिए नामी इस शहर के साथ एक और ख़ास आंकड़ा जुड़ा था। वो था आबादी के अनुपात में देश में सबसे ज़्यादा मर्सेडीज़ कारों का। और ऐसे में एक से एक शख़्सियतों से मिलने का मौक़ा मिला। जिनमें से प्रॉपर्टी डीलर और बिज़नेसमेन तो आम थे। लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या थी वैसे किसानों की जो बड़े किसान थे और मर्सेडीज़ का शौक पूरा कर रहे थे। उन्हीं में से एक शख़्स ने बहुत ही दिलचस्प बात बताई। उनके मुताबिक उनकी कार नॉर्थ इंडिया में अनोखी थी। मैंने जब उनकी कार देखी तो लगा कि आम सी क्लास मर्सेडीज़ है। मैंने पूछा कि इसमें क्या ख़ास है, ये तो सी क्लास है। तो उन्होंने जवाब दिया कि ये कार तो आम है लेकिन इसमें लगा इंजिन पूरे नॉर्थ इंडिया के किसी सी क्लास में नहीं। मैं लाजवाब हो गया। 

ये दोनों कहानी तब याद आई जब किसी ने सवाल किया कि इंपोर्टेड कारों को लेकर ऐसी दीवानगी क्यों है। और क्यों लोग तरह तरह के तिकड़म के ज़रिए इंपोर्टेड कारों को ख़रीदने में लगे रहते हैं और पकड़े भी जाते हैं। वो है एक्सक्लूसिविटी। गाड़ी तो आज हर इंसान ख़रीद रहा है, ऐसे में हम अलग औऱ ख़ास कैसे दिखें ...इसी सवाल का जवाब बहुतों के लिए इंपोर्टेड कार के तौर पर आती है। 

बुगाटी वेरोन-

कोई जाता है दुनिया में सबसे ताक़तवर कार की तरफ़। बुगाटी की वेरोन। वो कार जिसे बनाना ही शुरू किया गया इस आइडिया के साथ कि एक ऐसी कार बने जिसका इंजिन हज़ार हॉर्जोसपावर से ज़्यादा है और सबसे तेज़ कार बने। वेरोन इसी वजह से सबसे तेज़ चलने वाली कार बनी। भारत में शौकीनों के लिए इसका एक आंकड़ा काफ़ी था। टॉप स्पीड 407 किमीप्रतिघंटा। इसकी भारत में क़ीमत 16 करोड़ रु से शुरू होती है। वो भी एक्सशोरूम क़ीमत। यानि ऑन रोड होते होते क़ीमत में कुछ और शून्य जुड़ जाते हैं। 

हमर -
भारत में एसयूवी का अलग रोमांस है। और दुनिया भर में सबसे दमदार एसयूवी माना जाता है हमर को ही। हालांकि कंपनी बंद हो गई लेकिन अभी भी भारत में इस भारी भरकम एसयूवी के वर्ज़न बिकते दिख जाएंगे। जहां अमेरिका में आर्नोल्ड श्वार्ज़ेनेगर जैसे फौलादी ऐक्टर हमर के फ़ैन हैं ही...भारत में धोनी और हरभजन सिंह ने भी करोड़ से ऊपर की इस स्पोर्ट्य यूटिलिटी गाड़ी को ख़रीदा है। वैसे भारत में इंपोर्ट होने वाली सबसे लोकप्रिय कारों में से हमर एक है। जो पहले सिर्फ़ आर्मी के लिए बनाई गई थी और बाद में आम ग्राहकों केलिए इसे बनाया गया।       हाल में सीबीआई ने जो गाड़ियां पकड़ी हैं, उनमें भी हमर ज़रूर थी।


फ़ेरारी -

भारत में रफ़्तार के नाम पर सबसे पहले अगर किसी एक कार ब्रांड का नाम आता है तो वो है फ़ेरारी । फ़ेरारी की सवारी तो बाद में आई। बस ऑटो में भी फ़ेरारी के स्टिकर दिखते रहते हैं। शूमाकर से लेकर तेंडुलकर सभी स्पोर्ट्स आइकॉन इस कार के दीवाने रहे हैं। और भारत के अरबपतियों को भी पता है कि अगर ये कार नहीं है गेराज में तो उनका रुतबा अधूरा है। इसीलिए कंपनी ने भी भारत में बिक्री शुरू कर ही दी है। क़ीमत की शुरूआत मात्र ढाई करोड़ रु से। जो जाती है 4 करोड़ रु तक।

लैंबोर्गिनी-
भारतीयों को इटैलियन ब्यूटी कुछ ज़्यादा ही पसंद हैं। एक और इटैलियन महारथी जो सबकी फ़ेवरेट है वो है लैंबोर्गिनी। सस्ती ये भी नहीं है। 2 करोड़ रु से शुरू होती है। जाती है पांच करोड़ तक। लैंबोर्गिनी अवांतेडोर औऱ गलार्डो हर रईस हिंदुस्तानी के लिए ज़रूरी नाम बने हुए हैं। 

रोल्स रॉयस
भारत में अभी भी महाराजाओं के लिए प्यार गया नहीं है। और ये सबसे बड़ी वजह है रोल्स रॉयस से प्यार के पीछे। अभी भी रोल्स रॉयस को ख़रीदना रईस होने की सबसे बड़ी निशानी में से एक है। क़ीमत भले ही 3 से 6 करोड़ रु के बीच हो लेकिन अभी भी लोग इस कार के लिए 8 से 9 महीने इंतजार करने के लिए तैयार हैं। कंपनी ने भारत में वापसी के वक्त जिस बिक्री का अंदाज़ा लगाया था, बिक्री उसे कब का पार कर चुकी है।

बेंटली

कुछ ने इस कंपनी को रोल्स रॉयस के विकल्प के तौर पर देखा तो कुछ ने ज़्ज़्यादा स्पोर्टी लंगज़री कार के तौर पर। ये है बेंटली। ये कार भी भारत में करोड़ों की ही आती है। डेढ़ से तीन करोंड़ तक की कारें आती हैं बेंटली की। शाही के साथ स्पोर्टी अंदाज़ जोड़ने के लिए भारतीय रईसों को ये कार काफ़ी पसंद आती है।


इन सभी कारों को इंपोर्ट करना कुछ साल पहले तक लालफीताशाही में फंसने का रास्ता माना जाता था । लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। दुनिया की लगभग हर नामी कार भारत में किसी ना किसी तरीके से आ चुकी है। कुछ अपनी कंपनी के शोरूम के ज़रिए तो कुछ ऑफिशियल इंपोर्टर के ज़रिए। तो ऐसे में जो भी शौकीन हैं उनके पास कई ज़रिए हैं अपनी मनपसंद कार को ख़रीदने का। तो जब ऐसी उपलब्धता है फिर क्यों आए दिन हम इंपोर्टेड कार के घोटाले की ख़बर देखते रहते हैं। तो इसमें एक बड़ी भूमिका है विदेशी कारों पर लगने वाले इंपोर्ट ड्यूटी की भी। भारत में इंपोर्ट होने वाली कार पर जो ड्यूटी देनी पड़ती है वो कार की क़ीमत को दुगना कर देता है। यानि पचास लाख की कार एक करोड़ की और एक करोड़ की कार दो करोड़ की। और इसी से बचने के कई तरीके देखे जाते हैं जब कारें पकड़ी जाती हैं। 


वैसे एक्सक्लूसिव कारों के लिए शौक कई बार मज़ेदार मोड़ ले लेता था। महंगी लग्ज़री कारों के लिए लोग लालायित रहते थे औऱ ऐसी कार पाने के लिए कई बार हास्यास्पद हद तक जाते थे। एक जाने माने गायक के ऊपर एक ऐसी ही कार इंपोर्ट करने वाली कंपनी ने केस कर दिया था। हुआ ये था कार इंपोर्टर ने एक चमचमाती पीली फ़ोक्सवागन बीटल जर्मनी से इंपोर्ट की थी। ये किसी ग्राहक के लिए था, जिसके नाम पर कार रजिस्टर हो चुकी थी, लेकिन डिलिवरी नहीं हुई थी। लेकिन जब नामी सिंगर ने कार टेस्ट ड्राइव के लिए मंगवाई तो इंपोर्टर ने कार को भेज दिया। और फिर जो हुआ हो तो ज़बर्दस्त कहानी बन गई। इंपोर्टर के मुताबिक उस सिंगर ने कार को फिर से अपने नाम रजिस्टर करवा कर रख लिया और कहा कि आप दूसरी कार इंपोर्ट कर लीजिए। जीहां ऐसी दीवानगी थी कारों के लिए और ऐसी कमी थी ऐसे शौकीनों के लिए इंपोर्टे कारों के लिए।


(कुछ महीने पहले छपा )

ऑफ़र और डिस्काउंट का डिस्को


आवश्यकता आविष्कार की जननी है। कार कंपनियों के लिए भी वक्त ऐसा ही आ गया है, जब उन्हें अपनी कारों को बेचने के लिए नए तरीकों का आविष्कार करना पड़ रहा है। कमसेकम कार मार्केटिंग के हिसाब से यही कहेंगे , क्योंकि कार कंपनियों को ये सब करते नहीं देखा था जो भारत में फिलहाल देखा जा रहा है। हां बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में साबुन-शैंपू-नूडल्स के शेल्फ़ पर तो हम देखते ही हैं, लेकिन कार डीलरशिप ने भी ऐसी ही स्कीम दे डाली। बाई-वन-गेट-वन फ़्री । गुजरात से ख़बर आई कि श्कोडा के एक डीलरशिप ने ऐसी गणित निकाली है कि वो एक रैपिड कार की ख़रीद पर वो ग्राहकों को फ़ाबिया कार मुफ़्त दे रही है। हालांकि ये कंपनी की ओर से दिया जाने वाला ऑफ़र नहीं लेकिन फिर भी कहानी दिलचस्प है। डीलरशिप ने आइडिया ये निकाला कि पांच साल के बाद ये फ्री वाली फ़ाबिया मिलेगी। अगर फ़ाबिया बनानी कंपनी बंद कर देती है तो उसकी जगह जो कार आएगी वो दी जाएगी। और अगर ये डीलरशिप कार रिप्लेस नहीं कर पाएगी तो फिर उसकी जगह साढ़े तीन लाख रु पेनल्टी के तौर पर देगी। भले ही ये एक डीलरशिप की कोशिश है, लेकिन कंपनियां भी अपनी जुगत लगा ही रही हैं। ये सिर्फ़ एक नमूना है उस मार्केटिंग की कोशिश का जिससे पता चल रहा है कि कंपनी कैसे कैसे पैंतरे अपना रही है  गाड़ियों को बेचने के लिए। जैसे टाटा मोटर्स ने सबसे पहले तो अपनी मांज़ा और इंडीका रेंज की कारों की क़ीमत को कम किया पचास हज़ार रु तक। उसके बाद कंपनी ने मांज़ा पर एक अनूठा ऑफ़र दिया कि अभी ख़रीदिए और 3 साल के बाद कंपनी उसे वापस ख़रीद लेगी, कार की 60 फ़ीसदी क़ीमत के साथ। किसी को भी आकर्षित करने के लिए ये ऑफ़र काफ़ी ज़ोरदार कहेंगे, जबकि आजकल लोग तीन-चार साल में ही कार बदलना चाहते हैं। इसके अलावा नैनो को लेकर भी टाटा मोटर्स ने कुछ बैंक के साथ गठजोड़ किया है और नैनो भी दुकान से सामान ख़रीदने जैसी कहानी है...क्रेडिट कार्ड स्वाइप कीजिए और नैनो लेकर निकल जाइए। और बिना ब्याज के ईएमआई। 
वहीं वेंटो के साथ फोक्सवागन ने ऑफ़र दिया कि अपनी पुरानी कार दीजिए और एक रुपए में वेंटो ले जाइए। बाक़ी की क़ीमत एक साल बाद। साथ में कुछ शर्तें भी हैं। लेकिन ये तो तय है कि जो ग्राहक ऐसी डील के इंतज़ार में थे उनके लिए बहुत अच्छा वक्त है। एक और स्कीम कंपनी ने दी कि आधी क़ीमत में वेंटो ले जाइए और बाकी की क़ीमत एक साल के बाद। 
वहीं जापानी कार कंपनी निसान अपनी कारों को बेचने के लिए सबसे कम ईएमआई का चैलेंज लेकर आई है। जिसके प्रचार दिख रहे हैं। वहीं कुछ लग्ज़री कार कंपनियां अपनी कारों को बजट से पहले की क़ीमत में लेने के लिए ग्राहकों को बुला रही है।
ये तो कुछ अलग तरीके के ऑफ़र हैं, वैसे बाज़ार में परंपरागत ऑफ़र अभी भी मौजूद हैं । कार पर डिस्काउंट, फ्री इंश्योरेंस या ऐक्सेसरीज़ जैसे ऑफ़र और एक्सचेंज बोनस भी। एक तरीके से कहें कि कार ख़रीद का अच्छा वक्त है तो ग़लत नहीं होगा...हां कंपनियों की हालत को पस्त है ही, फरवरी में कारों की बिक्री पच्चीस फ़ीसदी गिरी जो है। 
(कुछ महीने पहले छपा )

May 04, 2013

कौन करेगा ओवरटेक R8 V10 plus को ?


"कार में लगे सवा पांच लीटर इंजिन से ताक़त निकलती है साढ़े पांच सौ हॉर्सपावर की। सौ की रफ़्तार ये पकड़ लेती है मात्र साढ़े तीन सेकेंड में"

दुनिया के बाकी देशों में या कहें ज़्यादातर देश में रेस ट्रैक पर जाने का अपना अलग रोमांच होता है। जहां पर ड्राइवर या रेसर अपनी और अपनी गाड़ी का काबिलियत को परखता है, या परखती है। जहां पर गाड़ियों को उनकी आख़िरी सीमा तक खींचा जा सके, टॉप स्पीड का असली मतलब समझा जाए। लेकिन हाल में मैंने महसूस किया कि भारत में रेस ट्रैक पर जाने का एक बोनस और है। वहां पर कुछ एक्स्ट्रा निश्चिंतता मिलती है। जैसे ये कि सड़क ठीक होगी, अचानक कोई गड्ढा नहीं मिलेगा, ये भी कि उल्टी साइड से कोई गाड़ी लेकर नहीं आ जाएगा आपको लघु हार्ट अटैक देने के लिए। थोड़ी व्यंग्य के तौर पर आपको ये पंक्तियां महसूस होंगी लेकिन पिछले हफ़्ते वाकई मैं ऐसा ही महसूस कर रहा था मैं, जब मैं एक नई कार को चलाने के लिए दिल्ली से सटे ग्रेटर नौएडा के फॉर्मूला वन ट्रैक पर पहुंचा था। ये कार थी ऑडी की नई आर 8 । ये ऑडी की सबसे ख़ास स्पोर्ट्स कार है। दो दरवाज़ों वाली और दो सीटों वाली। जो बनी है ख़ासतौर पर रफ़्तार के लिए। हालांकि ये कार पहले से भारत में मौजूद थी। लेकिन इस रोमांचक कार को थोड़ा और रोमांचक बनाया है, ये है ऑडी वी 10 प्लस। वी 10 का मतलब ये इंजिन 10 सिलिंडर  वाला इंजिन है। इसमें प्लस का मतलब कुछ ऐक्स्ट्रा  ताक़त से है। कार में लगे सवा पांच लीटर इंजिन से ताक़त निकलती है साढ़े पांच सौ हॉर्सपावर की। सौ की रफ़्तार ये पकड़ लेती है मात्र साढ़े तीन सेकेंड में। सोचिए शून्य से सौ की रफ़्तार साढ़े तीन सेकेंड में। लेकिन इसकी दुनिया सौ तक ही सीमित नहीं रहती है। ये 317 किमीप्रतिकिमी तक जाती है, यानि इसकी टॉप स्पीड। ये सब आंकड़े इसलिए बता रहा हूं क्योंकि अगर सबसे पहले इसकी क़ीमत बता देता तो आपके ज़ेहन में सवाल आता कि आख़िर ऐसा क्या है इस कार में जो इसकी क़ीमत लगभग सवा दो करोड़ तक पहुंच जाए। जी हां इसकी महाराष्ट्र एक्स शोरूम क़ीमत है दो करोड़ छह लाख रु। लगा ना आपको कि आख़िर ऐसा क्या होता है कि इन कारों की क़ीमत करोड़ों में चली जाती है। 



चलिए इसमें सबसे बेसिक वजह तो है इन कारों पर लगने वाली ड्यूटी जो इन्हीं सुपर-महंगी कार बनाती है। लेकिन इसके अलावा भी इनकी क़ीमत हमेशा से ज़्यादा होती है। जिसके पीछे एक ही सोच होती है, कार को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा तेज़ और ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित बनाया जाए। और ये दो पैमाने ऐसे हैं जो किसी भी इंजीनियर के  लिए किसी तिलिस्म से कम नहीं, जिसका संतुलन करना बहुत मुश्किल होता है। और ऐसा संतुलन आपको हरेक ऐसी स्पोर्ट्स कारों में दिखेगा चाहे हो ऑडी हो, मर्सेडीज़ हो, फ़ेरारी हो या लैंबोर्गिनी। इसीलिए बहुत सी कारों को देखकर लगता है कि सिर्फ़ बाज़ार के लिए एक प्रोडक्ट नहीं बनाया गया है, फ़िज़िक्स के नियमों से लड़ते हुए एक मास्टरपीस भी बनाया गया । जो बेतहाशा भागती है, कितनी भी तेज़ रफ़्तार में बिना हिचके मुड़ती है और कितनी भी तेज़ रफ़्तार से अचानक सटीक रुकती भी है । कार में इस्तेमाल हरेक पार्ट-पुर्ज़े इसी मक़सद से चुने और लगाए जाते हैं। और इन सबके बाद इन्हें चलाना एक अलग अनुभव होता है, जहां पर इनकी काबिलियत का जितना टेस्ट हम कर रहे होते हैं उतना ही टेस्ट ये कारें हमारी कर रही होती हैं। और वैसा ही महसूस कर रहा था मैं बुद्घा इंटर्नैशनल सर्किट पर। साढ़े पांच सौ हॉर्सपावर की कार की ताक़त का मज़ा लेते हुए, बिना इस फ़िक्र के कि करोड़ों की इस कार को कोई स्क्रैच ना लगा दे या कोई ओवरटेक करने के लिए हॉर्न ना मारे। 

देर आए, लेकिन क्या दुरुस्त आए ?

"अब अमेज़ आ रही है वैल्यू फॉर मनी सेगमेंट में पैसा वसूल हौंडा मॉडल के तौर पर , तो ऐसे में क़ीमत के बाद सबसे अहम मुद्दा तो माइलेज ही होगा"

हौडा की अमेज़ उन चुनिंदा सेगमेंट में से एक में आ रही है, जहां पर अभी भी मारुति का क़ब्ज़ा है। ऐसे में कंपनी को वो सभी क़दम उठाने थे जो इस अमेज़ को डिज़ायर से टक्कर लेने के लिए तैयार कर सके। ऐसे में कई ऐसे मुद्दे ज़रूर हैं जिन पर हौंडा के डिज़ाइनर्स और इंजीनियर्स ने  काम किया है। जिनमें से एक तो है जगह ।  जब से 4 मीटर से छोटी सेडान कारों का चलन शुरू हुआ है तब से हमने देखा कि सभी कंपनियों ने अपने मौजूदा मॉडल में ही तब्दीली करके नई गाड़ी उतार दी। यानी हैटबैक में डिक्की लगाकर या लंबी सेडान कार का डिक्की काट कर । अमेज़ को तैयार करते करते हौंडा देरी हुई तो ऐसे में उन्हें वक्त भी मिला इस पर काम करने के लिए । तो इसका सबसे बड़ा फ़ायदा है कार के अंदर का जगह। पिछली सीट पर ये कार वाकई अमेज़ करने वाली है, जिस तरीके से इस छोटी कार में स्पेस को निकाला गया है। तो ग्राहकों के बीच ये एक बड़े यूएसपी का काम करने वाला है। लेकिन कार के बारे में सबसे बड़ा पहलू अगर मुझे कोई लगता है तो वो है इसका इंजिन। भारत में हौंडा ने जिस तरीके से डीज़ल की कमी की वजह से संघर्ष किया है, उसे देखते हुए ये मानना बहुतों के लिए मुश्किल था कि कंपनी के पास डीज़ल इंजिन भी हैं।  लेकिन ऐसा नहीं है। हौंडा के पास कुछ डीज़ल इंजिन रहे हैं लेकिन उनकी क्षमता ज़्यादा रही है। जैसे 2.2 लीटर डीज़ल इंजिन जो कंपनी ने यूरोप की अकॉर्ड में लगाया था। वहीं 1.6 लीटर क्षमता वाला इंदिन भी कंपनी ने 2013 में ही उतारा है जिसे कंपनी ने यूरोप की सिविक में लगाया। लेकिन भारत में कंपनी के लिए ज़रूरी था 1.5 लीटर का डीज़ल इंजिन बनाना क्योंकि अगर कार को छोटी कार होने की एक्साइज़ छूट चाहिए तो फिर उन्हें ना सिर्फ़ चार मीटर से छोटा होना पड़ता है साथ में डीज़ल इंजिन के लिए डेढ़ लीटर क्षमता की सीमा भी है। तो अपने उसी 1.6 लीटर डीज़ल इंजिन पर कंपनी ने ख़ास भारत के लिए 1.5 लीटर डीज़ल इंजिन बनाया है। और ना सिर्फ़ कंपनी के इंजीनियर्स ने इसे छोटा और हल्का किया है, उन्होंने इसे काफ़ी फ़्यूल एफ़िशिएंट भी बनाया है। अमेज़ में लगने वाले 1.5 लीटर डीज़ल इंजिन की ताक़त 100 बीएचपी के आसपास है। टॉर्क लगभग 200 एनएएम का है। और ARAI ने जो इसकी माइलेज मापी है वो काफ़ी चौंकाने वाला है। 25.8 किमीप्रतिलीटर। अब ये एक ऐसा आंकड़ा है जो ग्राहकों का ध्यान तुरंत खींचेगा। अब अमेज़ आ रही है वैल्यू फॉर मनी सेगमेंट में पैसा वसूल हौंडा मॉडल के तौर पर , तो ऐसे में क़ीमत के बाद सबसे अहम मुद्दा तो माइलेज ही होगा। 
पेट्रोल इंजिन तो वही है जो ब्रियो में हमने देखा है। और ड्राइव भी वैसा ही। डीज़ल और पेट्रोल दोनों की ड्राइव बहुत रोमांचक नहीं कहेंगे। ठीक-ठाक सी ही है। वहां पर अमेज़ होने की ज़्यादा वजह नहीं मिलेगी। वैल्यू फ़ॉर मनी टाइप की ड्राइव है । जो शांत और सादगी वाली ड्राइव कही जाएगी। 
ये भी दिलचस्प है कि कंपनी अपने डीज़ल इंजिन को लेकर तब आ पाई है जब डीज़ल के एकाधिकार के ख़त्म होने की शुरूआत सी हो रही है। डीज़ल पर से सब्सिडी ख़त्म हो चुकी है और हर महीने डीज़ल की क़ीमत 40-50 पैसे प्रतिलीटर बढ़ ही रही है। तो अमेज़ उस गोल्डेन पीरिएड के बाद आ रही है। तो देरी के अलावा बात करें तो लग रहा है कि देर से ही सही लेकिन अब तक की रणनीति ठीक ही रही है। कंपनी ने इसे भारत  में लौंच के लिए तैयार कर ही लिया है। दोनों इंजिन विकल्प भी आ ही गए हैं। क़ीमत के वक्त बारबार कंपनी की तरफ़ से डिज़ायर का ज़िक्र हो रहा है। ऐसे में साफ़ है कि क़ीमत डिज़ायर के आसपास ही होगी। तो फिर लग रहा है कि एक शांत और बोरिंग कारों की सेगमेंट में  ज़ोरदार हलचल देख पाएंगे हम।  

May 02, 2013

Honda Dream Neo.


ट्वेंटी-ट्वेंटी का खेल ये मोटरसाइकिल कंपनी भी खेल रही है। हौंडा मोटरसाइकिल और स्कूटर इंडिया लिमिटेड ने अपने लिए कुछ वक्त पहले अपने लिए ये लक्ष्य तय किया था। भारतीय मोटरसाइकिल मार्केट में नंबर वन बनना। कंपनी का सोचना साफ़ है कि अगर उनके सहारे हीरो नंबर वन बाइक कंपनी बन गई तो फिर वो क्यों नहीं बन सकते । तो कंपनी ने पूरी कोशिश चालू कर दी है। लेटेस्ट कोशिश है ड्रीम नीयो। दरअसल कंपनी को सबसे पहले उसी सेगमेंट में क़ब्ज़ा करना है जो कुल  मोटरसाइकिल मार्केट का आधा से ज़्यादा है। और यही है वो सेगमेंट जहां पर हीरो ने क़ब्ज़ा कर रखा है, हर महीने अपनी स्प्लेंडर और पैशन की बिक्री को 4-5 लाख टच कराती है। ऐसे में किसी भी कंपनी को नंबर के मामले में हीरो से आगे जाना है तो फिर उसे इसी एंट्री मोटरसाइकिल सेगमेंट में पैठ बनानी होगी। जिस सिलसिले में हौंडा की पहली कोशिश ड्रीम युगा रही । एंट्री सेगमेंट की मोटरसाइकिलों के सिलसिले में हौंडा की पहली कोशिश। सस्ती किफ़ायती मोटरसाइकिल। अब कंपनी ने उसी में कुछ जोड़ा है, थोड़ा स्टाइल एलिमेंट जोड़ा है, रंग जोड़े हैं। ड्रीम युगा बिल्कुल सादी थी, नीओ आज के वक्त की एंट्री मोटरसाइकिल लग रही है। हल्के फुल्के स्टाइलिंग के साथ। हौंडा ने इसे तीन वेरिएंट में पेश किया है। जिनकी क़ीमत 43150 से 47240 रु के बीच है। जहां शुरूआती मॉडल किकस्टार्ट, ड्रम ब्रेक और स्पोक व्हील का कांबिनेशन है, वहीं टॉप एंड में सेल्फ़ स्टार्ट विकल्प है और साथ में अलॉय व्हील्स। कंपनी के हिसाब से इसकी माइलेज अपने सेगमेंट में सबसे ज़्यादा है , 74 किमीप्रतिलीटर ।

इसके अलावा कुछ और फ़ीचर्स हैं जिस पर हौंडा काफ़ी उत्साहित है। जिनमें ऊंचा ग्राउंड क्लियरेंस और एडजस्टेबल सस्पेंशन भी है। कुल मिलाकर कंपनी को लग रहा है कि ये ऐसा पैकेज है जो कंपनी की सालाना बिक्री के लक्ष्य को ऊंचा करने में मदद देगी। कंपनी इस साल भर में लगभग 40 लाख टू व्हीलर्स बेचना चाहती है। और उसे लग रहा है कि 8 लाख बिक्री तो इन ड्रीम सीरीज़ की बाइक्स से मिलने वाला है। ड्रीम युगा और नीयो के अलावा भी एक ड्रीम सीरीज़ की बाइक लौंच अभी होनी बाकी है। 
यानि कुलमिलाकर हौंडा को लग रहा है कि माइलेज , क़ीमत और फ़ीचर्स मिलकर ऐसा पैकेज बनाएंगे जो उसके बाज़ार का मज़बूत करेंगे। और कंपनी ने अपनी रणनीति भी उसी हिसाब से तैयार करके रखी है, जहां पर कई लौंच पाइपलाइन में हैं। 
हौंडा की ये कोशिशें उसके कांपिटिशन को ज़रूर टेंशन दे रही होंगी। ख़ासकर बजाज को, जो लंबे वक्त से इस सेगमेंट में बड़े हिस्से की कोशिश में लगी हुई है। टीवीएस भी ऐसी ही कंपनी हो जो काफ़ी दिनों से उहापोह में जी रही है। इन सबके बीच हौंडा के पास बढ़त है अपने अंतर्राष्ट्रीय पोर्टफ़ोलियो का । जहां कंपनी के पास लगभग हर सेगमेंट के लिए की विकल्प अतर्राष्ट्रीय स्तर पर मौजूद हैं। चाहे वो सौ सीसी की किफ़ायती मोटरसाइकिल या हज़ार सीसी की सुपरबाइक्स।  ये सब देखते हुए हीरो फ़िलहाल भले ही निश्चिंत लग रही हो, बहुत देर तक नहीं रह सकती है। कंपनी नया सोचने में लगी है, नए पार्टनरशिप नई टेक्नॉलजी की कोशिश में। बहुत जल्द कांपिटिशन बहुत ज़्यादा बढ़ने वाला है। 

May 01, 2013

तजुर्बा तो ज़रूरी है....

कुछ साल पहले तक...किसी भी सुपरबाइकर के साथ एक बात तो तय थी कि जब भी कोई उनकी बाइक को कोई छूए को वो तपाक से रोकते थे । कई बार गुस्से से भी। अपनी प्यारी मोटरसाइकिल पर एक उंगली का निशान भी उन्हें पसंद नहीं होता। साथ में ये भी मुद्दा था ही कि कुछ वक्त पहले तक उन मोटरसाइकिलों के पार्ट-पुर्ज़े काफ़ी मुश्किल से मिलते थे। तो चिंता ज़रूरी था। ऐसे में जब मोटरसाइकिल कंपनियां जब सुपरबाइक्स लाईं, और शोरूम पर उन्होंने डू-नॉट-टच का स्टिकर लगाया तो ज़्यादा लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ । लेकिन बात अटपटी ज़रूर थी, जब मैं देखता था कि स्कूली बच्चों का झुंड बाइक शोरूम के बाहर से लाखों रु की उन मोटरसाइकिलों को निहारते थे लेकिन नज़दीक से छू नहीं सकते थे। ये बात मुझे काफ़ी अटपटी लगती थी, ख़ासकर तब जब कंपनियां भारत में इस तरीके की सवारियों का भारत में बाज़ार ही खंगाल रही थीं। यहां पर बिक्री से ज़्यादा ज़रूरी था बाज़ार को बनाना। और मुझे बाद में लगा कि मैं बहुत ग़लत नहीं था। ग्राहक एक्सपीरिएंस की मांग करते हैं।
इसी पहलू पर एक नए लहजे में देखा हार्ले डेविडसन को जब कंपनी ने भारत में अपनी महंगी मोटरसाइकिलों को लौंच किया। कंपनी के शोरूम में बाइकप्रेमियों पर बहुत बंदिशें नहीं थीं । इसके अलावा कंपनी ने अपनी सवारियों को एक्सपीरिएंस करवाने के लिए कई तरीके की कोशिशें की। कंपनी का वैसे भी नाम मज़बूत था लेकिन इन सब कोशिशों के साथ, कंपनी ने आज की तारीख़ में भारत में भी एक मोटरसाइकिल कल्चर को अपने नाम किया है । ये सच्चाई तो है ही कि आने के दो साल में ही कंपनी ने दो हज़ार मोटरसाइकिलें बेच दी थीं, जो बाकी सुपरबाइक या प्रीमियम बाइक की बिक्री से कही ज़्यादा है।  हर वीकेंड पर देश के कई बड़े शहरों में बाइकर्स एक साथ निकलते हैं और बाइकिंग का मज़ा लेते हैं साथ वक्त गुज़ारते हैं।
मोटरसाइकिलों में तो सिर्फ़ इक्का दुक्का ऐसे उदाहरण हैं, कार कंपनियां इस मामले में कहीं आगे जा चुकी हैं। एक वक्त था जब घर पर मार्केटिंग के लिए धूप-अगरबत्ती और वाटर प्यूरिफ़ायर वाले आते थे। अब लाखों करोड़ों की कार कंपनियां शहर शहर घूम रही हैं, अपनी कारों को बेचने के लिए। भारतीय कार बाज़ार की दुर्गति निकली हुई है, ज़्यादातर कार निर्माता हिचकियां ले रहे हैं। कैसे कार बेचें इसकी तरकीबें सोच रहे हैं। कोई एक के साथ एक फ्री दे रहा है और कोई कार्ड स्क्रैच करने के लिए कह रहा है। ऐसे में लग्ज़री कार कंपनियां भी पीछे नहीं रह रही हैं । आज के दौर में इन कंपनियों ख़ासकर जर्मन कार कंपनियों को जिस आक्रामक मूड में देखा जा रहा है वो अब तक नहीं था। पारंपरिक प्रतिद्वंदी मर्सेडीज़, बीएमडब्ल्यू और ऑडी। ये कंपनियां एक दूसरे से रेस में लगी हैं जिसके लिए पूरे भारत में संभावित बाज़ार ढूंढ रही हैं। जहां पर शोरूम है वहां तो है ही, जहां नहीं है वहां भी कार बेचने की कोशिश ज़ोरदार है। सभी कंपनियां किसी ना किसी तरीके से उन सभी शहरों में अपनी कारों को लेकर पहुंच रही हैं जहां पर पैसे वाले ग्राहकों की संख्या बढ़ी मालूम चली है। और एक समय में संभ्रांत और एक्सक्लूसिव ब्रांड उस गुमान में नहीं दिखते जो कुछ साल पहले था। अब वो सभी ग्राहकों को अपने एक एक फ़ीचर को एक्सपीरिएंस कराने की कोशिश कर रही हैं।
जैसे मर्सेडीज़ और ऑडी अपने ग्राहकों के लिए कुछ अलग तरीके की कोशिश कर रही है। कंपनी ने अपनी कारों की ड्राइव और पर्फोर्मेंस की एक एक बारीकी समझाने के लिए ग्राहकों को रेस ट्रैक पर बुलाने लगे हैं। दोनो ही कंपनी ने कुछ हज़ार रु की फ़ीस लेकर अपनी स्पोर्ट्स कारों का तजुर्बा देने के  लिए प्रोग्राम शुरू किया है। जिन शहरों में रेस ट्रैक नहीं वहां पर ख़ास ट्रैक बना कर ।
कुछ कार कंपनी अपनी कारों के साथ छोटे छोटे ड्राइव भी आयोजित करती हैं। जहां पर पुराने ग्राहक अपनी फ़ैमिली के साथ आते हैं। कस्टमर के साथ ख़ास रिश्ता जोड़ने के साथ कंपनी की ब्रांड बिल्डिंग भी हो जाती है। महिंद्रा का ग्रेट एस्केप रैली ऐसी ही कोशिश है, जहां ग्राहक मुश्किल रास्तों पर अपनी एसयूवी दौड़ाते हैं। टाटा मोटर्स ने भी इसी तरह की कोशिश फ़ुल थ्रॉटल के नाम से शुरू कर रही है।
ऐसी कोशिशों के साथ ना सिर्फ़ ग्राहक बेहतर फ़ैसला कर पाते हैं, बल्कि कार कंपनियों के लिए भी फ़ायदे का सौदा होता है  जहां कई ग्राहक प्रभावित होकर कार ख़रीदने का फ़ैसला तुरंत कर लेते हैं। इसके अलावा ग्राहकों की जानकारी बढ़ती है, मोटरिंग का कल्चर बढ़ता है। सभी तरीके से फ़ाएदेमंद ही कहा जाएगा, जो कार कंपनियां ऐसा नहीं कर रही हैं उन्हें तुरंत शुरू करना चाहिए।


February 18, 2013

When We Saw Honda Amaze ...


पहली नज़र में कैसी लगी अमेज़ ??


आख़िरकार वो कार चलाने का वक्त आ गया था जिसके लिए ग्राहकों और पत्रकारों से बहुत ज़्यादा इंतज़ार कंपनी को था। और कार भी क्या कहें असल मुद्दा तो इंजिन था। जिसके इंतज़ार में हौंडा कार कंपनी ने भारत में ना जाने कितनी बेचैन रातें काटी हैं। और इसी वजह से कार भले बी बिल्कुल नई है, लेकिन ज़्यादा चर्चा इसके इंजिन की हो रही थी। तो ये है कहानी हौंडा कार कंपनी की ही है। हाल के समय में डीज़ल का सबसे ज़्यादा दर्द झेलने वाली कार कंपनी। हर सेगमेंट और हर ग्राहक जब डीज़ल की तरफ़ मुंह मोड़ रहे थे, नए नए डीज़ल विकल्प देख रहे थे, तब कंपनी डीज़ल इंजिन बनाने में ही लगी थी। और उसका नतीजा अब दिखा हमें जापान में। जहां हम पहुंचे थे हौंडा की लेटेस्ट नई डीज़ल इंजिन वाली छोटी सेडान कार ' अमेज़' को चलाने। ग्राहकों को तो ये कार अगले साल दिखेगी, क्योंकि हमने जिस कार को चलाया वो अमेज़ का प्रोटोटाइप है। यानि कार का वो नमूना जो बड़े पैमाने पर प्रोडक्शन में आने से पहले तैयार होता है। इसके लिए हम पहुंचे थे हौंडा के आर-एंड-डी सेंटर में। जापान के तोचिगी प्रांत में हौंडा के इस आरएंडी सेंटर पर कई दिलचस्प रेसट्रैक हैं, और इसका नाम है ट्विन रिंग मोटेगी।




कार के बारे में समझना है तो ब्रियो कार को याद कीजिए। उसी की बुनियाद पर हौंडा के इंजीनियरों और डिज़ाइनरों ने लंबी कार बनाई है। यानि मोटे तौर पर तो डिक्की के साथ ब्रियो समझ सकते हैं। यानि स्विफ़्ट से डिज़ायर बनी और टोयोटा ने इटीयोस बनाया। छोटी से बड़ी बनाई कार। कंपनी ने डिज़ाइनर्स ने इसमें जोड़ी है एक डिक्की, यानि ये बनने वाली है सिटी से निचले सेगमेंट में हौंडा की छोटी सेडान कार । और इसे देखने पर भी ब्रियो की ही याद आती है। कार की शक्ल उसी से मिलती जुलती है। लेकिन पिछले हिस्से मे जाते जाते फर्क महसूस होता है। जहां पर छोटी कार में एक डिक्की लगाने की कोशिश कई बार मामला गड़बड़ कर देती है, जैसे पुरानी डिज़ायर  में साफ़ लगता था लेकिन अमेज़ के पिछले हिस्से पर क्रिएटिविटी का इस्तेमाल तो हुआ है। अब चूंकि ये कार 4 मीटर से छोटी बनानी थी तो पिछला हिस्सा थोड़ा छोटा तो रखना ही था। हालांकि स्मॉल कार के तहत छूट पाने के लिए भले ही हौंडा ने इस कार को 4 मीटर से छोटा बनाया हो, लेकिन इस कार के अंदर की जगह इसे बहुत पसंदीदा बना सकती है ग्राहकों के बीच। सवाल सिर्फ़ इसकी क़ीमत का है, हौंडा अपने पुराने इमेज के हिसाब से ना करके अगर डिज़ाइर को देखते हुए इसकी क़ीमत तय करती है हौंडा तो फिर मारुति को ज़ोरदार झटका दे सकती है।


लेकिन इस कार का एक हिस्सा वो भी है जो आने वाले वक्त में हौंडा के लिए भारत में ख़ुशख़बरी ला सकता है। वो है 1.5 लीटर का डीज़ल  इंजिन। अब फिलहाल तो इस इंजिन के बारे में कुछ तकनीकी जानकारी नहीं मिली है। लेकिन ये ज़रूर दावा कर रही है कंपनी कि ये अपने सेगमेंट में सबसे किफ़ायती इंजिन होगा। इसे अलग अलग ट्यून करके कंपनी अपने पूरे पोर्टफ़ोलियो को डीज़लमय कर सकती है। तो फिलहाल यही कहा जा सकता है कि कार बाज़ार जहां स्ट्रगल कर रहा है वहां हौंडा कार कंपनी लेट ही सही, अपने लिए नई गुंजाइश खोज रही है। 

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February 12, 2013

For Harley Lovers and others


हार्ली की नई फ़ैटबॉब


बार बार बात होती है दो तरीके के भारत की...तो बाज़ार में भी इसकी झलक ज़रूर दिखती है। एक तरफ़ हम गाड़ियों की बिक्री को गिरते हुए देख रहे हैं, तो उसी में से स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेह्किल की बिक्री ज़ोरदार बढ़ रही है। एक तरफ़ लोग ज़्यादा से ज़्यादा प्रैक्टिकल और किफ़ायती गाड़ी की मांग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शौकीनों की तादाद भी कम नहीं हो रही है। बढ़ ही रही है। जैसे इस हफ़्ते एक लौंच देखने को मिला दिल्ली में। नामी अमेरिकी क्रूज़र बाइक्स बनाने वाली कंपनी हार्ली डेविडसन लेकर आई है अपनी सबसे लेटेस्ट फ़ैटबॉब। दरअसल ये दो मोटरसाइकिलों का रिमिक्स है। हार्ली डेविडसन अपनी मोटरसाइकिलों को पांच फ़ैमिली में बांटती है। बनावट, फ़ीचर्स और इस्तेमाल के हिसाब से। इन्हीं में से हार्ली के दो मोटरसाइकिल हैं, जो पहले से मौजूद हैं, फ़ैटब्वाय और स्ट्रीट बॉब। इनमें से फ़ैटब्याव के चाहने वाले तो बहुत हैं, जो तब नामी हुआ था जब आर्नौल्ड श्वार्ज़ेनेगर ने सुपरहिट फ़िल्म टर्मिनेटर में चलाया था। भारत में फ़िलहाल इस बाइक की क़ीमत थोड़ी ज़्यादा है। कंपनी ने माना कि ये दोनों बाइक्स काफ़ी पसंद रहे हैं, लेकिन ग्राहक की तरफ़ फ़ीडबैक मिला। तो ऐसे ही कुछ फीडबैक के बाद कंपनी ने इस मोटरसाइकिल को लाने का फ़ैसला किया। फ़ैटब्वाय और स्ट्रीट बॉब को मिलाकर कहानी बनी है फ़ैटबॉब की।
ये मोटरसाइकिल हार्ली की वो छठी बाइक है, जो सीकेडी अवतार में आई है। यानि कंप्लीटली नॉक्ड डॉउन वर्ज़न में। जिसे हार्ली अपने हरियाणा स्थित असेंबली प्लांट में असेंबल करेगी। जिससे कि इस मोटरसाइकिल को ड्यूटी में छूट मिल पाए और इसकी क़ीमत कम रखी जा सके। लेकिन मज़े की बात ये कि इस छूट के बाद क़ीमत क्या हुई है, वो भी जान लीजिए। इसकी एक्स शोरूम क़ीमत है 12 लाख 80 हज़ार रु मात्र। जीहां लंबी कार, या छोटी एसयूवी की क़ीमत में मिल रही है एक हार्ली मोटरसाइकिल।



इसमें लगा है 1600 सीसी का इंजिन। जो ऑल्टो से डबल् साइज़ का है, और इसका टॉर्क 126 एनएम है। यानि बड़ी गाड़ियों से बेहतर टॉर्क वो भी एक दुपहिए में । तो सोचिए कि ताक़त का एहसास कैसा होता होगा । और इसी तजुर्बे को ख़रीदने वालों की संख्या बढ़ रही है। तो फिर से मुद्दा वही आ गया जिससे शुरू किया था। शौकीनों की बढ़ती तादाद। और ये शौक ही जो किसी को इस क़ीमत की बाइक ख़रीदने की सोचे। जो हो भी रहा है। सोचिए कि कैसे हार्ली ने लगभग ढाई साल के वक्त में दो हज़ार बाइक्स बेच दी है। और वो भी तब जब हार्ली मोटरसाइकिल की क़ीमत शुरू ही साढ़े पांच लाख के ऊपर होती है। और ये इसलिए भी बड़ा आंकड़ा है क्योंकि भारत में सुपरबाइक्स या बड़ी इंपोर्टेड मोटरसाइकिलों की बिक्री बहुत कम रही है। जापानी कंपनियों यामाहा, हौंडा, सुज़ुकी से लेकर इटैलियन डुकाटी तब बहुत बड़ी संख्या में बिक्री नहीं देख रहे थे। कुछ समय पहले तक इस सेगमेंट की सालाना बिक्री 500 -1000 बाइक्स की भी नहीं मानी जा रही थी। जिसमें एक वजह ये ज़रूर है कि ज़्यादातर बाइक्स वही थे जो सुपरबाइक्स थे, यानि बहुत ताक़तवर स्पोर्ट्सबाइक्स, जिन्हें संभालना आसान नहीं। लेकिन अगर हार्ली की बिक्री के आंकड़े को देखें तो लग रहा है कि लाखों की मोटरसाइकिलें अब नॉर्म बन चुकी है, ग्राहकों को स्वीकार हो चुकी हैं। अगर काम की सवारी उन्हें मिले तो भारतीय ग्राहक कार की क़ीमत में मोटरसाइकिल ख़रीदने में नहीं झिझक रहे।


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Cars on Fire ....


जब नई टेक्नॉलजी से कारें ज़्यादा से ज़्यादा सेफ़ बन रही हैं फिर क्यों जल रही हैं कारें ?

एक बार फिर से हमने दिल्ली में एक ख़बर देखी है, अगर बारीकी से देखें तो दिल दहलाने वाली। दिल्ली के बीचोबीच गुलाबी बाग के एक सीएनजी स्टेशन पर खड़ी एक कार के बोनेट के भीतर से धुआं निकलना शुरु हो गया। किसी देखने वाले ने कहा कि छोटा धमाका हुआ किसी ने कहा नहीं हुआ। लेकिन उसके बाद जो भी हुआ वो सबने देखा। धुआं आग की लपटों में बदला और कार पूरी तरह से धू-धू कर जलने लगी। सीएनजी स्टेशन पर हड़कंप मच गया। वहां सीएनजी भरवाने आईं कार-ड्राइवरों में खलबली मच गई और वो अपनी अपनी कारों को लेकर बाहर की ओर भागे। कार ड्राइव कर रही महिला की किस्मत अच्छी थी कि वो वक्त रहते कार से बाहर निकल आई और बच गई। और बाकियों की किस्मत अच्छी थी कि कार में आग लगने के बावजूद सीएनजी स्टेशन को कोई नुकसान नहीं पहुंचा और एक दुर्घटना बड़ा हादसा बनने से बच गई। कार में आग लगने की ये कोई पहली घटना नहीं थी  और अब दिल्ली के आसपास के इलाकों की बात करें तो अनोखी भी नहीं रही है। आए दिन कार में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। और कई बार जानलेवा भी। जब कार में आग इतनी तेज़ी से लगती है कि कार के अंदर बैठे सवारों को निकलने का वक्त भी नहीं मिला। और जब ध्यान से देखें तो ये घटनाएं वाकई ज़्यादा होने लगी हैं।
जिस ज़माने में हम बड़े हुए थे उस दौरान गाड़ियों में आग लगने की घटनाएं शायद ही ऐसे सुनने को मिलती थीं। और वो याद करके सवाल उठता है ज़हन में कि आख़िर क्यों कारें इतनी असुरक्षित होती जा रही हैं। ऐसा नहीं कि अख़बारों और टीवी चैनल्स की वजह से ये संख्या ज़्यादा लगती है । सड़कों पर चलते हुए आपको हफ़्ता-दस दिन में एक ना एक गाड़ी जली हालत में सड़क किनारे दिख जाती है। जो एक चौंकाने वाली सच्चाई है। ऐसा कैसे हो रहा है कि एक तरफ़ कारें पहले से ज़्यादा सुरक्षित तो हो रही हैं, ब्रेक, एयरबैग, ट्रैक्शन कंट्रोल, बेहतर बॉडी और क्रेश टेस्टिंग के साथ, लेकिन दूसरी ओर एक बहुत ही बुनियादी सवाल का जवाब अब भी नहीं मिल पा रहा है। कारों में लगने वाली आग। याद होगा कि नैनो में लगी आग ने उसकी छवि कितनी ख़राब की। लेकिन सच्चाई है कि हर कंपनी की कार में आग लग रही है।

कई बार तो रिपोर्ट आती है कि कार का सेंट्रल लॉकिंग सिस्टम ही लॉक हो जाता है। यानि पैसेंजर आग लगने की हालत में अंदर से दरवाज़ा नहीं खोल पाते और अंदर फंस कर जान गंवा देते हैं। हालांकि इस घटना को कई कार के इंजीनियर ग़लत भी बताते हैं। उनके हिसाब से सेंट्रल लॉकिंग आग लगने की हालत में भी लॉक नहीं होती और लोग किसी और वजह से फंसते हैं । जानकार मानते हैं कि कारों के अंदर प्लास्टिक का इस्तेमाल हद से ज़्यादा बढ़ गया है और ऐसे में एक आग फैलने की रफ़्तार बहुत बढ़ जाती है। चाहे वो बोनेट के भीतर हो या डैशबोर्ड। कार कंपनियां कई बार कहती है कि लोकल बाज़ार से सीएनजी किट फिट करवाने से आग लगती है, कई सीएनजी लगाने वाली कंपनियां कहती हैं ऑथोराइज़्ड फिटिंग सेंटर से फिट ना करवाने से आग लगती है। कई बार कार ग्राहकों पर लापरवाही का आरोप लगता है, कि ध्यान से मेंटेनेंस ना करने पर आग लग जाती है। हालांकि जिस घटना का मैंने पहले ज़िक्र किया उस कार मालिक का दावा था कि पिछले हफ़्ते ही उसने कार की सर्विसिंग करवाई थी।
लेकिन यहां पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच जो मुद्दा ठोकर खा रहा है वो है कारों में आग। यानि सरकार को इस मुद्दे पर अब पहले से कहीं गंभीरता से सोचना चाहिए। क्यों आग की घटनाएं बढ़ी हैं, किसकी ग़लती है ? क्या सुरक्षित इंजीनियरिंग की अनदेखी हो रही है ? क्या कंपनियां सस्ती और असुरक्षित पार्ट-पुर्ज़े लगा रही हैं ? क्या ग्राहक वाकई लापरवाही ख़ुद कर रहे हैं और अपनी जान से खेल रहे हैं ? और ये मामला केवल सीएनजी एलपीजी का नहीं, क्योंकि बाकी आम पेट्रोल-डीज़ल कारें भी तो पहले से कहीं ज़्यादा आग पकड़ रही हैं। तो सवाल सबकी सुरक्षा का है...जवाब का बहुत समय से इंतज़ार है।

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February 11, 2013

Year of Small SUVs ?



नए साल की शुरूआत वैसी नहीं जो बहुत ही ज़ोरदार ऐलान के साथ आई हो। गाड़ियों की दुनिया कैसे बदलेगी इस साल इसका अंदाज़ा तो नहीं मिल सकता है इस महीने से..क्योंकि सभी कंपनियां तो इस महीने में क़ीमत बढ़ाने में लगी हैं। लेकिन अगर इस साल के बाज़ार का ट्रेंड पढ़ना है तो उसके सुराग़ पिछले साल से मिल सकते हैं। जब दो घटनाएं हुई थीं, एक तो कई कंपनियों ने अपनी गाड़ियों का ऐलान किया था जो 2013 में आने वाली थीं और साथ में एक लौच। हम बात रिनॉ के डस्टर की कर रहे हैं। रिनॉ ने पिछले साल इसे प्रदर्शित भी किया और लौंच भी। कंपनियों ने एक साथ ही इस सेगमेंट को शायद पढ़ना शुरू किया था और लगभग सभी ने एक साथ इस पर काम करना शुरू किया। ये कौंपैक्ट एसयूवी का बाज़ार है। जहां पर रिनॉ के साथ फायदा ये था कि उसके पास छोटी स्पोर्ट्स यूटिलिटी गाड़ियों में एक प्रोडक्ट रेडी था। और डस्टर ने कुछ ऐसी सफलता देखी है जिसने कंपनी को भारत में पहली बार राहत मिली है। और उसने आने वाले सभी प्रोडक्ट के लिए रास्ता साफ़ कर दिया है। जहां पर एक तो लगे हाथों आ गई , महिंद्रा ज़ाइलो का मिनी वर्ज़न -क्वांटो। जो एक एमयूवी में से निकाली गई छोटी एसयूवी नुमा थी। लेकिन अभी भी कुछ ऐसे प्रोडक्ट आने बाकी हैं , जिन्हें देखते हुए लग रहा है कि साल 2013 शायद छोटी एसयूवी का साल रहेगा। यानि वो गाड़ियां जो एक एसयूवी के तौर पर तैयार और डेवलप की गई हों। जिसमें सबसे पहले लग रहा है कि फ़ोर्ड की ईकोस्पोर्ट कहीं ना कहीं कंपनी के लिए वो  कर पाएगी जो फीगो ने किया था। 



अमेरिकी कार कंपनी के लिए एक ऐसे सेगमेंट को खोलेगी जिसकी आस फोर्ड का हेडक्वार्टर भी लगा रहा होगा। इस गाड़ी को लेकर कंपनी की गंभीरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कंपनी ने पेट्रोल इंजिन पर भी ख़ास काम किया है, जबकि एसयूवी में आमतौर पेट्रोल इंजिन की बात कम ही सोची जाती है और आज के वक्त में तो और भी नहीं। ख़ैर । तो एक छोटे पेट्रोल इंजिन के अलावा और क्या पैकेज में लेकर आ सकती है फ़ोर्ड ये तो देखने वाली बात होगी, क्योंकि इस साल अगर बहुत से लोगों में किसी लौच को लेकर दिलचस्पी है तो यही गाड़ी होगी। इसके अलावा एक और छोटी सवारी मारुति की भी होगी, जो अगर इस साल आ गई तो फिर सेगमेंट में नए तरीके का उछाल हम देख पाएंगे। एक्स ए ऐल्फ़ा की कहानी को हम कौंसेप्ट के तौर पर ही देख पाए हैं। बाज़ार की रफ़्तार और अपने गिरते मार्केट शेयर को देखते हुए मारुति के लिए बहुत ही ज़रूरी है कि वो अपनी छोटी एसयूवी लेकर आ जाए। तो बिल्कुल नए तरीके की मारुति सवारी बाज़ार को कैसे हिलाती-डुलाती है ये देखना दिलचस्प होगा। लेकिन एक्स ए ऐल्फ़ा के बारे में सुगबुगाहट अभी नहीं लग रही है। देखिए कब आती है। लेकिन सिर्फ़ दो गाड़ियों से साल का ट्रेंड नहीं बन सकता है। यानि और भी लौंच इस सेगमेंट में ज़रूर होंगे। जिनमें से एक निसान भी होगी।



 रिनॉ की डस्टर को निसान के नाम से लौंच करने की कोशिश कंपनी काफ़ी दिनों से कर ही रही है। दोनों कंपनियां अपने गठजोड़ की वजह से अब तक अपनी कारों को आपस में बांटती आई हैं। तो हो सकता है कि इस साल एसयूवी को भी वो बांटें, और एक नए नाम के साथ डस्टर आ जाए हमारे सामने। देखते हैं कि निसान और रिनॉ कैसे इस कार को अलग बना पाएंगे। इसके अलावा भी कुछ काम चल रहा है टाटा के कैंप में। जो अब तक पिछड़ती दिख रही है एसयूवी के इलाके में जहां पर सफ़ारी का नया अवतार भी बहुत ज़ोरदार कमाल नहीं दिखा पाई है अब तक जहां उसे अब बिल्कुल नए प्रोडक्ट से भिड़ना पड़ रहा है, एक तरफ़ एक्सयूवी एक तरफ़ डस्टर । तो ऐसे में कंपनी अपनी आरिया को छोटा करने में लगी हुई है पता चल रहा है। आरिया टाटा मोटर्स के पोर्टफोलियो में ऐसी गाड़ी ज़रूर रही है जो कि रिफ़ाइनमेंट, बनावट और इंजीनियरिंग के मामले में काफ़ी बेहतर रही है। और कंपनी अगर इसे छोटा बनाती है, हैंडलिंग पर काम करती है तो फिर वाकई मल्टी यूटिलिटी गाड़ी से एक अच्छी छोटी एसयूवी निकल कर आएगी।
तो देश में ये साल स्पोर्ट्स यूटिलिटी गाड़ियों का होने वाला है। छोटी और किफ़ायती एसयूवी। कुछ कंपनियों ने ऐलान कर दिया है, कुछ ऐलान करने वाली हैं। कुछ जो़रों से कुछ हल्के से। लेकिन ये गाड़ियां आते हुए बदलते भारत की कहानी आ रही हैं। 
*Published in January ** फोटो सौजन्य गूगल

February 06, 2013

Super साल होगा ये क्या !!


सुपर 2013
अगर सबकुछ अपनी रफ़्तार से चला और वो लौंच देखने को मिले जिनकी योजना थी तो साल 2013 मोटरसाइकिलों के लिए भी एक ख़ास साल रहेगा। वो भी बड़ी मोटरसाइकिलों के इलाक़े में, वो मोटरसाइकिलें जिन्हें लोग शौक की वजह से ख़रीदते हैं ज़रूरत के लिए नहीं। पिछले दो-तीन सालों में, ख़ास तौर पर हार्ली डेविडसन के भारत आने के बाद हमने भारतीय लाइफ़स्टाइल बाइकिंग में ठोस तब्दीलियां देखी हैं। कंपनी ने लगभग दो साल में दो हज़ार के आसपास मोटरसाइकिलें बेची हैं। और ये संख्या केवल इस कंपनी के बारे में नहीं बता रहा है बल्कि बाज़ार के बारे में भी बता रहा है, ग्राहकों के बारे में भी । वो मोटरसाइकिलें, जिसका सबसे सस्ता मॉडल साढ़े पांच लाख रु के आसपास शुरू होता है, जो सिर्फ़ क्रूज़र बाइक्स बनाती है, उसने क्या ऐसा किया जो सही था। तो इसमें कंपनी की सभी कोशिशों को याद करना पड़ेगा, जिनमें अच्छे प्रोडक्ट, भारतीय बाज़ार के मद्देनज़र सस्ते प्रोडक्ट, आकर्षक पेमेंट स्कीम से लेकर ठोस आफ़्टर सेल्स सर्विस नेटवर्क की कवायद भी थी। इस कंपनी के अभी तक के प्रदर्शन से कुछ चीज़ें साफ़ हुई हैं, बाज़ार थोड़ा ऑर्गनाइज़्ड दिख रहा है। पहले लाखों की मोटरसाइकिलों का बाज़ार बहुत उहापोह में दिखता था। कुछेक पॉकेट्स में और चुनिंदा शहरों में। ये भी साफ़ हुआ है कि अगर भरोसा दिलाया जाए तो हिंदुस्तानी ग्राहक लाखों रुपए मोटरसाइकिल पर ख़र्च करने से नहीं डरेंगे। 2013 के बारे में बात करते हुए इस पुरानी कहानी का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि एक बड़ा ब्रांड जो इस साल भारत में अपने प्रोडक्ट ला सकती है, उसके लिए हार्ली का सफ़र एक बड़ी सीख हो सकता है। ये वो कंपनी है जिसने भारत में आने का ऐलान 2012 की शुरूआत में ही कर दिया था। ब्रिटिश मोटरसाइकिल कंपनी ट्रायंफ़। कंपनी ने ना सिर्फ़ ऐलान किया था भारत में एंट्री के बारे में बल्कि मोटरसाइकिलों की फ़ाइनल लिस्ट और उनकी क़ीमतों का ऐलान भी कर दिया। लेकिन 2012 के भीतर लौंच का वायदा पूरा नहीं कर पाई। जो अच्छी शुरूआत नहीं कही जा सकती है। लेकिन उम्मीद यही है कि इस साल भी आ जाए वक्त पर तो ज़्यादा नुकसान नहीं होगा। ये एंट्री मुझे इसलिए भी ख़ास लग रही है क्योंकि ट्रायंफ़ मोटरसाइकिल कंपनी हार्ली से जुदा है। केवल अमेरिकी और ब्रिटिश कंपनी की बात नहीं है।





 ट्रायंफ़ का पोर्टफ़ोलियो कहीं ज़्यादा विस्तृत है। जहां हार्ली केवल क्रूज़र मोटरसाइकिलें बनाती है वहीं ट्रायंफ़ के पास हर तरीके की मोटरसाइकिलें हैं जो ना सिर्फ़ ग्राहकों को विकल्प देंगी बल्कि ग्राहकों को नए कौंसेप्ट से परिचित भी करवाएगी। यानि अब तक हम हिंदुस्तानी मोटरसाइकिल प्रेमी दो तरीके की बड़ी मोटरसाइकिलों को जानते हैं सुपरबाइक्स और क्रूज़र। लेकिन ट्रायंफ़ ने अपने पत्ते सही खोले तो ग्राहक उसकी टूरिंग मोटरसाइकिलों को पहचान पाएंगे, क्लासिक सिटी स्पोर्ट्स बाइक जान पाएंगे, ऑफ़ रोड मोटरसाइकिलें भी देख पाएंगे। लेकिन उन सबके लिए ग्राहक जाएं इससे पहले कंपनी को अपनी तरफ़ से गंभीरता दिखानी पड़ेगी, ठोस रणनीति और नेटवर्क के साथ । लेकिन सवाल ये है कि क्या कंपनी कर पाएगी ये सब ? जवाब वही जानती है कि कितना आत्मविश्वास है और भारतीय बाइकरों पर विश्वास है। लेकिन केवल एक कंपनी ही साल को ख़ास नहीं बनाएगी भारतीय बाइक बाज़ार को। ये सिर्फ़ एक सिरा है। बाकी प्रोडक्ट और भी हैं। 



जिस सेगमेंट के बढ़ने का इंतज़ार मैं कई सालों से कर रहा था वो अब दिख रहा है। यानि किफ़ायती मोटरसाइकिलों और सुपरबाइक्स के बीच के सेगमेंट में इस साल कई एंट्री हम देख सकते हैं। वैसे इस सेगमेंट में हाल में जो गतिविधियां दिखी हैं वो बता रही हैं कि ये सेगमेंट काफ़ी ज़ोरों से बढ़ रहा है। और इसके अगले चैप्टर इस साल देखेंगे। जैसे हौंडा की तरफ़ से हमने ढाई सौ सीसी की मोटरसाइकिल देखी सीबीआर 250 के तौर पर, फिर 150 सीसी की स्पोर्ट्स बाइक आई। अब इस साल हौंडा की 500 सीसी वाली नई सीबीआर हम देख सकते हैं, जिसे कंपनी ने अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पेश किया था। वहीं एक सीनियर बाइक आ सकती है केटीएम की तरफ़ से। केटीएम ने अपनी 200 सीसी की ड्यूक को काफ़ी इंतज़ार करवाने के बाद भारत में पेश किया था और अब वो लेकर आ रही है अपनी ड्यूक 390। देखते हैं कि इसकी क़ीमत क्या होती है। वैसे इनके अलावा भी कुछ मोटरसाइकिलों की फेहरिस्त है। और इनकी क़ीमत 4 लाख रु के इर्दगिर्द रह सकती है। 
तो इन सब मोटरसाइकिलों के लौंच की वजह से साल 2013 को शायद वो साल पुकारा जा सकता है जब लाइफ़स्टाइल बाइकिंग भारतीय बाइकर्स के लाइफ़स्टाइल का हिस्सा बने। 

www.twitter.com/krantindtv

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February 05, 2013

Wagon R Upgrade


फिर बदला समीकरण
साल की शुरूआत हो गई है, तो कंपनियां भी न्यू ईयर को हैप्पी करने में लग गई हैं। अपने पोर्टफोलियो को नया करने में लग गई हैं। यानि जिन भी कारों को वो नया कर सकती हैं, कर रही हैं। लग्ज़री ब्रांड से लेकर सस्ती कारों तक। मर्सेडीज़, बीएमडबल्यू और ऑडी ने अपने नए प्रोडक्ट्स, नए डीलरशिप या किसी ना किसी नए उपक्रम का ऐलान किया है। मारुति ने अपनी वैगन आर का नया अपग्रेड पेश किया है बाज़ार में। और इस बदलाव में सबसे अहम जो कंपनी गिना रही है वो है बेहतर माइलेज। अपग्रेड के नाम पर जो छोटे-मोटे बदलावों  का प्रोटोकॉल है उसे तो कंपनी ने निभाया है। तो बहुत फ़र्क नहीं महसूस होगा देखने में लेकिन कंपनी का ज़ोर 8 फीसदी बेहतर माइलेज पर ज़रूर है। हो भी क्यों नहीं, महंगाई और तेल की बढ़ती क़ीमतों के बीच माइलेज तो और भी अहम मुद्दा हो गया है, केवल भारत ही नहीं, ग्लोबल स्तर पर सभी माइलेज बढ़ाने में लगे हैं। तो मारुति ने नई वैगन आर की क़ीमत को दस हज़ार रु बढ़ाया है और 20.51 किमीप्रतिलीटर का माइलेज का दावा कर रही है। 
इस कार का ज़िक्र करना इसलिए नहीं चाह रहा था क्योंकि मुझे लगता है कि ये कार कोई क्रांतिकारी प्रोडक्ट होगी अब इस अवतार में। वही वैल्यू फ़ॉर मनी प्रोडक्ट है जो रहेगी भी...लेकिन इस लौंच का मैं उस ट्रेंड की तरफ़ इशारा करने के लिए ज़िक्र कर रहा हूं जो मुझे लगता है कि फिर बदलने वाला है। डीज़ल का जो साम्राज्य फैल रहा था वो शायद थमेगा या फिर उस बाज़ार की बढ़ोत्तरी की रफ़्तार थोड़ी कम होगी। क्योंकि जिस ऐलान का इंतज़ार जानकार कर रहे थे, ग्राहक आशंकित थे और बाज़ार के पैरोकार जिसके लिए दलीलें दे रहे थे वो हो गया है।  




डीज़ल की क़ीमतें डीरेगुलेट हो गई हैं। सरकार के मुताबिक तेल कंपनियों को डीज़ल की क़ीमत को ख़ुद तय करने का आधिकार दिया गया है। ख़बर ये भी आ रही है कि 4-5 रुपए तो नहीं लेकिन हर महीने धीरे धीरे डीज़ल की क़ीमतों को बढ़ाया जाएगा। 45 पैसे प्रतिलीटर तो बढ़ाया ही गया है, साथ ही पेट्रोल की क़ीमतों को 25 पैसे प्रतिलीटर कम भी किया गया। तो सिलसिला शुरू हो गया है और कहां जाएगा अभी भी बहुत साफ़ किसी को नहीं पता है। अब तक जिस तरीके से तेल की क़ीमतों का निर्धारण हुआ है वो आम लोगों के लिए तिलिस्मी रहा है । पेट्रोल क़ीमतें सरकारी नियंत्रण में नहीं हैं फिर भी चुनावों के हिसाब से क़ीमतों को घटाने बढ़ाने की टाइमिंग दिखती रही है। वहीं डीज़ल पर सब्सिडी के लिए पिछले कुछ सालों में ज़ोरदार आलोचना सुनाई दे रही थी, ख़ासकर नेताओं के द्वारा। जिसमें सबसे बड़ी दलील ये दी जाती थी महंगी एसयूवी वाले ग्राहक डीज़ल सब्सिडी का फ़ायदा ले रहे हैं। ऐसे में कई विरोधाभासी रिपोर्ट भी आ रहे थे जिसके हिसाब से कुल डीज़ल के इस्तेमाल में पर्सनल गाड़ियां 5-7 फीसदी ही खपत करती हैं।  यूटिलिटी या स्पोर्ट्स यूटिलिटी कारें । यानि हल्ला भले ही प्राइवेट कारों का था लेकिन डीज़ल का बड़ा इस्तेमाल पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन, पब्लिक कैरिज और कारख़ानों में होता है। तो सब्सिडी दी जाए या नहीं दी जाए, इसके पक्ष विपक्ष में तमाम ठोस तर्क ज़रूर थे, जिसमें पड़ने का कोई प्रयोजन नहीं रहा है अब। लेकिन पिछले दो-तीन सालों मे डीज़ल की क़ीमतों को लेकर जो पॉलिसी के स्तर पर उहापोह रहा है उसने बाज़ार को पूरी तरीके से बदल दिया।  
ग्राहकों ने लाइन लगा दी थी डीज़ल कारों के लिए , कार कंपनियों ने डीज़ल कारों में अपनी पूरी ताक़त और लागत झोंक दी। लेकिन अब ये संतुलन फिर बदलेगा। जो शायद बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था अगर अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी था । 
तो जिस बदलाव को ग्राहक अभी सिर्फ़ क़ीमतों के तौर पर देख रहे हैं कंपनियां उन्हें आने वाले सालों के ट्रेंड और बाज़ार की शक्ल समझने के लिए देख रही हैं। और अब इस डीरेगुलेशन से लग रहा है कि कार बाज़ार में एक बार फिर से नया संतुलन आएगा। पेट्रोल और डीज़ल कारो के बीच। ग्राहकों के फ़ैसले में भी अब नए समीकरण काम करेंगे। कार ख़रीदने का फ़ैसला केवल डीज़ल की क़ीमत को देख कर नहीं लिया जाएगा। 

Royal Enfield Thunderbird 500


एक ऐसी मोटरसाइकिल जिसके साथ मेरी शुरूआत अच्छी नहीं रही थी। रॉयल एनफ़ील्ड थंडरबर्ड। एक क्रूज़र बाइक, जैसी इनफ़ील्ड की सभी मोटरसाइकिलों को हम मानते हैं, जिसका आकार प्रकार भी क्रूज़र जैसा था। लंबी हैंडिल और कम ऊंचाई वाली सीट । वो शेप जिसे आमतौर पर हम अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में क्रूज़र बाइक के तौर पर देखते आए हैं। जब पहली बार ये बाइक आई थी तो मैं इसे चलाने नौएडा और ग्रेटर नौएडा के बीच एक्सप्रेस्वे पर गया था। तब सड़क बन ही रही थी, एक तरफ का ही काम पूरा हुआ था। उसी पर दोनों साइड का ट्रैफ़िक चल रहा था। और उसमें भी ट्रक ज़्यादा। और मेरे ठीक आगे चलने वाले ट्रक ने बीच सड़क ऐसी ब्रेक लगाई की कहानी ख़राब हो गई। बिना इंडीकेटर, बिना ब्रेक लाइट के ट्रक को रुका हुआ समझने में जितना वक्त लगा वो एक ऐक्सिडेंट के लिए काफ़ी था। मैंने ब्रेक किया, बाइक स्किड कर गई, कई मीटर तक घिसटती गई, साथ में मैं भी । ख़ैर । जैसा कि हर ऐक्सिडेंट के बाद होता है आप उसके हर पहलू को दिमाग़ में कई बार ध्यान दुहराते हैं, सोचते हैं। तो बहुत सारी चीज़ों में एक ख़ास चीज़ नए थंडरबर्ड ने लगा फ्रंट डिस्क ब्रेक। मेरे पास ख़ुद भी एक बुलेट ही थी और उसके ब्रेक की मुझे आदत थी, लेकिन थंडरबर्ड का डिस्क ब्रेक कहीं ज़ोरदार था। अगला पहिया तो वक्त से रुक गया, पिछला नहीं । पहली मुलाक़ात जब ऐसी रोमांचक थी तो याद तो आती ही। वैसे अब जो नई थंडरबर्ड आई है उसमें पिछले पहिए में भी डिस्क ब्रेक दिया गया है। लेकिन ये तो एक पहलू है। इसके अलावा भी कई बदलाव हैं जो नई थंडरबर्ड 500 को अहम बनाते हैं। ना सिर्फ़ ग्राहक के लिए बल्कि कंपनी के लिए भी। मोटरसाइकिल अब नए इंजिन, फीचर्स और लुक के साथ आई है। 500 सीसी का इंजिन अब लगभग 27 बीएचपी की ताक़त दे रहा है। 


जो इसे तेज़-तर्रार तो बनाती है। इसके अलावा छोटे मोटे ऐसे बदलाव हैं जो रॉयल एनफ़ील्ड की बदलती कहानी बयान कर रहे हैं। पिछले पहिए में डिस्क ब्रेक के बारे में तो बता दिया, लेकिन इसका असर एनफ़ील्ड की राइड पर कैसा पड़ा है वो भी बता दूं। आमतौर पर एनफ़ील्ड की मोटरसाइकिलों की ब्रेकिंग हमेशा से बड़ा मुद्दा रही है। कमसेकम वैसे ब्रेक नहीं रहे हैं जैसा आजकल हम बाकी मोटरसाइकिलों में देखते रहे हैं। लेकिन अब एनफ़ील्ड ने उस कमी को पूरा किया है। दोनों पहियों में डिस्क के बाद एक संतुलन और कांफिडेंस महसूस होता है राइडर को।  और केवल ब्रेक ही क्यों इंजिन और गियरशिफ़्ट भी अब राइड का कहीं बेहतर तजुर्बा दे रहे हैं। शहर के बाहर ही नहीं, शहरी ट्रैफ़िक में भी। लेकिन वो तो एक पहलू है। इस मोटरसाइकिल को नया बनाने के लिए और भी कई काम किया है कंपनी ने। जैसे टेक्नॉलजी को अपडेट करना। आमतौर पर देखते रहे हैं कि मोटरसाइकिल कंपनियां जो भी टेक्नॉलजी लाएं, फीचर्स लाएं, एनफ़ील्ड मोटरसाइकिलों में वो नहीं आते थे। जिसकी एक वजह थी ग्राहकों का प्यार, जो किसी भी हालत में एनफ़ील्ड ही लेना चाहते थे, फ़ीचर्स कैसे भी हों । लेकिन हाल में हार्ली डेविडसन ने एक तरह से क्रूज़र बाइक्स की दुनिया को भारत में बदला है। हालांकि एनफ़ील्ड के मुक़ाबले बहुत महंगी हैं लेकिन फिर भी ग्राहकों को नई टेक्नॉलजी और फ़ीचर्स से तो परिचित करवाया ही है। और इस नए और बदले माहौल में थंडरबर्ड एक ऐसी ही कोशिश लग रही है। डिजिटल डिस्प्ले लगा हुआ है इसके इंस्ट्रुमेंटेशन में। जिसमें फ़्यूल गेज और घड़ी के अलावा ट्रिपमीटर भी लगेगा। अब रॉयल एनफ़ील्ड की मोटरसाइकिल में एलईडी लाइट भी मिल रहा है। और ये सब दिल्ली में लगभग 1 लाख 57 हज़ार रु के एक्सशोरूम क़ीमत में मिल रहा है। 

तो लग रहा है कि कांपिटिशन का असर हो रहा है। टेक्नॉलजी बदल रही है, नज़रिया बदल रहा है। एक वक्त का आरामतलब ब्रांड ख़ुद को नए तरीके से बदलने की कोशिश कर रहा है। और इन सबके बीच ग्राहकों के लिए विकल्पों में बढ़ोत्तरी हो रही है। 

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