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December 27, 2014

टोयोटा कोरोला ऑल्टिस


दुनिया में सबसे ज़्यादा बिकने वाली सेडान कार टोयोटा कोरोला ऑल्टिस अपने ग्यारवहें जेनरेशन में। और इसमें बदलाव बाहर से लेकर अंदर तक देखने को मिल सकता है। सबसे पहले जो चीज़ आपको इसमें नई दिखेगी वो बाहर ही दिखेगी। कंपनी ने 
ऑल्टिस के चेहरे मोहरे को बदला है। जिसमें बड़ी भूमिका है इसके नए फ़्रंट ग्रिल को नया देखेंगे, साथ में एलईडी लाइट्स भी नए हैं। इसके अलावा आप देख सकते हैं इसके 16 इंच के अलॉय और क्रोम से चमकता ये पैकेज। 

कार के अंदर भी इसे आप ज़्यादा प्रीमियम होते देख सकते हैं। जहां पर कार्बन पियानो ब्लैक से ये आकर्शक लगेगी, स्टीयरिंग माउंटेड कंट्रोल। डोर हैंडिल के भीतर क्रोम है।  कार के व्हीलबेस को 100 एमएम बढ़ाया गया है।  वहीं आराम के लिए कुछ फ़ीचर्स का ज़िक्र करना ज़रूरी है। जहां पर इसमें लगे हैं रेन सेसंर, वहीं 7 इंच एलसीडी स्क्रीन के साथ नैविगेशन जिसमें यूएसबी और ब्लूटूथ की कनेक्टिविटी है और इसमें ऑडियो भी है। 

पिछली सीट पर आराम के लिए कुछ ख़ास नयापन है। पिछली सीट को रिक्लाइन करने की सुविधा है, जो इस सेगमेंट में नहीं देखने को मिलता है। साथ में पिछली सीट पर लेगरूम भी बढ़ाया गया है। पिछली सीट पर रीडिंग लाइट, सनशेड और पावर सॉकेट दिया गया है। समझ सकते हैं कि इस सेगमेंट में कहानी पिछली सीट पर ही हिट होती है,क्योंकि ऐसी कारों के ग्राहक पीछे ही बैठते हैं। तो वहां पर ज़्यादा आराम और फ़ीचर्स के साथ इसे आकर्षक पैकेज बनाने की कोशिश की है। 
पेट्रोल वर्ज़न वाली कोरोला ऑल्टिस में लगा है 1.8 लीटर वीवीटीआई इंजिन। इसमें एक सीवीटीआई और एक मैन्युअल वर्ज़न का विकल्प है। वहीं इसमें से एक विकल्प है 1.4 लीटर डी4डी इंजिन भी। 

वहीं सुरक्शा के लिए इसमें रियर कैमरा लगा है, डिस्प्ले ऑडियो स्क्रीन के साथ
और बाक़ी के फ़ीचर्स है वो जो आमतौर पर इस सेगमेंट की कारों में होते हैं, जैसे ब्रेक असिस्ट ईबीडी और एबीएस के साथ। और साथ इमोबलाइज़र भी। 

आख़िर में इसकी क़ीमत आपको बता देते हैं। यहां पर पेट्रोल कोरोला की एक्सशोरूम क़ीमत शुरू हो रही है 11.99 लाख रु से और जाती है 16.89 लाख रु तक।   वहीं डीज़ल वर्ज़न की एक्सशोरूम क़ीमत 13.07 से 16.68 लाख रु के बीच है। 


*पुरानी छपी हुई है। 

November 18, 2014

कौंपैक्ट सेडान में एक्सेंट

कुछ गाड़ियां ऐसी हैं जिन्हें देखकर कम लोग रुकते हैं, या देखने के लिए कम लोग रुकते हैं, उनमें से एक हैं कौंपैक्ट सेडान सेगमेंट की कारें। किसी भी टेस्ट ड्राइव के वक्त ये दिलचस्प ऑबज़र्वेशन होता है, किस नई कार या सवारी को देखकर कैसी प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। सुपरबाइक को तो पूछिए मत, कोई एसयूवी हो तो भी काफ़ी दिलचस्पी होती है, नई छोटी हैचबैक कारों के लिए भी अक्सर बहुत उत्सुकता देखने को मिलती है सड़कों पर, लेकिन आमतौर पर छोटी सेडान कारों में शायद वो ग्लैमर या अपील नहीं कि नाहक ही कोई रुक कर उन्हें देखे। हां वो ज़रूर रुकते हैं जो इस सेगमेंट की कार के बारे में सोच रहे हैं। और ये देखकर इस सेगमेंट के बारे में छोटा सा कन्क्लूज़न तो निकाला ही जा सकता है। वो ये कि यहां पर ग्लैमर या अपील भले ही ना हो लेकिन प्रैक्टिकल ज़रूर हैं। इसीलिए हम देख रहे हैं कि इस सेगमेंट में तीस फीसदी से  थोड़ी ही कम बढ़ोत्तरी देखने को मिली थी पिछले साल, और हर महीने इस सेगमेंट में लगभग 24-25 हज़ार कारें बिक रही हैं। जहां पर एक चतुराई से शुरू हुआ सेगमेंट लगातार बढ़ता गया और ग्लोबल कंपनियों ने उसके हिसाब से अपनी स्ट्रैटजी बदली और आज भी हम नए नए प्रोडक्ट इसमें देख रहे हैं। ह्युंडै एक्सेंट उसी कड़ी में अगली कार है। जिसे ग्रैंड आई 10 के प्लैटफॉर्म पर कंपनी ने बनाया और अब जब से लौंच हुई है तब से एक महीने में 11 हज़ार बुकिंग पा गई। ये ह्युंडै के लिए तो बढ़िया ख़बर है ही, साथ में इस सेगमेंट के बारे में भी साफ़ हो रहा है कि नए प्रोडक्ट की गुंजाईश अभी भी है। नई एक्सेंट को चलाने का मौक़ा जब मिला तो इसी सबसे जुड़ा सवाल था कि जिस सेगमेंट में डिज़ायर और अमेज़ का राज है वहां पर और क्या गुंजाईश बची है किसी कार के लिए। 
एक्सेंट को पहली नज़र में देखिए और आपको ग्रैंड आई 10 की याद आएगी। बुनियाद तो है ही। चेहरा मोहरा बिल्कुल वही है। ह्युंडै की फ़्लूइडिक डिज़ाइन फ़िलॉसफ़ी के तहत जो भी कारें आई हैं, आकर्षक रही हैं। भीड़ से अलग दिखती हैं। ऐसे में एक्सेंट भी उसी परिवार का हिस्सा लगेगी। लेकिन हैचबैक से सेडान बनी कारों में हम पिछले हिस्से पर ज़्यादा ध्यान देते हैं कि डिक्की लगाते लगाते कार को बदसूरत तो नहीं बना दिया गया है, या फिर कार उटपटांग तो नहीं दिख रही है। और ऐसे में कहूंगा कि डिज़ाइनर ने अच्छे तरीके से बूट यानि डिक्की को अगले हिस्से से मिलाया है। मुझे बहुत ख़ूबसूरत तो नहीं लगी लेकिन देखने में ठीक लगती है। हां ये भी याद रखने वाली बात है कि ह्युंडै इसके बूटस्पेस के बारे में बता रही है कि ये सेगमेंट में सबसे ज़्यादा बूटस्पेस के साथ आने वाली कार है। 
और जगह के मामले में कार के अंदर भी मामला अच्छा ही है। पिछली सीट पर जगह काफ़ी अच्छी सी है, जिसे लेगरूम और नी रूम कहते हैं। छोटी कार होने के हिसाब से पैर रखने के लिए ठीक ठाक जगह। दो लोग आराम से, तीन लोग थोड़े कम आराम से बैठ सकते हैं। सीट भी ठीक ठाक आरामदेह है। जिस डीज़ल वेरिएंट को मैंने चलाया वहां पर पिछली सीट के लिए रियर एसी वेंट दिया गया था। तो ये इस सेगमेंट के हिसाब से एक्सक्लूसिव आरामदेह फ़ीचर। अगली सीट या ड्राइवर सीट पर जाकर एक्सेंट सबसे प्रभावशाली लगती है। जहां ग्रे और भूरे रंग में मिलाकर बनाए डैश के बीच में अच्छे डिज़ाइन के साथ कार के बटन, नॉब, और एसी वेंट को पेश किया गया है। म्यूज़िक के लिए ऑक्स इन और यूएसबी पोर्ट भी दिया गया है। यहां पर आपको आकर कार अपने सेगमेंट से बेहतर प्रीमियम लुक और फ़ील देगी। स्टीयरिंग पर आपके लिए म्यूज़िक के साथ मल्टीमीडिया कंट्रोल दिया गया है। तो इस फ्रंट पर कार लोडेड है। 
जब आप चलाना शुरू करते हैं कार को तब लगता है कि आप किस सेगमेंट की कार को चला रहे हैं। इसके ड्राइव में रोमांच नहीं प्रैक्टिकैलिटी महसूस होगी। ज़ाहिर है कार का मक़सद भी यही होना है। ग्राहकों की नज़र में इसमें लगे 1.1 लीटर डीज़ल इंजिन से कार की निकलने वाली साढ़े 24 किमीप्रतिलीटर की माइलेज को ज़्यादा तरजीह दी जाएगी बजाय इससे निकलने वाली बीएचपी को। या फिर टॉप स्पीड को। जो इसे फ़ैमिली कार बनाए बजाय स्पोर्ट्स कार बनाने के। तेज़ रफ़्तार पर हैंडलिंग में बेहतरी की गुंजाईश है लेकिन मोटे तौर पर आम ड्राइविंग हालात में कार की ड्राइव संतोषजनक कही जाएगी। 
तो इस व्यवहारिक पैकेज को ह्युंडै ने अमेज़ और डिज़ायर से सस्ते में पेश किया है। इसके पेट्रोल वर्ज़न में मैन्युअल और ऑटोमैटिक विकल्प भी हैं, एक्स शोरूम क़ीमत चार लाख 66 हज़ार से 7 लाख 20 हज़ार रु के बीच है। वहीं डीज़ल वर्ज़न की एक्सशोरूम क़ीमत लगभग पांच लाख 66 हज़ार से सवा सात लाख के आसपास है। इसकी शुरूआती क़ीमतें अमेज़ और डिज़ायर से कम हैं। यानि लड़ाई ने नया मोड़ ले लिया है। जंग और बढ़ेगी जब कुछ और प्रोडक्ट यहां आ जाएंगे।


((कुछ वक़्त पहले छपी..))

September 30, 2014

ये दिल्ली दिलवालों की नहीं...

इस नई दिल्ली से बाहर वालों को नहीं ख़ुद यहां के बाशिंदों को अब डर लग रहा है। अमीर बाप के बिगड़े औलादों से और बिगड़े बाप के अमीर औलादों से भी। 

घटना नंबर एक। 
पिछले शनिवार को मूलचंद के पास के पेट्रोल पम्प पर गाड़ी में तेल भरवाने गया। शनिवार की शाम का वक़्त जब पेट्रोल पंपों पर रौनक़ लगी रहती है। जहाँ दिल्ली के पार्टी पीपल क़रीने से कपड़ों में इस्त्री करके, बालों को सँवार कर, सँभल कर गाड़ियों में तेल भरवाते दिखाई देते हैं। जिससे वीकेंड के उनके पार्टी प्लान पर तेल के छींटें या ग्रीज़ का दाग़ ना लगे। कौरेस्पोंडेंस कोर्स से फ़ैशन की पढ़ाई करने वालों के लिए अच्छी जगह हो सकती है, समझने के िलए कि आजकल पोलो पैंट चल रहा है कि जोधपुरी। आई शैडो के शेड पर शोध की भी गुंजाइश। लेकिन मेरे पास काम था। तो जल्दी वापस ऑफ़िस जाना था। ख़ैर, मेरी कार की बारी भी आई, तेल भराने लगा। और इसी बीच अचानक तू-तू मैं-मैं की आवाज़ सुनाई दी। मैंने भी तेल भरने वाली मशीन के मीटर से अपना ध्यान तुरंत उस कोने पर लगा दिया जिधर चिल्लपों मचा हुआ था। लेकिन किसी असली ऐक्शन नहीं दिख रहा था क्योंकि ये सब हवा भरवाने वाली लाइन में हो रहा था और वो ओट में था। और फिर हाथापाई-थप्पड़ की भी आवाज़ सुनाई दी। ऐसे में तेल भरवाने वाले सभी ड्राइवर, भरने वाले सभी कारिंदे लालायित हो गए कि जल्दी से लड़ाई देखने के लिए बढ़ा जाए। एक नए तमाशे की उम्मीद से भरे थे हम सब। लेकिन जबतक मैं आगे बढ़ा, मामला मद्धम सा लगा। देखा एक टैक्सी ड्राइवर, अपनी इनोवा की खिड़की के रास्ते उतरने की कोशिश सा करता, आधे मन से चिल्लाता-गलियाता लगा। शायद उसी को थप्पड़ पड़ा। लेकिन दूसरी पार्टी नज़र नहीं आ रही थी। कि अचानक दिल्ली का फ़ेवरेट मौलिक आध्यात्मिक प्रश्न गूँजा- "तू जानता नहीं मैं कौन हूँ " और ये उसी ड्राइवर को संबोधित लगा। घूम कर देखा तो एक स्मार्ट सा आदमी हाथ में चमकती रिवोल्वर लहराता ये उद्घोष कर रहा था, चमकती-नक्काशी की हुई रिवॉल्वर। जो उस आदमी के फ़ैशन से मेल खाता लग रहा था, डिज़ाइनर दिल्ली वाले की डिज़ाइनर रिवॉल्वर। जिसे उस शख़्स ने अपनी पैंट में पीछे खोंसा और फिर सफ़ेद ह्युंडै में बैठ गया। और मैं आधे सेकेंड के लिए सोच में पड़ा कि आख़िर टायर में हवा भरवाने को लेकर क्या ऐसा बवाल हो सकता है कि कोई रिवॉल्वर निकाले? फिर मेरे पीछे वाले लोगों ने हॉर्न बजाना शुरू किया तो मैं भी आगे निकल गया।  
घटना नंबर दो। 
फिर से मैं पेट्रोल पंप पर। और इस बार मैं कार लेकर लाइन में खड़ा हुआ, हवा भरवाने के लिए । ये ग्रेटर कैलाश का इलाक़ा, शहर का पॉश, अमीर, पढ़ा लिखा इलाक़ा, लेकिन संभ्रांत ? नहीं । वो इलाक़ा जहां पर कारें पेट्रोल डीज़ल पर नहीं अहंकार पर चलती हैं। दिल्ली के कई संपन्न इलाक़ों की तरह यहां भी पढ़े-लिखे अनपढ़ की अवधारणा को समझा जा सकता है। तो इस पेट्रोल पंप पर क़तार में मेरे से आगे एक बुज़ुर्ग थे। उम्र काफ़ी लेकिन छरहरे, फ़िट से। रिटायर्ड आर्मी टाइप के लग रहे थे। और वो बड़े करीने से कार से उतर कर, चारों टायरों में हवा भरवाने के अलावा कार की डिक्की खोलकर भी खड़े थे कि स्टेपनी में भी हवा भरवा लें। और तुरंत पीछे एक सफ़ेद बीएमडब्ल्यू कार आकर रुकी। और अपनी तेज़ आवाज़ वाली कर्कश हॉर्न को दबाया। जिसे दिल्लीवालों की आदत समझ कर नज़रअंदाज़ किया जा सकता था। यहां पर वैसे भी ब्रेक दबाते ही लोग हॉर्न बजाते हैं। लेकिन उस ड्राइवर ने फिर से बजाया। आमतौर पर ड्राइवरों को इतनी जल्दी होती है लेकिन मैंने शीशे में देखा कि अपनी गर्लफ़्रेंड के साथ बैठा नौजवान उस बुज़ुर्ग की रफ़्तार से उकता कर हॉर्न बजा रहा है। मतलब कह रहा है कि जल्दी बढ़ो आगे। उसे कहीं पहुंचने की जल्दी थी या नहीं पता नहीं। लेकिन उसे इस क़तार में नहीं खड़ा होना था। उसे इंतज़ार नहीं करना था। 
घटना नंबर तीन। 
रात के एक बजे ऑफ़िस से घर के लिए निकला और ग्रेटर कैलाश के एन ब्लॉक के बाज़ार सामने से गुज़र रहा था। आमतौर पर शुक्र शनि की रात काफ़ी रौनक होती है इस सड़क पर जब मैं निकल रहा होता हूं। और रौनक के जितने मतलब निकाले जा सकते हैं वो सब यहां देखने को मिलता है। वो वक्त जब पब और रेस्त्रां बंद होने के बाद पार्टी-पीपल निकल रहे होते हैं, कुछ सड़क पर झूम रहे होते हैं जिनसे बच कर गाड़ी निकालनी होती है साथ में उनसे भी जो अपनी कारों को झुमा रहे होते हैं। कई रात पुलिस वालों के साथ तू-तू मैं मैं भी देखने को मिलता है। ख़ैर जिस ख़ास रात के बारे में मैं ज़िक्र कर रहा था उस रात ऐसे ही गुज़रते हुए फिर से गालियों की गूंज सुनाई दी और कारों की रुकी क़तार के आगे से आ रही थी। और आगे बढ़ने पर देखा कि इस बार एक ऑडी कार की खिड़की से सर निकाले नौजवान गालियां बक रहा है और ये थी सामने उल्टी तरफ़ से आती ऑल्टो कार के लिए, जिसमें एक बुज़ुर्ग जोड़ी थी, सकपकाई सी। पता नहीं ग़लती किसकी थी कि दोनों कारें ऐसे आमने सामने फंसी थीं, लेकिन ६० से ऊपर के उस जोड़े को,इतनी देर रात ऐसी सड़क पर देखकर किसी को भी दया आ जाए। 

ये दिल्ली है। और जितना ज़्यादा वक़्त सड़कों पर ड्राइव करते गुज़र रहा है, उसके बाद यही लग रहा है कि यही दिल्ली है। जहां सड़कों पर एक मान्यता प्राप्त जंगल राज है, जो क़ानून व्यवस्था के दायरे से दूर, यहां के लोगों के मनों में है। जो ट्रेंड उन हादसों से भी ज़्यादा हिंसक लगने लगे हैं जिनमें दरअसल दो हज़ार दिल्ली वाले अपनी जान गंवा देते हैं। वैसे ही मुंबई-बैंगलोर के दोस्त दिल्ली की बेरुख़ी और अग्रेशन से डरते-मज़ाक उड़ाते हैं, अब तो हालत और ख़राब होती लग रही है।  वो उजड्डपना और लंपटपना जो मारुति-ह्युंडै, बीएमडब्ल्यू-ऑडी, प्राइवेट और टैक्सी की सीमाओं को पार करता एक जैसा पूरे शहर पर पकड़ बना रहा है। जिसे रोड रेज के नाम से जाना जा रहा है, वो रेज जो रोज़ की बात हो गई है। जहां-तहां बीच सड़क पर रुकती गाड़ियां और फिर  उनमें से आस्तीन समेटते निकलते लोगों की आपस में बहसबाज़ी और गाली गलौज होते देखना दिल्लीवालों की आदत बन गई है। कई हॉर्न दबा कर बैठ जाते हैं, और उस प्रेशर हॉर्न की आवाज़ भी कम लगने लगती है तो फिर  चिल्लाने भी लग रहे हैं। अपने दोस्तों सहकर्मियों से ज़िक्र करो तो उनका एक ही डर होता है कि पता नहीं किस बात पर लोग बंदूक निकाल लें। बुज़ुर्ग, महिला या बच्चों की मौजूदगी भी नहीं शांत करती है इन लोगों को। 'दिल्ली दिलवालों की’ जैसे जुमले पहले भी शक के घेरे में थे अब तो और भी बेमानी लगते हैं। इस बेदिली का कोई भी मोटर वेह्किल ऐक्ट हार्ट ट्रांसप्लांट नहीं कर सकता । इस नई दिल्ली से बाहर वालों को नहीं ख़ुद यहां के बाशिंदों को अब डर लग रहा है। अमीर बाप के बिगड़े औलादों से और बिगड़े बाप के अमीर औलादों से भी। 

July 12, 2014

बजट में रोड सेफ़्टी के लिए कुछ कहा क्या ????

( जब सड़कों को चौड़ा करने, कॉरीडोर बनाने, इंफ़्रास्ट्रक्चर बेहतर करने पर ज़ोर दिया जा रहा था, लगा कि ये सरकार कुछ ऐसे ऐलान करेगी जो इतने सालों से कांग्रेस ने नहीं किया था, रोड सेफ़्टी के लिए कुछ पैसे निकालेगी, १०० करोड़ वाले २९ प्रोजेक्ट हो ही चुके थे, ३० भी हो सकते थे !! कुछ इशारा तो करते, ज़िक्र तो करते कि जिन सड़क हादसों की वजह से कहा जाता है सालाना सवा लाख लोग मारे जाते हैं, जीडीपी का दो-ढाई फीसदी का नुक़सान करता है, उस पर भी कुछ पॉलिसी टाइप की बात करते, उस बहस में नहीं जा रहा कि महिला सुरक्षा के लिए इतना और पटेल की मूर्ति के लिए इतना...कमसेकम सोच तो दिखा देते ? थोड़े दिन पहले ये कॉलम लिख रहा था तो लग रहा था कि बजट के वक्त कुछ ऐसा सुनाई दे जाए, आख़िर एक मंत्री की मौत हुई थी, किसी आम हिंदुस्तानी की नहीं...तब तो चिंता होनी चाहिए थी ?? ) 


हाल में एक मौत ने फिर से हमारे सामने ये सवाल खड़ा कर दिया है जिसे हम बार बारे उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन जवाब नहीं मिल रहा है। वो ये कि कब तक हिंदुस्तानी
सड़कें दुनिया की सबसे ख़ूनी सड़कें बनी रहेंगी। कब तक हम रोड सेफ़्टी को इतने हल्के में लेते रहेंगे, कब तक हिंदुस्तानियों की जान की अहमियत को इतना कम आंकते रहेंगे।
अलग अलग आंकड़ों का औसत भी लें तो देश की सड़कों पर हर साल सवा लाख से ज़्यादा लोग अपनी जान सड़क हादसे में गंवा देते हैं। और अब तक अगर सरकारों का रवैया देखें तो लगेगा कि इन जानों की फ़िक्र सरकार को नाम मात्र की ही है, कागज़ों में, ख़ानापूर्ति में। लेकिन सड़क हादसे में एक मंत्री की मौत के बाद अचानक लग रहा है कि तस्वीर शायद बदले।
अचानक सा लगने लगा है कि इस बार शायद कुछ अलग है, सवा लाख मौत पर जैसा रवैया अब तक सरकारों का देखने को मिलता रहा है,पता नहीं क्यों उम्मीद हो रही है, या कमसेकम ऐसा लग रहा है कि अब चारों ओर से चर्चा शुरू होगी, कोशिशें शुरू होंगी समाधान निकालने की और कुछ ठोस क़दम उठाए जाएंगे। लोगों की जान की क़ीमत समझी जाएगी, ट्रैफ़िक सेफ़्टी नियमों को लागू करने में कड़ाई बरती जाएगी, सड़कों के डिज़ाइन की ख़ामियां दूर की जाएंगी और सेफ़्टी को सबसे बड़ी प्राथमिकता माना जाएगा।
इस उम्मीद की वजह साफ़ है, एक तो इस बार किसी आम आदमी या नेता की हादसे का शिकार नहीं हुआ है। इस बार हादसे में मौत एक मंत्री की भी हुई है। और हादसे की तस्वीर लगभग वैसी ही, जैसी हमें हर रोज़ देखने की आदत है। क्रॉसिंग से गुज़रती दो गाड़ियां, एक की रफ़्तार ज़्यादा, कोई एक लापरवाह और कोई बेपरवाह। नतीजा मौत। इस बार दिल्ली के चौराहे पर ऐसा देखा गया है।
दूसरी वजह है सरकार का नया होना। अभी जिस तरीके से सालों बाद फिर से सरकार में आई एनडीए में जोश दिख रहा है, कई मुद्दों पर सकारात्मक ऐलान सुनने को मिले है, हालांकि कार्रवाई का इंतज़ार है, उसे देखकर लग रहा है कि गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद सरकार कुछ क़दम उठाए, जिससे सड़कें ज़्यादा सुरक्शित हों।
सबसे अहम तो ट्रैफ़िक नियमों का पालन ही है। ये समझते हुए कि सभी हाईवे, सड़कों या चौराहों पर ट्रैफ़िक पुलिस को तैनात करना नामुमकिन है। हर स्पॉट पर पुलिस कर्मी हों तो भी ज़रूरी नहीं कि सभी नियम तोड़ने वाले उनकी नज़र में आ जाएं, या वो सभी को पकड़ पाएं। तो इसका समाधान टेक्नॉलजी ही हो सकती है। जहां सबसे पहले स्पीड कैमरे लगाने की ज़रूरत है। सबसे पहले देश की उन ख़ूनी सड़कों को कैमरे से लैस किया जाना चाहिए, जहां पर रिकॉर्ड के मुताबिक सबसे ज़्यादा सड़क हादसे होते हैं। वहां पर कैमरे से लोगों पर एक अंकुश लगेगा कि वो स्पीड लिमिट को ना तोड़ें, या नियम ना तोड़ें। इससे चप्पे चप्पे पर पुलिसवालों की तैनाती से छुट्टी मिलेगी।
इसके बाद लाइसेंसिग की पूरी प्रक्रिया को फिर से देखने की ज़रूरत है। बिना काबिलियत के ड्राइविंग लाइसेंस देना बंद किया जाना चाहिए, जिसके लिए लाइसेंस से पहले ट्रेनिंग भी अनिवार्य की जा सकती है। इसके अलावा इस इलाक़े में भी टेक्नॉलजी का इस्तेमाल ज़रूरी है। लाइसेंस देने के मापदंड और प्रक्रिया साफ़ सुथरी, सटीक और पारदर्शी होनी चाहिए,जिसका एक एक रिकॉर्ड इंटरनेट पर होना चाहिए। किसे किस गाड़ी के लिए किस आधार पर लाइसेंस मिल रहा है।
सरकार की तरफ़ से एक और कोशिश दिखनी चाहिए। वो है पैदल यात्रियों की सुरक्शा और उन्हें मिल रही तरजीह। ना सिर्फ़ उनके लिए फ़ुटपाथ साफ़ करवाए जाने चाहिए, बल्कि उनके लिए सड़क पार करने के सेफ़ रास्ते बनाए जाने चाहिए।
और साथ में गाड़ियों के ड्राइवरों को याद दिलाया जाए कि पैदल यात्रियों के अधिकार क्या हैं। हादसों की सूरत में लागू होने वाले क़ानून को कड़ा करने की ज़रूरत भी है। ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने की सूरत में ज़्यादा बड़ा चालान भी, क्योंकि असल समाधान लोगों से ही आने वाला है। सड़क पर जान लेने के लिए सरकारें सड़क पर ड्राइव करने नहीं आती हैं। लोग जाते हैं, अपनी गाड़ियों के साथ, लापरवाह, बेपरवाह वो आम लोग जिनके लिए ट्रैफ़िक नियमों की कोई अहमियत नहीं है, या उन नियमों को तोड़ने में फ़ख़्र महसूस करते हैं।
वैसे लिस्ट अभी लंबी है जिनकी उम्मीद मुझे सरकार से है, और इंतज़ार भी।


Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कुछ दिनों पहले छपी थी।

July 06, 2014

ब्रांड भी थकते हैं...


ब्रिटिश चीज़ों को लेकर हिंदुस्तानियों का लगाव कुछ ज़्यादा ही है। अब चाहे इसे ग़ुलाम मानसिकता कहें, अभिजात्य वर्ग में ट्रांज़िशन का रास्ता कहें या फिर कुछ चीज़ें होती भी लगाव लायक। ऐसे में वो ब्रिटिश ना भी हों तो हमें हो सकता है वो अच्छी लगें। जैगुआर कारों के बारे ऐसी ही दुविधा मुझे लगती है। क्या ये ब्रिटिश है इसलिए हिंदुस्तानी इतने लगाव से इस ब्रांड को देखते हैं, क्या इसलिए क्योंकि दरअसल हिंदुस्तानी कंपनी टाटा ने जैगुआर लैंडरोवर को ख़रीद रखा है या फिर इसलिए क्योंकि ये कारें वाकई इतनी ख़ास और ख़ूबसूरत दिखती हैं। हो सकता है तीनों का कांबिनेशन हो, जो मुझे देखने को मिला ग्रेटर नौएडा के पास बनती सड़क किनारे खड़े नौजवानों से बात करके। जो जानते थे कि ये जैगुआर कार है, जानते थे कि कार के बोनट पर एक शेरनुमा कुछ निशान बना रहता है। और ये भी कि ये ऑडी बीएमडब्ल्यू से अलग टाइप की कार है।
तो इन सब नौजवानों और अपने सवालों से मिलने के बाद मैं निकला देखने कि जिस जैगुआर पर इतनी चर्चा हो रही थी वो दरअसल चलाने में थी कैसी और क्या ये सफल होगी उस कोशिश में जहां पर कंपनी यानि जैगुआर की नज़र है। 
ये जैगुआर एक्स एफ़ २.२ थी। जिसे चलाने निकला था और ज़ेहन में वही सवाल था कि इस सेगमेंट में जो पैमाना तीनों जर्मन कारों ने सेट किया है, जो आदत जर्मन कारों ने ग्राहकों को डाल दी, उसमें क्या कुछ नया करने की क्षमता है जैगुआर की। जिस कार को लेकर निकला वो २.२ लीटर डीज़ल इंजिन से लैस एक ऑटोमैटिक कार थी। इससे पहले इसमें ३ लीटर वाला विकल्प तो था लेकिन जैगुआर ने कोशिश की अपनी कार को छोटे इंजिन से लैस करके और क़ीमत को कम करके उन तीनों महारथियों से टक्कर लेने की जो इस सेगमेंट में राज कर रहे थे। मर्सेडीज़, बीएमडबल्यू और ऑडी। 
एक्स एफ़ मोटे तौर पर सबसे सस्ती जैगुआर कारें हैं भारत में जहां एक्स एफ़ फ़िलहाल तीन इंजिन विकल्पों के साथ मौजूद हैं। एक तो २ लीटर पेट्रोल इंजिन विकल्प है, २.२ लीटर डीज़ल इंजिन है और तीसरा ३ लीटर डीज़ल इंजिन विकल्प। 
जहां एक्सएफ़ पेट्रोल ४८.६ लाख की है वहीं एक्सएफ़ २.२ डीज़ल ४८.९ लाख रु की है। और ३ लीटर डीज़ल विकल्प सबसे महंगी ५४.९ लाख रु की है, और एक्सएफ़ २.२ 
के ज़रिए इसी प्राइस बैंड को कम करने की कोशिश की थी जैगुआर ने।
हालांकि छोटे इंजिन के बावजूद ताक़त और प्रदर्शन में कोई कमी नहीं कह सकते हैं। काफ़ी तेज़ तर्रार है, और हैंडलिंग के मामले में अपने सेगमेंट के मुताबिक प्रदर्शन ज़रूर करती है, हां स्पोर्ट्स कार जैसी नहीं कहेंगे स्टीयरिंग और सस्पेंशन के मामले में क्योंकि इसमें ज़्यादा तरजीह आराम को ही दिया गया है। तो जर्मन कारों की हैंडलिंग की आदत में ये थोड़ा अलग लगेगा, क्योंकि उनकी हैंडलिंग का स्तर थोड़ा ज़्यादा स्पोर्टी ज़रूर लगता है। लेकिन ये अलग मूड की कार है। और कार को अंदर से भी देखें तो मौजूदा विकल्पों के मुक़ाबले थो़ड़ा पुराना डिज़ाइन लगता है, बहुत हाईटेक नहीं लगेगा। फ़िनिश में एक शाही टच है लेकिन आजकल यंग होते ग्राहकों के लिए अपटूडेट लुक नहीं कहेंगे। लेकिन एक मुद्दा ये भी है कि जिनके पास पैसे हैं वो ख़र्च करने के लिए नया विकल्प ज़रूर ढूंढ रहे हैं, जर्मन ब्रांडों से एक तरह से थकान भी कह सकते है, ब्रांड भी थकते हैं, ऐसे में उनके लिए जैगुआर एक विकल्प हो सकती है। कार जो महंगी है, लेकिन ख़ूबसूरत भी हैं और ब्रांड भी ब्रिटिश है।

(Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है)

July 03, 2014

गर्मागर्म ड्राइव


मौसम ऐसा ही है जहां पर हममें से हर कोई नई मंज़िल की तलाश में निकलने की सोच रहे हैं, ये बात अलग है कि छुट्टी मिले या ना मिले अपनी अपनी नौकरियों से। चलिए मान कर चलते हैं कि मौसम है गर्मियों की छुट्टी का, यानि बच्चों की छुट्टियों का तो ऐसे में ज़्यादातर प्लान करके रखते हैं, और उनमें से कई का प्लान होता है पूरे परिवार के साथ ड्राइव करके घूमने जाने का। तो ऐसे ही परिवारों के लिए ख़ासतौर पर आज सोचा कुछ लिखा जाए, वो जानकारियां जो आपके पास होती हैं लेकिन फिर भी फिर से याद दिलाने में कोई नुकसान नहीं है। वैसे गर्मियों में किसी भी तरीके के ड्राइविंग के लिए टिप्स कामके होते हैं, चाहे आप लौंग ड्राइव पर हों, या स्मॉल ड्राइव पर। परिवार के साथ हों या फिर अकेले।

सबसे पहले तो आपको अपनी यात्रा का प्लान करना ज़रूरी है। कब निकलना है, दिन के किस वक्‍त निकलना है, जिससे ट्रैफ़िक कमसेकम मिले। कौन सा रूट पकड़ना है- ये अहम मुद्दा है क्योंकि भारत में सड़कों का कंस्ट्रक्शन कैसे चलता है ये हमें और आपको सबको पता है। ऐसे में कब कहां अटक जाएं ये पता नहीं। और छुट्टी पर जाने के रास्ते ऐसे जाम मज़ा किरकिरा कर देते हैं। इसके लिए सबसे पहले तो अपने दोस्तों-सहकर्मियों से बात करें। ज़्यादातर टूरिस्ट स्पॉट पर लोगों का आना जाना लगा रहता है, और रास्तों के बारे में वो लेटेस्ट जानकारी रख सकते हैं, कईयों के रिश्तेदार दोस्त उन इलाक़ों में रहते हैं। और इसके बाद रामबाण है इंटरनेट, जाइए नेट पर और सर्च कीजिए उन हाईवे और रोड के बारे में । बहुत से ऐसे वेबसाइट और फ़ोरम हैं जहां पर लोग अपनी यात्राओं का अनुभव लिखते हैं, ज़्यादातर मौक़े पर ये अनुभव काम के होते हैं। मेरा तजुर्बा भी यही रहा है कि रास्ते की जितनी जानकारी हो, आप सफ़र के लिए उतना तैयार रहते हैं। 

फिर आते हैं आपकी कार पर। यानि गाड़ी कितनी तैयार है, लंबे सफ़र, देर तक ड्राइव, गर्मी और बुरी सड़कों के लिए। लौंग ड्राइव पर कारों की असली रगड़ाई होती है तो इसके लिए उन्हें अच्छे से तैयार भी करना चाहिए। बिना कार की तैयारी के निकलना बहुत बड़ी भूल होगी। तो इसके लिए ले जाइए वर्कशॉप पर, और चेक करवाइए ट्यूनिंग, बैट्री, बेल्ट वगैरह। किसी पाइप या रबर में कोई लीकेज तो नहीं , चेक करवाइए। ज़रूरत हो तो ऑयल चेंज करवाइए और टायर भी रोटेट करवाइए। एसी की भी सर्विसिंग नहीं करवाई हो तो करवा लीजिए। काम आएगा। एक और ज़रूरी बात, वाइपर को भी चेक कीजिए और वाइपर के साथ वाले वाशिंग के लिए भी पानी भरा होना चाहिए। बारिश हो ना हो, कई बार पहाड़ी इलाक़ों में मौसम बदलता है। वैसे भी ड्राइव के दौरान भी कभी भी शीशा साफ़ करने की ज़रूरत पड़ सकती है।

लगे हाथों लाइट्स भी चेक करवा लीजिए। हाईवे पर एक भी लापरवाही जानलेवा होती है तो बिना हर लाइट का सही तरीके से काम करना ज़रूरी होता है। शहरी ट्रैफ़िक में भले हमें अहमियत पता ना चले लेकिन हाईवे पर सेफ़्टी के लिए लाइट्स का फ़िट होना बहुत ज़रूरी हैं। 

फिर टायर के बारे में तो आपको याद होगा ही। लंबे सफ़र पर टायरों की भूमिका काफ़ी अहम हो जाती है। एक तो टायर को चेक करना ज़रूरी है। अगर ज़रूरत से ज़्यादा घिसे हुए टायर हैं तो फिर वो गर्मी में फट सकते हैं। लंबी दूरी की ड्राइविंग में एक तो पहिया गर्म होता है ऊपर से मौसम की वजह से सड़कें तपी हुई होती हैं, ऐसे में टायर में भरा हुआ हवा गर्म होकर थोड़ा फैलता है, जिसका दबाव घिसे टायर कैसे झेल सकते हैं, तो गर्मियों में टायरों का फटना आम है।और इसी वजह से दूसरा प्वाइंट भी अहम है। टायर अच्छी हालत में होने चाहिए और उनका एयरप्रेशर उतना ही होना चाहिए जितना कंपनी ने निर्धारित किया है। ज़्यादा हवा भरवाएंगे तो गर्मियों में टायरों के लिए जानलेवा हो सकता है। और इन सबको चेक करने के बाद एक और चेकिंग, वो है अापकी गाड़ी की स्टेपनी की, पांचवे टायर की। उसका स्वास्थ्य कैसा है चेक करके रखिए, ज़रूरत है तो हवा भरवा के उसे भी तैयार रखिए।

फिर इससे जुड़ा एक और प्वाइंट। चाहे दो दिन के लिए जाएं या फिर चार दिनों के लिए कितना सामान ले जाना है ये भी ध्यान रखें। बिना मतलब सामान ले जाने कोई मतलब नहीं होता है। उससे ना सिर्फ़ कार में जगह भरता है, एक्सट्रा वज़न टायर पर बेवजह दबाव बढ़ाएगा और माइलेज पर भी । तो सामान पैक करने के वक्त ध्यान रखें। जो चीज़ बिल्कुल ज़रूरी हो वही साथ में ले जाएं। 

अब बात सड़क पर ड्राइविंग की करें तो ये समझना ज़रूरी है कि हाइवे पर ड्राइविंग शहरी ड्राइविंग से बिल्कुल अलग होती है, शहर में कई बार आम ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने पर हम बच जाते हैं तो लगता है कि इन नियमों की ज़रूरत क्या है, लेकिन उनकी असली अहमियत हाइवे पर दिखेगी, जो नियम दरअसल जान बचाने के लिए काम में आते हैं। तो शहर की तरह आड़ी तिरछी, ग़लत ओवरटेकिंग की ग़लतियां मत कीजिए। 
फिर सेफ़्टी के इंतज़ाम भी रखें। जहां हाईवे पर हमारी औसत रफ़्तार कहीं ज़्यादा होती है, ऐसे में सेफ़्टी की ज़रूरत और बढ़ जाती है। पिछली सीट पर भी सीट बेल्ट बांध कर फ़ैमिली को बिठाइए। याद होगा कि हाल में पिछली सीट पर ही बैठे हुए हमारे केंद्रीय मंत्री की दुर्घटना में मृत्यु हुई थी। तो सेफ़्टी हर सीट पर ज़रूरी है। और ये चालान से बचने के लिए नहीं जान बचाने के लिए ज़रूरी है।
और यही सलाह फ़ोन को लेकर भी देंगे, फ़ोन का इस्तेमाल आपकी ड्राइविंग को प्रभावित करता है, चाहे आप कितने भी काबिल ड्राइवर हों। ऐसे में ज़रूरी है कि आप अपनी ड्राइव को सेफ़ बनाएं, फ़ोन का इस्तेमाल ड्राइव के दौरान ना करें।
आप घंटों लगातार ड्राइव करने से बचें। कई बार थकान होने के बवाजूद हम ड्राइव करते रहते हैं, जो ख़तरनाक होता है। तो चाय कॉफ़ी का ब्रेक, हर डेढ़ दो घंटे पर हो तो बेहतर हो।
हां ध्यान रहे, केवल चाय कॉफ़ी के लिए बियर या शराब के लिए नहीं। ये विडंबना ही है कि भारत में १ लाख ३८ हज़ार लोग सड़क हादसों में मरते हैं, जिनमें से अधिकांश हाइवे पर मरते हैं लेकिन सरकारें हैं कि हाइवे पर शराब की दुकानें खोले जा रही है खोले जा रही है। तो आप कृपया इस जाल से बचिएगा, ड्राइविंग के दौरान शराब बिल्कुल मत पीजिएगा।

एक और सुझाव है, सलाह तो नहीं दे सकता क्योंकि हर इंसान की सोच अपनी अपनी होती है। लेकिन मेरे हिसाब से एक और चीज़ ध्यान रखने वाली है हाइवे पर ड्राइव करते वक्त, वो है आपके सर का तापमान। अाजकल देश के ज़्यादातर शहरों में रोडरेज आम बात है, यानि गर्ममिज़ाजी। छोटी छोटी बात पर बहस लड़ाई का रूप ले लेती है, और अंजाम बुरा होता है। शहर में माहौल दूसरा होता है, हाइवे पर दूसरा। तो सुझाव यहीं दूंगा कि कार के साथ अपने दिमाग़ को भी ठंडा रखिए और निकल जाइए मस्त छुट्टियां मनाने।





इमर्जेंसी के लिए कार में क्या ज़रूरी ? 
फ़र्स्ट एड किट
ज़रूरी दवाईयां
जंपर केबल
जैक
रिपेयर टूल
रोड मैप
टॉर्च लाइट

Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है।

June 04, 2014

एक नए मेनिफ़ेस्टो की ज़रूरत



हर तरफ़ वादों और दावों के झंडे लहरा रहे हैं, बयानों और बहानों की बारिश हो रही है। ये मौसम है चुनावो का। जहां सभी ये जताने में लगे हैं कि आपकी फ़िक्र सबसे ज़्यादा की जा रही है, आपके एक वोट के लिए चांद तारे तोड़ कर लाने के वादे अब इतने पुराने हो गए हैं कि उन सबमें रोमांस बिल्कल ख़त्म हो गया है। अब सभी वोटर अपने अपने वोट को लेकर पहले कहीं ज़्यादा तैयार हैं, वोट के बदले में क्या मिल रहा है और क्या देना पड़ रहा है वो एक तौल रहे हैं। लेकिन अब ये कहने में भी कोई नयापन नहीं रह गया है कि अभी भी विचारधाराओं की लड़ाई के नाम पर वही स्कूली डिबेट चल रहा है जिसके पक्ष और विपक्ष में क्या क्या दलीलें देनी हैं वो युगों से नेता और जनता ने रट रखे हैं। वही आपको ट्विटर पर दिखेंग, वही फ़ेसबुक पर। तो ऐसे में, आज के वक्त में पॉलिटिक्स से अलग सोचना किसी भी उस इंसान के लिए मुश्किल है जो किसी भी तरीके के मीडिया से संपर्क में है। मास मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक। और पूरी बहस को देखते हुए मुझे लग रहा था कि कैसे इस बहस में वो मुद्दे अंट सकते हैं, जगह बना सकते हैं जो इतने सालों से नहीं बने। जिनकी वजह से एक तरफ़ तो लाख से ऊपर मरते हैं, लाखों घायल होते हैं, लाखों परिवार तबाह होते हैं और दूसरी ओर लोगों की बनावट को बदल रहा है, उन्हें आक्रामक बना रहा है और एक दूसरे के प्रति संवेदनहीन बना रहा है। 
 तो इस पूरी चर्चा के बीच लगता है कि एक और मेनिफ़ेस्टो है जिसके लिए जगह बनाने की ज़रूरत है। जिससे आने वाले वक्त मे देश की तस्वीर बेहतर हो। सड़क हादसों में हर साल जो सवा लाख से ज़्यादा लोग मारे जाते हैं, दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग भारत में सड़कों पर दम तोड़ते हैं, एक ऐसा मेनिफ़ेस्टो जो उस कलंक को मिटाने की कोशिश करे। ये मेनिफ़ेस्टो है सड़क का मेनिफ़ेस्टो। 
लाइसेंस - सबसे पहले ज़रूरत है हमारी ड्राइविंग को ईमानदार बनाने की। देश के तमाम लाइसेंसिंग ऑथोरिटी में दलालों का कैसा साम्राज्य चलता है इसके बारे ना जाने कितनी बार लिखा-पढ़ा जा चुका है। लेकिन कैसे आसानी से बिना टेस्ट के लाइसेंस मिल जाते हैं, वो लाइसेंस जो किसी को भी सड़क पर गाड़ी लेकर जाने की इजाज़त दे देता है, चाहे वो मारुति ८०० या ऑल्टो है या फिर फ़ेरारी और लैंबोर्गिनी। चाहे ४० हॉर्सपावर की गाड़ी हो या ४०० की। चाहे स्प्लेंडर हो या हायाबूसा। और बिना ट्रेनिंग और बिना टेस्ट के मिले इस लाइसेंस का ख़तरा वैसा ही है जैसा कि बच्चे के हाथ में असल पिस्तौल देना है, बिना इसकी परवाह किए कि इससे किसी की जान जा सकती है। सोचिए कि जिस लाइसेंस के लिए कुछेक सौ रुपए एक्स्ट्रा देने के अलावा अगर और कुछ नहीं करना हो तो फिर उसकी अहमियत और ज़िम्मेदारी क्या रह जाएगा। जो सड़कों पर दिखता है, जहां ड्राइविंग की काबिलियत का कोई मापदंड नहीं है। सड़क पर नौसिखुए से लेकर एक्सपर्ट हर तरीके के ड्राइवर मिल जाते हैं। जो आम हालात में एक जैसी ड्राइविंग करते दिखेंगे, लेकिन जहां कुछ मुश्किल आई दोनों का रिएक्शन अलग होगा और नतीजा भी। चूंकि ये मामला सड़क का है तो ड्राइवर की बेवकूफ़ी का ख़ामियाज़ा केवल उस ड्राइवर को नहीं भुगतना पड़ता है। 
विदेशों में लाइसेंस मिलना एक उपलब्धि होती है, जिसके लिए बार बार फ़ेल होना भी आम बात है। यही नहीं कुछ सालों में फिर से टेस्ट लेकर लाइसेंस रिन्यू करना भी आम है। फिर ये भी होता है कि अलग अलग गाड़ियों या इंजिन क्षमता के लिए अलग लाइसेंस होते हैं। यानि ज़रूरी नहीं कि एक ही लाइसेंस से आप ऐक्टिवा भी चला सकें और डुकाटी भी। विडंबना यही है कि हमारे यहां वर्ल्ड क्लास प्रोडक्ट तो आ गए हैं लेकिन वर्ल्ड क्लास सेफ़्टी स्टैंडर्ड नहीं आए। तो ज़रूरत है हमारी लाइसेंिसंग व्यवस्था दुरूस्त हो। नए ज़माने के लिए, नई गाड़ियों के लिए बने। उन ऑफ़िसों से भ्रष्टाचार दूर हो। क्योंकि भ्रष्टाचार हमारी ज़िंदगी मुश्किल कर देता है, लेकिन लाइसेंस देने में भ्रष्टाचार ज़िंदगी मुश्किल नहीं, बल्कि ख़त्म कर देती है। तो क्या इस भ्रष्टाचार पर भी किसी पार्टी की नज़र जाएगी ?

पैदल - किसी यूरोप के शहर में टहलिए या जापानी सड़कों पर चलिए, ज़ेब्रा क्रॉसिंग से सड़क पार कीजिए। सामने से आने वाली गाड़ियों को देखिए, उनका रवैया देखिए। चलिए कई किलोमीटर तक। अगर आप गए हैं तो फिर कल्पना करने में कोई दिक़्कत नहीं, अगर नहीं गए हैं तो थोड़ा अपना तजुर्बा बता दूं। ज़्यादातर जगहों पर चलने वालों को तरजीह दी जाती है, फ़ुटपाथ का मतलब फ़ुटपाथ होता है, पैदल यात्रियों के लिए गाड़ियां रुकती हैं और अगर आप सड़क पार करे रहे हैं तो आपके लिए वो रुक जाएंगी, हम हिंदुस्तानियों के लिए आश्चर्य की एक और बात की वो ड्राइवर इशारा करेगा कि आप पहले पार कर लीजिए।  और फिर आईए वापस देश में। अब अपने अपने कॉलनी में चलिए, ऐसे ही फ़ुटपाथ पर चलने की कोशिश कीजिए, सड़क क्रॉस करने की कोशिश कीजिए और लंबी दूरी पैदल तय करने की कोशिश कीजिए। और अब अचानक लगेगा कि हमारे देश की सड़कें और ट्रैफ़िक व्यवस्था पैदल यात्रियों के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। देश के ज़्यादातर शहरों में ज़्यादातर सड़कों के फ़ुटपाथ पर लोगों ने क़ब्ज़ा कर रखा है। बड़ी सड़कों पर ये क़ब्ज़ा ठेलेवालों और रिक्शे वालों का रहता है तो कॉलनी के अंदर अपने आप को सभ्य कहने वालों का होता है। जिनकी कोठियों के सामने की सड़क कार पार्किंग के तौर पर इस्तेमाल होती है। यानि अगर आप पैदल चलने की कोशिश करते हैं तो आपको चलती और पार्क की गई गाड़ियों के बीच रास्ता खोजना पड़ता है। तो जो टहलना आराम के लिए होता, एक संघर्ष में तब्दील हो जाती है। और इस संघर्ष का मतलब ये कि आपको केवल रास्ता नहीं ढूंढना होता है, जान भी बचानी होती है। और पैदल यात्रियों की भारत में जितनी कम इज़्ज़त है वो शायद ही कहीं हो। गाड़ी वाले उनके लिए रुकेंगे क्या, कुचल कर निकल जाते हैं। हाल में दिल्ली में एक नौजवान पैदलयात्री की कुचल कर मौत हो गई थी। जिसमें एक चौंकानेवाली दलील ये सुनने को मिल रही थी कि उस नौजवान ने कान में हेडफ़ोन लगाया हुआ था और कार की हॉर्न नहीं सुन पाया और कुचला गया। बताइए, यानि पैदल यात्री के जान की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उसकी ख़ुद की है, अगर उसने ग़लती की, हॉर्न नहीं सुना तो उसे अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। सवाल ये है कि पैदल यात्रियों के हक़ के लिए क्या कोई क़दम उठाया जाएगा ? 


साइकिल ट्रैक- दिलचस्प बात ये है कि एक राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिन्ह है साइकिल। एक हद तक राज्य में सरकार बनाने तक का रास्ता भी तय किया है साइकिल पर चढ़ कर ही। ये एक प्रतीक है। वहीं आम ज़िंदगी में भी साइकिल की अहमियत बहुत ज़्यादा है। ग़रीबों की सवारी के तौर पर देखें तो भी और हम सबकी ज़िंदगी में साइकिलों की इमोशनल मौजूदगी के तौर पर भी। लेकिन साइकिल चलाना आजकी तारीख़ में जान पर खेलने वाली बात है। जो आंकड़े बता रहे हैं कि देश में सड़क हादसों में मारे जाने वाले लोगों में आधी संख्या पैदल यात्रियों और साइकिल सवारों की ही होती है। और जिस तरीके से सड़कों को कारों के लिए बना सिग्नल वाले रास्ते बनाने की कोशिशें चल रही हैं ऐसे में पैदल यात्री और साइकिल सवार पर ख़तरा और बढ़ा है। हालांकि ये दोनों ही वर्ग ऐसे हैं जिसमें आम लोग होते हैं, ग़रीब होते हैं, और उनकी ज़िंदगी की क़ीमत राजनीति में कम आंकी जाती है इसलिए अब तक उनकी सेफ़्टी के लिए गंभीरता नहीं दिखाई देती है। हां ये हादसे हेडलाइन तभी बन पाते हैं जब कोई बड़ा नाम इसमें शामिल होता है, चोट पहुंचाने वाले में या फिर चोट खाने वाले में। हाल में हमने देखा था सेंटर फ़ॉर साइंस एंड इनवायरन्मेंट की सुनीता नारायण का जब साइकिल चलाते वक्‍त एक्सिडेंट हुआ था। अख़बारों में ख़बरें देखी थीं मैंने। कहने का मतलब ये नहीं आम साइकिल सवार का ऐक्सिडेंट हो तो ख़बर छपे, सवाल ये है कि क्यों नहीं इस तबके के लिए सोचा जाए कि दुर्घटनाएं कमसेकम हो।
क़ानून- मैं क़ानून का जानकार नहीं लेकिन ये ज़रूर समझ सकता हूं कि जो क़ानून हैं भी उनका पालन नहीं हो रहा है। पालन इसलिए नहीं हो रहा है कि क्योंकि उसे लागू करने में कोताही बरती जाती है। कोताही क्यों बरती जाती है ये सवाल ऐसा है जिस पर थिसीस लिखी जा सकती है। लेकिन इस कोताही से क्या कुछ हो रहा है ये अब दिख तो रहा है लेकिन इसकी गंभीरता समझी नहीं जा रही है। रेड लाइट जंप करने पर, ग़लत ओवरटेक करने पर, ओवरस्पीड करने पर इन सभी मौक़ों पर जब आराम से छूट जाते हैं, ज़्यादातर मौक़ों पर कोई देखनेवाला नहीं होता है, कुछेक मौक़ो पर १००से ४०० रु में छूट जाते हैं। या फिर किसी एक बच्ची को अपनी गाड़ी से कुचल देते हैं जिसके स्कूल का पहला दिन होता है, और उसके पिता को भी जो अपनी बेटी को स्कूल बस में पहले दिन जाते देखने की ख़्वाइश के साथ सुबह उठ कर आया था, जो गुड़गांव के एक अस्पताल में दिल का डॉक्टर भी था। और दोनों की जान लेने के बाद कुछ घंटों में अगर ड्राइवर को बेल मिल जाए, और वो ज़मानत पर छूट आए। ये सब देखकर यही लगता है कि यहां आप कुछ भी करके निकल सकते हैं, सब चलता है। 
अपनी बेटी और पति को एक साथ खोने के ग़म में जो महिला सदमे में चली जाती है, शायद हर साल सवा लाख परिवार भी ऐसे ही सदमे में चले जाते होंगे, जिनका अपना घर वापस नहीं आता होगा। लेकिन बाकी के हम लोग सदमे में नहीं जाते हैं। देश सदमे में नहीं जाता। सवाल यही है कि इस सदमे की आदत कब जाएगी ? 

Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है।
(published before 2014 elections I guess..) 

May 21, 2013

Range Rover Evoque


कहानी इवोक की 
एक नई सवारी और एक नया दिन था मेरे लिए, जब सामने थी मेरे रेंज रोवर इवोक। एक नामी ब्रांड की चर्चित एसयूवी। जो भारत में आजकल काफ़ी दिखने लगी है। तो इस गाड़ी को लेकर मैं निकला मिट्टी वाले उबड़ खाबड़ वाले रास्ते पर। और वहां पर ये गाड़ी मस्त होकर भागना शुरू हो गई। और ख़ास बात ये रही कि जब इसे सड़क पर लेकर गया तो भी उतने ही अच्छे से भागी। यानि मिट्टी में एक एसयूवी और सड़क पर कार की तरह। फिर लगा कि 52 से 58 लाख रु की क़ीमत में अगर ऐसा मज़ा नहीं आएगा तो किन गाड़ियों में आएगा। लेकिन ये गाड़ी है दरअसल शौकीनों के लिए। जो इतने पैसे ख़र्च करें इवोक को ख़रीदने के लिए। अब ये कहना ग़लत नहीं होगा कि इस मुख्य बनावट ऐसी है जो इसे ड्राइवरों के लिए ज़ोरदार बनाएगा। पिछली सीट उतनी आरामदेह और जगह वाली नहीं जैसे हम इस कीमत की गाड़ियों में देखते हैं। तो ऐसे में शौक़ीन ही तो इसे लेंगे जिन्हें ऐसी गाड़ियों को चलाने का मन करता है। हां इसकी क़ीमत का तो मसला ही अलग है। 
लेकिन कई बार कहानी जितना हम सोचते हैं उससे लंबी चली जाती है। यानि जहां से शुरू करने की सोचते हैं वहां से भी पीछे जाना पड़ता है। जैसे रेंज रोवर की गाड़ी चलाते हुए मुझे महसूस हुआ। दरअसल पिछले दिनों मुझे मौक़ा मिला रेंज रोवर की नई गाड़ी इवोक चलाने का। ये एक एसयूवी है, जैसे कि रेंज रोवर की सभी गाडियां होती हैं। और इस गाड़ी का कैसे परिचय करवाया जाए अपने दर्शकों से, यही सोच रहा था। सोच इसलिए क्योंकि इस ब्रांड को लेकर लोगों में कई तरीके की उत्सुकता है। उत्सुकता इसलिए क्योंकि जब से टाटा ने इस ब्रांड को ख़रीदा है लोग इसके बारे में सुन तो रहे हैं लेकिन इसकी कहानी साफ़ नहीं हो पा रही थी। इसी वजह से लग रहा था कि इसकी कहानी को केवल इस कार के ज़रिए नहीं समझाया जा सकता है, इसके इतिहास में जाना पड़ेगा। ऐसे में ज़ाहिर सी बात है कि इस ब्रांड के अब तक के सफ़र को देखना पड़ेगा, वो भी रेंज रोवर के नहीं लैंड रोवर के इतिहास को जिसकी शुरूआत हुई थी 1948 में। क्योंकि यही है वो कंपनी जो रेंज रोवर बनाती है।

दूसरे विश्वयुद्द के बाद अमेरिकी जीप की लोकप्रियता ऐसी थी जिसे चुनौती देना मुश्किल था। जीवन मुश्किल हो रहा था और हालात पेचीदा। गा़ड़ियों की उपलब्धता कम थी और पार्ट-पुर्ज़े की मारामारी अलग। ऐसे में एक ब्रिटिश शख़्स इस चिंता में पड़े थे कि कैसे ऐसी गाड़ी तैयार हो जो जीप का विकल्प हो सके । जिनका नाम था मॉरिस विल्क्स । विल्क्स  परेशान थे क्योंकि उनकी ज़िंदगी जीप पर चल रही थी और उन्हें डर था कि इस गाड़ी के ना होने पर क्या होगा। और यही सोचते हुए उन्होंने तैयार किया डिज़ाइन लैंड रोवर का। एक जीप नुमा यूटिलिटी वेह्किल जो किसी भी माहौल में, कैसे भी रास्ते पर चल सके। किसी भी ज़रूरत के लिए। चाहे किसान इससे खेती करना चाहें या ऑफ़रोडिंग के शौकीन इसे मिट्टी कीचड़ में भगा सकें। और गाड़ी इन सब माहौल में ना सिर्फ चली बल्कि दौड़ी। धीरे धीरे इस गाड़ी ने अपनी काबिलियत की वजह से दुनिया भर में नाम कमाया। दुनिया के सबसे मुश्किल रास्तों पर ये गाड़ी भागी। लैंड रोवर प्रेमियों ने ना सिर्फ़ इसे मिट्टी कीचड़ में भगाया, बल्कि पहाड़ियों से लेकर बर्फ़ीली जगहों तक में ले गए। कितने ही देश की सेना ने इसका इस्तेमाल किया। लोगों के इस भरोसे के साथ कंपनी फलती-फूलती गई। कंपनी अगले क़दम के तौर रेंज रोवर लेकर आई। यानि वो एसयूवी जिनमें कार जैसे फीचर्स थे। 1970 से बनने वाली रेंज रोवर ढेर सारे फीचर्स से लैस आरामदेह एसयूवी बनी। कंपनी के लिए ये बेस्टसेलर साबित हुई। वक्त बदला ज़रूरतें बदलीं और इन सबके साथ कंपनी ने अपने प्रोडक्ट भी बदले। कंपनी के सामने हालांकि चुनौतियां भी बढ़ती गईं। जहां पर कंपनी बिकी, बिकी और फिर बिकी। एक वक्त में रोवर कंपनी के अंदर रहने वाला ये ब्रांड बीएमडब्ल्यू के पास गया। फ़ोर्ड ने भी इस ब्रांड को ख़रीदा। आख़िरकार अब ये टाटा के पास चली आई है। और जब से आई है, इसकी किस्मत चमकी है।   
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May 14, 2013

Sail Sedan सेल सेडान


शेवरले की सेल सेडान
जैसा कि बाज़ार में होता है कुछ प्रोडक्ट का इंतज़ार चल रहा होता है और अचानक से बीच में कुछ और आ जाता है और चर्चा पूरी तरह से बदल जाती है। जैसा कि एक बार फिर से हुआ। सभी बात कर रहे थे छोटी सेडान कारों के बारे में और इंतज़ार चल रहा था हौंडा अमेज़ का। जिसे हौंडा मारुति की डिज़ायर के टक्कर में लेकर आ रही है। लेकिन इससे पहले कि वो लौंच हो और उसकी क़ीमतों का ऐलान हो, बीच में अचानक आ गई शेवरले की नई सेडान कार। वो जिसकी चर्चा तो थी लेकिन सेगमेंट पर उसके असर के बारे में बहुत कुछ कहा नहीं गया था। लेकिन कंपनी ने एक ऐसी क़ीमत के साथ अपनी कार को लौंच कर दिया जिसने छोटी सेडान कार को लेकर होने वाली परिचर्चा को बदल दिया। शेवरले ने लौंच की अपनी कार सेल एक सेडान के तौर पर। यानि सेल कार एक डिक्की के साथ। उन भारतीय ग्राहकों के लिए जो चाह रहे हैं अब बड़ी गाड़ी, या कहें थोड़ी बड़ी कार। जिसमें जगह ज़्यादा हो और वक्त पड़ने पर ज़्यादा सामान के साथ लंबे सफ़र पर भी जाया जा सके। और सबसे ख़ास पहलू जिसका ज़िक्र हम कर रहे हैं वो है इस कार की इंट्रोडक्टरी क़ीमत। कंपनी ने इस कार को लौंच किया है पेट्रोल और डीज़ल इंजिन विकल्प के साथ। जहां पेट्रोल सेल सेडान की क़ीमत 4 लाख 99 हज़ार से शुरू होकर 6 लाख 41 हज़ार रु तक जाती है। वहीं डीज़ल सेल सेडान की क़ीमत शुरू होती है 6 लाख 29 हज़ार रु से और जाती है 7 लाख 1 हज़ार रु तक। फिलहाल ये इंट्रोडक्टरी क़ीमत है। लेकिन इस क़ीमत के बारे में ये ज़रूर कहा जा सकता है कि वो ग्राहकों के ज़ेहन में ज़रूर अटकेगी। कार देखने में आकर्षक है। शेवरले की क्रूज़ के लुक से जो लोग इंप्रेस हुए थे उनके लिए वैसे ही डिज़ाइन परंपरा की कार है। वहीं पिछला हिस्सा भी संतुलित और आकर्षक है, जिसके पीछे एक वजह तो ये है कि इसकी लंबाई को ज़बरदस्ती 4 मीटर से छोटा रखने की कोशिश नहीं की गई है। इसकी लंबाई लगभग सवा चार मीटर है। तो लंबाई के हिसाब से तो ये कार स्मॉल कार की कैटगरी में नहीं आती है लेकिन हां इंजिन के हिसाब से ज़रूर आती है। इसमें लगा है 1.2 लीटर पेट्रोल इंजिन और 1.3 लीटर डीज़ल इंजिन। और इन इंजिन के साथ पहला अंदाज़ा तो यही होता है कि कंपनी जल्द एक छोटा और सस्ता वर्ज़न लेकर आएगी। लेकिन अभी इसकी संभावना से कंपनी ने इंकार किया है। शेवरले की सेल के बारे में आपको पता होगा कि इस कार को शेवरले की सहयोगी चाईनीज़ कंपनीSAIC  द्वारा तैयार की गई कार है। आमतौर पर एशियन कार कंपनियां एशियन ग्राहकों की छोटी-छोटी ज़रूरतों को समझती हैं। जिनमें से एक है ज़्यादा सामान रखने के लिए एक्स्ट्रा स्पेस। सेल सेडान में बूटस्पेस के अलावा पिछली सीट के नीचे भी सामान रखने के लिए एक्सट्रा स्पेस दिया गया है। इसके अलावा शेवरले ने अपनी कार को ज़्यादा पैसा वसूल कार बनाने के लिए कार, इंजिन और ट्रांसमिशन पर अलग अलग वारंटी दी है। कुल मिलाकर कोशिश कि ग्राहकों के ज़ेहन में अमेरिकी कारों और उनके रखरखाव को लेकर जो शंका है वो दूर हो। तो इस कार का प्रदर्शन देखना भी दिलचस्प होगा, ख़ासकर तब जब एक और छोटी जापानी सेडान कार लौंच के मुहाने पर है।
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May 11, 2013

मंद-मंद-मंदी


मंदी एक सच्चाई है और सुविधा एक अलग सच्चाई। हां लोग ख़र्च करने से बच रहे हैं। गाड़ियों की ख़रीद को या तो टाल रहे हैं या फिर बारीक तराज़ू से तौल तौल कर पैसा वसूल कार ख़रीद रहे हैं। और इनके अलावा सिर्फ़ वही गाड़ियां ख़रीद रहे हैं जो कोई एक ख़ास कार ख़रीदना ही चाहते हैं। यानि शौकीन।

तो बदले वक्त में नए पैमाने इस कार बाज़ार के उस हिस्से को भी बढ़ते देख रहे हैं जिनको कुछ साल पहले तक बहुत ही ऐहतियात से बढ़ते देखा था। जैसे ऑटोमैटिक कारें। वो वक्त चला गया है जब ग्राहक सिर्फ़ माइलेज के नाम पर ऑटोमैटिक कारों को ख़ारिज कर देते थे। आमतौर पर ऑटोमैटिक कारों की माइलेज मैन्युअल ट्रांसमिशन से कम ही होता रहा है। और भारत जैसे देश के ग्राहकों के लिए हर छोटा अंतर भी बहुत रहा है। हां साथ में ये भी ज़रूर हुआ है कि इस ट्रांसमिशन पर भरोसा भी बढ़ा है ग्राहकों के बीच।

ऑटोमैटिक कारों और ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन के मेकेनिज़्म की समझ भी अब थोड़ी बेहतर हुई है। बिना गियर और क्लच वाली गाड़ी के तौर पर। इसीलिए अब छोटी कारों में ऐसे ट्रांसमिशन पहले से कहीं ज़्यादा आ रहे हैं। पहले जहां मारुति और ह्युंडै के पास सिर्फ़ नाम के लिए ऑटोमैटिक कारें थीं, अब वो कोशिश में हैं इस सेगमेंट में बिक्री बढ़ाने की ।
तो ऐसे में अगर इन गाड़ियों पर नज़र डाली जाए तो ग़लत नहीं होगा। मारुति जो अपनी पैसा वसूल कारों के लिए जानी जाती है उसने हाल ही में ए स्टार कार को ऑटोमैटिक अवतार में उतारा था। कंपनी ने माइलेज के अंतर को कम करने की भी कोशिश की है। इसकी एक्स शो रूम क़ीमत है 4 लाख 61 हज़ार रु। मारुति की रिट्ज़ भी आ चुकी है बाज़ार में 6 लाख 15 हज़ार रु के एक्सशोरूम क़ीमत के साथ। ये भी छोटी हैचबैक कारों का सेगमेंट है। स्विफ़्ट और एस्टार के बीच।
केवल मारुति ही नहीं ह्युंडै ने भी अपने प्रोडक्ट की संख्या बढ़ाई है। आई 10 सवा पांच से सवा छह लाख रु के बीच है । साथ में आई-20 भी आती है ऑटोमैटिक अवतार में। इसमें एक और एंट्री है जो हाल में आई है। हौंडा की ब्रियो ऑटोमैटिक। यहां पर हौंडा के पास डीज़ल अवतार नहीं था तो कंपनी ने अपना पोर्टफ़ोलियो बढ़ाने के लिए ऑटोमैटिक अवतार चुना। पौने छह से छह लाख रु के बीच।
तो कुल मिलाकर बदलती अर्थव्यवस्था और लाइफ़स्टाइल में इनकी जगह बनती भी जा रही है। जहां सड़कों पर ज़्यादा ज़िंदगी गुज़र रही है, घर में कम। परिवार के साथ कम। भारत में ट्रैफ़िक व्यवस्था जैसी हो रही है, प्लानिंग जैसी देखी जा रही है उसमें स्थिति और भयावह ही होगी। तो ऐसे में ग्राहक बिना क्लच वाली कार लेकर अपने पैर और हाथ को आराम देना चाहते हैं।

May 08, 2013

अपन हिंदुस्तानी हैं शौकीन...


विंटेज कारों की दुनिया बहुत ही ख़ास होती है, सभी कारों के साथ एक से एक कहानी जुड़ी होती है। सब एक से एक दिलचस्प। ऐसी ही दुनिया में घूमते हुए एक विंटेज कार रिस्टोरर से सालों पहले मुलाक़ात हुई थी। दिल्ली के एक किनारे में बने एक फ़ॉर्महाउस में उनके वर्कशॉप पर उनसे बात हो रही थी, मैंने पूछा कि सबसे अनोखी कार कौन सी है उनके कलेक्शन में । तो उन्होंने बताया कि एक कार ऐसी थी जिसके लिए उन्होंने काफ़ी पैसे ख़र्च किए। ना सिर्फ़ पैसे बल्कि सौदे के लिए उन्होंने पुरानी रोल्स रॉयस तक दे डाली। ये सब एक कार के लिए जिसका  नाम था मिनर्वा। इसके बारे में आम भारतीय कार प्रेमियों को कम पता है क्योंकि ये बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में कार बनाती थी। ऐसा नहीं कि ये कार बहुत ही ज़ोरदार हो, या इंजनीयरिंग का अद्भुत शाहकार हो । लेकिन अब दुनिया भर में इक्का-दुक्का कारें ही ऐसी बची थीं, ऐसे में ये कार बहुत ही नायाब बन गई थी।


कुछ साल पहले लुधियाना के सफ़र पर निकला था। साइकिल और होज़ियरी के लिए नामी इस शहर के साथ एक और ख़ास आंकड़ा जुड़ा था। वो था आबादी के अनुपात में देश में सबसे ज़्यादा मर्सेडीज़ कारों का। और ऐसे में एक से एक शख़्सियतों से मिलने का मौक़ा मिला। जिनमें से प्रॉपर्टी डीलर और बिज़नेसमेन तो आम थे। लेकिन एक बहुत बड़ी संख्या थी वैसे किसानों की जो बड़े किसान थे और मर्सेडीज़ का शौक पूरा कर रहे थे। उन्हीं में से एक शख़्स ने बहुत ही दिलचस्प बात बताई। उनके मुताबिक उनकी कार नॉर्थ इंडिया में अनोखी थी। मैंने जब उनकी कार देखी तो लगा कि आम सी क्लास मर्सेडीज़ है। मैंने पूछा कि इसमें क्या ख़ास है, ये तो सी क्लास है। तो उन्होंने जवाब दिया कि ये कार तो आम है लेकिन इसमें लगा इंजिन पूरे नॉर्थ इंडिया के किसी सी क्लास में नहीं। मैं लाजवाब हो गया। 

ये दोनों कहानी तब याद आई जब किसी ने सवाल किया कि इंपोर्टेड कारों को लेकर ऐसी दीवानगी क्यों है। और क्यों लोग तरह तरह के तिकड़म के ज़रिए इंपोर्टेड कारों को ख़रीदने में लगे रहते हैं और पकड़े भी जाते हैं। वो है एक्सक्लूसिविटी। गाड़ी तो आज हर इंसान ख़रीद रहा है, ऐसे में हम अलग औऱ ख़ास कैसे दिखें ...इसी सवाल का जवाब बहुतों के लिए इंपोर्टेड कार के तौर पर आती है। 

बुगाटी वेरोन-

कोई जाता है दुनिया में सबसे ताक़तवर कार की तरफ़। बुगाटी की वेरोन। वो कार जिसे बनाना ही शुरू किया गया इस आइडिया के साथ कि एक ऐसी कार बने जिसका इंजिन हज़ार हॉर्जोसपावर से ज़्यादा है और सबसे तेज़ कार बने। वेरोन इसी वजह से सबसे तेज़ चलने वाली कार बनी। भारत में शौकीनों के लिए इसका एक आंकड़ा काफ़ी था। टॉप स्पीड 407 किमीप्रतिघंटा। इसकी भारत में क़ीमत 16 करोड़ रु से शुरू होती है। वो भी एक्सशोरूम क़ीमत। यानि ऑन रोड होते होते क़ीमत में कुछ और शून्य जुड़ जाते हैं। 

हमर -
भारत में एसयूवी का अलग रोमांस है। और दुनिया भर में सबसे दमदार एसयूवी माना जाता है हमर को ही। हालांकि कंपनी बंद हो गई लेकिन अभी भी भारत में इस भारी भरकम एसयूवी के वर्ज़न बिकते दिख जाएंगे। जहां अमेरिका में आर्नोल्ड श्वार्ज़ेनेगर जैसे फौलादी ऐक्टर हमर के फ़ैन हैं ही...भारत में धोनी और हरभजन सिंह ने भी करोड़ से ऊपर की इस स्पोर्ट्य यूटिलिटी गाड़ी को ख़रीदा है। वैसे भारत में इंपोर्ट होने वाली सबसे लोकप्रिय कारों में से हमर एक है। जो पहले सिर्फ़ आर्मी के लिए बनाई गई थी और बाद में आम ग्राहकों केलिए इसे बनाया गया।       हाल में सीबीआई ने जो गाड़ियां पकड़ी हैं, उनमें भी हमर ज़रूर थी।


फ़ेरारी -

भारत में रफ़्तार के नाम पर सबसे पहले अगर किसी एक कार ब्रांड का नाम आता है तो वो है फ़ेरारी । फ़ेरारी की सवारी तो बाद में आई। बस ऑटो में भी फ़ेरारी के स्टिकर दिखते रहते हैं। शूमाकर से लेकर तेंडुलकर सभी स्पोर्ट्स आइकॉन इस कार के दीवाने रहे हैं। और भारत के अरबपतियों को भी पता है कि अगर ये कार नहीं है गेराज में तो उनका रुतबा अधूरा है। इसीलिए कंपनी ने भी भारत में बिक्री शुरू कर ही दी है। क़ीमत की शुरूआत मात्र ढाई करोड़ रु से। जो जाती है 4 करोड़ रु तक।

लैंबोर्गिनी-
भारतीयों को इटैलियन ब्यूटी कुछ ज़्यादा ही पसंद हैं। एक और इटैलियन महारथी जो सबकी फ़ेवरेट है वो है लैंबोर्गिनी। सस्ती ये भी नहीं है। 2 करोड़ रु से शुरू होती है। जाती है पांच करोड़ तक। लैंबोर्गिनी अवांतेडोर औऱ गलार्डो हर रईस हिंदुस्तानी के लिए ज़रूरी नाम बने हुए हैं। 

रोल्स रॉयस
भारत में अभी भी महाराजाओं के लिए प्यार गया नहीं है। और ये सबसे बड़ी वजह है रोल्स रॉयस से प्यार के पीछे। अभी भी रोल्स रॉयस को ख़रीदना रईस होने की सबसे बड़ी निशानी में से एक है। क़ीमत भले ही 3 से 6 करोड़ रु के बीच हो लेकिन अभी भी लोग इस कार के लिए 8 से 9 महीने इंतजार करने के लिए तैयार हैं। कंपनी ने भारत में वापसी के वक्त जिस बिक्री का अंदाज़ा लगाया था, बिक्री उसे कब का पार कर चुकी है।

बेंटली

कुछ ने इस कंपनी को रोल्स रॉयस के विकल्प के तौर पर देखा तो कुछ ने ज़्ज़्यादा स्पोर्टी लंगज़री कार के तौर पर। ये है बेंटली। ये कार भी भारत में करोड़ों की ही आती है। डेढ़ से तीन करोंड़ तक की कारें आती हैं बेंटली की। शाही के साथ स्पोर्टी अंदाज़ जोड़ने के लिए भारतीय रईसों को ये कार काफ़ी पसंद आती है।


इन सभी कारों को इंपोर्ट करना कुछ साल पहले तक लालफीताशाही में फंसने का रास्ता माना जाता था । लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। दुनिया की लगभग हर नामी कार भारत में किसी ना किसी तरीके से आ चुकी है। कुछ अपनी कंपनी के शोरूम के ज़रिए तो कुछ ऑफिशियल इंपोर्टर के ज़रिए। तो ऐसे में जो भी शौकीन हैं उनके पास कई ज़रिए हैं अपनी मनपसंद कार को ख़रीदने का। तो जब ऐसी उपलब्धता है फिर क्यों आए दिन हम इंपोर्टेड कार के घोटाले की ख़बर देखते रहते हैं। तो इसमें एक बड़ी भूमिका है विदेशी कारों पर लगने वाले इंपोर्ट ड्यूटी की भी। भारत में इंपोर्ट होने वाली कार पर जो ड्यूटी देनी पड़ती है वो कार की क़ीमत को दुगना कर देता है। यानि पचास लाख की कार एक करोड़ की और एक करोड़ की कार दो करोड़ की। और इसी से बचने के कई तरीके देखे जाते हैं जब कारें पकड़ी जाती हैं। 


वैसे एक्सक्लूसिव कारों के लिए शौक कई बार मज़ेदार मोड़ ले लेता था। महंगी लग्ज़री कारों के लिए लोग लालायित रहते थे औऱ ऐसी कार पाने के लिए कई बार हास्यास्पद हद तक जाते थे। एक जाने माने गायक के ऊपर एक ऐसी ही कार इंपोर्ट करने वाली कंपनी ने केस कर दिया था। हुआ ये था कार इंपोर्टर ने एक चमचमाती पीली फ़ोक्सवागन बीटल जर्मनी से इंपोर्ट की थी। ये किसी ग्राहक के लिए था, जिसके नाम पर कार रजिस्टर हो चुकी थी, लेकिन डिलिवरी नहीं हुई थी। लेकिन जब नामी सिंगर ने कार टेस्ट ड्राइव के लिए मंगवाई तो इंपोर्टर ने कार को भेज दिया। और फिर जो हुआ हो तो ज़बर्दस्त कहानी बन गई। इंपोर्टर के मुताबिक उस सिंगर ने कार को फिर से अपने नाम रजिस्टर करवा कर रख लिया और कहा कि आप दूसरी कार इंपोर्ट कर लीजिए। जीहां ऐसी दीवानगी थी कारों के लिए और ऐसी कमी थी ऐसे शौकीनों के लिए इंपोर्टे कारों के लिए।


(कुछ महीने पहले छपा )

ऑफ़र और डिस्काउंट का डिस्को


आवश्यकता आविष्कार की जननी है। कार कंपनियों के लिए भी वक्त ऐसा ही आ गया है, जब उन्हें अपनी कारों को बेचने के लिए नए तरीकों का आविष्कार करना पड़ रहा है। कमसेकम कार मार्केटिंग के हिसाब से यही कहेंगे , क्योंकि कार कंपनियों को ये सब करते नहीं देखा था जो भारत में फिलहाल देखा जा रहा है। हां बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में साबुन-शैंपू-नूडल्स के शेल्फ़ पर तो हम देखते ही हैं, लेकिन कार डीलरशिप ने भी ऐसी ही स्कीम दे डाली। बाई-वन-गेट-वन फ़्री । गुजरात से ख़बर आई कि श्कोडा के एक डीलरशिप ने ऐसी गणित निकाली है कि वो एक रैपिड कार की ख़रीद पर वो ग्राहकों को फ़ाबिया कार मुफ़्त दे रही है। हालांकि ये कंपनी की ओर से दिया जाने वाला ऑफ़र नहीं लेकिन फिर भी कहानी दिलचस्प है। डीलरशिप ने आइडिया ये निकाला कि पांच साल के बाद ये फ्री वाली फ़ाबिया मिलेगी। अगर फ़ाबिया बनानी कंपनी बंद कर देती है तो उसकी जगह जो कार आएगी वो दी जाएगी। और अगर ये डीलरशिप कार रिप्लेस नहीं कर पाएगी तो फिर उसकी जगह साढ़े तीन लाख रु पेनल्टी के तौर पर देगी। भले ही ये एक डीलरशिप की कोशिश है, लेकिन कंपनियां भी अपनी जुगत लगा ही रही हैं। ये सिर्फ़ एक नमूना है उस मार्केटिंग की कोशिश का जिससे पता चल रहा है कि कंपनी कैसे कैसे पैंतरे अपना रही है  गाड़ियों को बेचने के लिए। जैसे टाटा मोटर्स ने सबसे पहले तो अपनी मांज़ा और इंडीका रेंज की कारों की क़ीमत को कम किया पचास हज़ार रु तक। उसके बाद कंपनी ने मांज़ा पर एक अनूठा ऑफ़र दिया कि अभी ख़रीदिए और 3 साल के बाद कंपनी उसे वापस ख़रीद लेगी, कार की 60 फ़ीसदी क़ीमत के साथ। किसी को भी आकर्षित करने के लिए ये ऑफ़र काफ़ी ज़ोरदार कहेंगे, जबकि आजकल लोग तीन-चार साल में ही कार बदलना चाहते हैं। इसके अलावा नैनो को लेकर भी टाटा मोटर्स ने कुछ बैंक के साथ गठजोड़ किया है और नैनो भी दुकान से सामान ख़रीदने जैसी कहानी है...क्रेडिट कार्ड स्वाइप कीजिए और नैनो लेकर निकल जाइए। और बिना ब्याज के ईएमआई। 
वहीं वेंटो के साथ फोक्सवागन ने ऑफ़र दिया कि अपनी पुरानी कार दीजिए और एक रुपए में वेंटो ले जाइए। बाक़ी की क़ीमत एक साल बाद। साथ में कुछ शर्तें भी हैं। लेकिन ये तो तय है कि जो ग्राहक ऐसी डील के इंतज़ार में थे उनके लिए बहुत अच्छा वक्त है। एक और स्कीम कंपनी ने दी कि आधी क़ीमत में वेंटो ले जाइए और बाकी की क़ीमत एक साल के बाद। 
वहीं जापानी कार कंपनी निसान अपनी कारों को बेचने के लिए सबसे कम ईएमआई का चैलेंज लेकर आई है। जिसके प्रचार दिख रहे हैं। वहीं कुछ लग्ज़री कार कंपनियां अपनी कारों को बजट से पहले की क़ीमत में लेने के लिए ग्राहकों को बुला रही है।
ये तो कुछ अलग तरीके के ऑफ़र हैं, वैसे बाज़ार में परंपरागत ऑफ़र अभी भी मौजूद हैं । कार पर डिस्काउंट, फ्री इंश्योरेंस या ऐक्सेसरीज़ जैसे ऑफ़र और एक्सचेंज बोनस भी। एक तरीके से कहें कि कार ख़रीद का अच्छा वक्त है तो ग़लत नहीं होगा...हां कंपनियों की हालत को पस्त है ही, फरवरी में कारों की बिक्री पच्चीस फ़ीसदी गिरी जो है। 
(कुछ महीने पहले छपा )

May 04, 2013

कौन करेगा ओवरटेक R8 V10 plus को ?


"कार में लगे सवा पांच लीटर इंजिन से ताक़त निकलती है साढ़े पांच सौ हॉर्सपावर की। सौ की रफ़्तार ये पकड़ लेती है मात्र साढ़े तीन सेकेंड में"

दुनिया के बाकी देशों में या कहें ज़्यादातर देश में रेस ट्रैक पर जाने का अपना अलग रोमांच होता है। जहां पर ड्राइवर या रेसर अपनी और अपनी गाड़ी का काबिलियत को परखता है, या परखती है। जहां पर गाड़ियों को उनकी आख़िरी सीमा तक खींचा जा सके, टॉप स्पीड का असली मतलब समझा जाए। लेकिन हाल में मैंने महसूस किया कि भारत में रेस ट्रैक पर जाने का एक बोनस और है। वहां पर कुछ एक्स्ट्रा निश्चिंतता मिलती है। जैसे ये कि सड़क ठीक होगी, अचानक कोई गड्ढा नहीं मिलेगा, ये भी कि उल्टी साइड से कोई गाड़ी लेकर नहीं आ जाएगा आपको लघु हार्ट अटैक देने के लिए। थोड़ी व्यंग्य के तौर पर आपको ये पंक्तियां महसूस होंगी लेकिन पिछले हफ़्ते वाकई मैं ऐसा ही महसूस कर रहा था मैं, जब मैं एक नई कार को चलाने के लिए दिल्ली से सटे ग्रेटर नौएडा के फॉर्मूला वन ट्रैक पर पहुंचा था। ये कार थी ऑडी की नई आर 8 । ये ऑडी की सबसे ख़ास स्पोर्ट्स कार है। दो दरवाज़ों वाली और दो सीटों वाली। जो बनी है ख़ासतौर पर रफ़्तार के लिए। हालांकि ये कार पहले से भारत में मौजूद थी। लेकिन इस रोमांचक कार को थोड़ा और रोमांचक बनाया है, ये है ऑडी वी 10 प्लस। वी 10 का मतलब ये इंजिन 10 सिलिंडर  वाला इंजिन है। इसमें प्लस का मतलब कुछ ऐक्स्ट्रा  ताक़त से है। कार में लगे सवा पांच लीटर इंजिन से ताक़त निकलती है साढ़े पांच सौ हॉर्सपावर की। सौ की रफ़्तार ये पकड़ लेती है मात्र साढ़े तीन सेकेंड में। सोचिए शून्य से सौ की रफ़्तार साढ़े तीन सेकेंड में। लेकिन इसकी दुनिया सौ तक ही सीमित नहीं रहती है। ये 317 किमीप्रतिकिमी तक जाती है, यानि इसकी टॉप स्पीड। ये सब आंकड़े इसलिए बता रहा हूं क्योंकि अगर सबसे पहले इसकी क़ीमत बता देता तो आपके ज़ेहन में सवाल आता कि आख़िर ऐसा क्या है इस कार में जो इसकी क़ीमत लगभग सवा दो करोड़ तक पहुंच जाए। जी हां इसकी महाराष्ट्र एक्स शोरूम क़ीमत है दो करोड़ छह लाख रु। लगा ना आपको कि आख़िर ऐसा क्या होता है कि इन कारों की क़ीमत करोड़ों में चली जाती है। 



चलिए इसमें सबसे बेसिक वजह तो है इन कारों पर लगने वाली ड्यूटी जो इन्हीं सुपर-महंगी कार बनाती है। लेकिन इसके अलावा भी इनकी क़ीमत हमेशा से ज़्यादा होती है। जिसके पीछे एक ही सोच होती है, कार को कैसे ज़्यादा से ज़्यादा तेज़ और ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित बनाया जाए। और ये दो पैमाने ऐसे हैं जो किसी भी इंजीनियर के  लिए किसी तिलिस्म से कम नहीं, जिसका संतुलन करना बहुत मुश्किल होता है। और ऐसा संतुलन आपको हरेक ऐसी स्पोर्ट्स कारों में दिखेगा चाहे हो ऑडी हो, मर्सेडीज़ हो, फ़ेरारी हो या लैंबोर्गिनी। इसीलिए बहुत सी कारों को देखकर लगता है कि सिर्फ़ बाज़ार के लिए एक प्रोडक्ट नहीं बनाया गया है, फ़िज़िक्स के नियमों से लड़ते हुए एक मास्टरपीस भी बनाया गया । जो बेतहाशा भागती है, कितनी भी तेज़ रफ़्तार में बिना हिचके मुड़ती है और कितनी भी तेज़ रफ़्तार से अचानक सटीक रुकती भी है । कार में इस्तेमाल हरेक पार्ट-पुर्ज़े इसी मक़सद से चुने और लगाए जाते हैं। और इन सबके बाद इन्हें चलाना एक अलग अनुभव होता है, जहां पर इनकी काबिलियत का जितना टेस्ट हम कर रहे होते हैं उतना ही टेस्ट ये कारें हमारी कर रही होती हैं। और वैसा ही महसूस कर रहा था मैं बुद्घा इंटर्नैशनल सर्किट पर। साढ़े पांच सौ हॉर्सपावर की कार की ताक़त का मज़ा लेते हुए, बिना इस फ़िक्र के कि करोड़ों की इस कार को कोई स्क्रैच ना लगा दे या कोई ओवरटेक करने के लिए हॉर्न ना मारे। 

देर आए, लेकिन क्या दुरुस्त आए ?

"अब अमेज़ आ रही है वैल्यू फॉर मनी सेगमेंट में पैसा वसूल हौंडा मॉडल के तौर पर , तो ऐसे में क़ीमत के बाद सबसे अहम मुद्दा तो माइलेज ही होगा"

हौडा की अमेज़ उन चुनिंदा सेगमेंट में से एक में आ रही है, जहां पर अभी भी मारुति का क़ब्ज़ा है। ऐसे में कंपनी को वो सभी क़दम उठाने थे जो इस अमेज़ को डिज़ायर से टक्कर लेने के लिए तैयार कर सके। ऐसे में कई ऐसे मुद्दे ज़रूर हैं जिन पर हौंडा के डिज़ाइनर्स और इंजीनियर्स ने  काम किया है। जिनमें से एक तो है जगह ।  जब से 4 मीटर से छोटी सेडान कारों का चलन शुरू हुआ है तब से हमने देखा कि सभी कंपनियों ने अपने मौजूदा मॉडल में ही तब्दीली करके नई गाड़ी उतार दी। यानी हैटबैक में डिक्की लगाकर या लंबी सेडान कार का डिक्की काट कर । अमेज़ को तैयार करते करते हौंडा देरी हुई तो ऐसे में उन्हें वक्त भी मिला इस पर काम करने के लिए । तो इसका सबसे बड़ा फ़ायदा है कार के अंदर का जगह। पिछली सीट पर ये कार वाकई अमेज़ करने वाली है, जिस तरीके से इस छोटी कार में स्पेस को निकाला गया है। तो ग्राहकों के बीच ये एक बड़े यूएसपी का काम करने वाला है। लेकिन कार के बारे में सबसे बड़ा पहलू अगर मुझे कोई लगता है तो वो है इसका इंजिन। भारत में हौंडा ने जिस तरीके से डीज़ल की कमी की वजह से संघर्ष किया है, उसे देखते हुए ये मानना बहुतों के लिए मुश्किल था कि कंपनी के पास डीज़ल इंजिन भी हैं।  लेकिन ऐसा नहीं है। हौंडा के पास कुछ डीज़ल इंजिन रहे हैं लेकिन उनकी क्षमता ज़्यादा रही है। जैसे 2.2 लीटर डीज़ल इंजिन जो कंपनी ने यूरोप की अकॉर्ड में लगाया था। वहीं 1.6 लीटर क्षमता वाला इंदिन भी कंपनी ने 2013 में ही उतारा है जिसे कंपनी ने यूरोप की सिविक में लगाया। लेकिन भारत में कंपनी के लिए ज़रूरी था 1.5 लीटर का डीज़ल इंजिन बनाना क्योंकि अगर कार को छोटी कार होने की एक्साइज़ छूट चाहिए तो फिर उन्हें ना सिर्फ़ चार मीटर से छोटा होना पड़ता है साथ में डीज़ल इंजिन के लिए डेढ़ लीटर क्षमता की सीमा भी है। तो अपने उसी 1.6 लीटर डीज़ल इंजिन पर कंपनी ने ख़ास भारत के लिए 1.5 लीटर डीज़ल इंजिन बनाया है। और ना सिर्फ़ कंपनी के इंजीनियर्स ने इसे छोटा और हल्का किया है, उन्होंने इसे काफ़ी फ़्यूल एफ़िशिएंट भी बनाया है। अमेज़ में लगने वाले 1.5 लीटर डीज़ल इंजिन की ताक़त 100 बीएचपी के आसपास है। टॉर्क लगभग 200 एनएएम का है। और ARAI ने जो इसकी माइलेज मापी है वो काफ़ी चौंकाने वाला है। 25.8 किमीप्रतिलीटर। अब ये एक ऐसा आंकड़ा है जो ग्राहकों का ध्यान तुरंत खींचेगा। अब अमेज़ आ रही है वैल्यू फॉर मनी सेगमेंट में पैसा वसूल हौंडा मॉडल के तौर पर , तो ऐसे में क़ीमत के बाद सबसे अहम मुद्दा तो माइलेज ही होगा। 
पेट्रोल इंजिन तो वही है जो ब्रियो में हमने देखा है। और ड्राइव भी वैसा ही। डीज़ल और पेट्रोल दोनों की ड्राइव बहुत रोमांचक नहीं कहेंगे। ठीक-ठाक सी ही है। वहां पर अमेज़ होने की ज़्यादा वजह नहीं मिलेगी। वैल्यू फ़ॉर मनी टाइप की ड्राइव है । जो शांत और सादगी वाली ड्राइव कही जाएगी। 
ये भी दिलचस्प है कि कंपनी अपने डीज़ल इंजिन को लेकर तब आ पाई है जब डीज़ल के एकाधिकार के ख़त्म होने की शुरूआत सी हो रही है। डीज़ल पर से सब्सिडी ख़त्म हो चुकी है और हर महीने डीज़ल की क़ीमत 40-50 पैसे प्रतिलीटर बढ़ ही रही है। तो अमेज़ उस गोल्डेन पीरिएड के बाद आ रही है। तो देरी के अलावा बात करें तो लग रहा है कि देर से ही सही लेकिन अब तक की रणनीति ठीक ही रही है। कंपनी ने इसे भारत  में लौंच के लिए तैयार कर ही लिया है। दोनों इंजिन विकल्प भी आ ही गए हैं। क़ीमत के वक्त बारबार कंपनी की तरफ़ से डिज़ायर का ज़िक्र हो रहा है। ऐसे में साफ़ है कि क़ीमत डिज़ायर के आसपास ही होगी। तो फिर लग रहा है कि एक शांत और बोरिंग कारों की सेगमेंट में  ज़ोरदार हलचल देख पाएंगे हम।  

May 01, 2013

तजुर्बा तो ज़रूरी है....

कुछ साल पहले तक...किसी भी सुपरबाइकर के साथ एक बात तो तय थी कि जब भी कोई उनकी बाइक को कोई छूए को वो तपाक से रोकते थे । कई बार गुस्से से भी। अपनी प्यारी मोटरसाइकिल पर एक उंगली का निशान भी उन्हें पसंद नहीं होता। साथ में ये भी मुद्दा था ही कि कुछ वक्त पहले तक उन मोटरसाइकिलों के पार्ट-पुर्ज़े काफ़ी मुश्किल से मिलते थे। तो चिंता ज़रूरी था। ऐसे में जब मोटरसाइकिल कंपनियां जब सुपरबाइक्स लाईं, और शोरूम पर उन्होंने डू-नॉट-टच का स्टिकर लगाया तो ज़्यादा लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ । लेकिन बात अटपटी ज़रूर थी, जब मैं देखता था कि स्कूली बच्चों का झुंड बाइक शोरूम के बाहर से लाखों रु की उन मोटरसाइकिलों को निहारते थे लेकिन नज़दीक से छू नहीं सकते थे। ये बात मुझे काफ़ी अटपटी लगती थी, ख़ासकर तब जब कंपनियां भारत में इस तरीके की सवारियों का भारत में बाज़ार ही खंगाल रही थीं। यहां पर बिक्री से ज़्यादा ज़रूरी था बाज़ार को बनाना। और मुझे बाद में लगा कि मैं बहुत ग़लत नहीं था। ग्राहक एक्सपीरिएंस की मांग करते हैं।
इसी पहलू पर एक नए लहजे में देखा हार्ले डेविडसन को जब कंपनी ने भारत में अपनी महंगी मोटरसाइकिलों को लौंच किया। कंपनी के शोरूम में बाइकप्रेमियों पर बहुत बंदिशें नहीं थीं । इसके अलावा कंपनी ने अपनी सवारियों को एक्सपीरिएंस करवाने के लिए कई तरीके की कोशिशें की। कंपनी का वैसे भी नाम मज़बूत था लेकिन इन सब कोशिशों के साथ, कंपनी ने आज की तारीख़ में भारत में भी एक मोटरसाइकिल कल्चर को अपने नाम किया है । ये सच्चाई तो है ही कि आने के दो साल में ही कंपनी ने दो हज़ार मोटरसाइकिलें बेच दी थीं, जो बाकी सुपरबाइक या प्रीमियम बाइक की बिक्री से कही ज़्यादा है।  हर वीकेंड पर देश के कई बड़े शहरों में बाइकर्स एक साथ निकलते हैं और बाइकिंग का मज़ा लेते हैं साथ वक्त गुज़ारते हैं।
मोटरसाइकिलों में तो सिर्फ़ इक्का दुक्का ऐसे उदाहरण हैं, कार कंपनियां इस मामले में कहीं आगे जा चुकी हैं। एक वक्त था जब घर पर मार्केटिंग के लिए धूप-अगरबत्ती और वाटर प्यूरिफ़ायर वाले आते थे। अब लाखों करोड़ों की कार कंपनियां शहर शहर घूम रही हैं, अपनी कारों को बेचने के लिए। भारतीय कार बाज़ार की दुर्गति निकली हुई है, ज़्यादातर कार निर्माता हिचकियां ले रहे हैं। कैसे कार बेचें इसकी तरकीबें सोच रहे हैं। कोई एक के साथ एक फ्री दे रहा है और कोई कार्ड स्क्रैच करने के लिए कह रहा है। ऐसे में लग्ज़री कार कंपनियां भी पीछे नहीं रह रही हैं । आज के दौर में इन कंपनियों ख़ासकर जर्मन कार कंपनियों को जिस आक्रामक मूड में देखा जा रहा है वो अब तक नहीं था। पारंपरिक प्रतिद्वंदी मर्सेडीज़, बीएमडब्ल्यू और ऑडी। ये कंपनियां एक दूसरे से रेस में लगी हैं जिसके लिए पूरे भारत में संभावित बाज़ार ढूंढ रही हैं। जहां पर शोरूम है वहां तो है ही, जहां नहीं है वहां भी कार बेचने की कोशिश ज़ोरदार है। सभी कंपनियां किसी ना किसी तरीके से उन सभी शहरों में अपनी कारों को लेकर पहुंच रही हैं जहां पर पैसे वाले ग्राहकों की संख्या बढ़ी मालूम चली है। और एक समय में संभ्रांत और एक्सक्लूसिव ब्रांड उस गुमान में नहीं दिखते जो कुछ साल पहले था। अब वो सभी ग्राहकों को अपने एक एक फ़ीचर को एक्सपीरिएंस कराने की कोशिश कर रही हैं।
जैसे मर्सेडीज़ और ऑडी अपने ग्राहकों के लिए कुछ अलग तरीके की कोशिश कर रही है। कंपनी ने अपनी कारों की ड्राइव और पर्फोर्मेंस की एक एक बारीकी समझाने के लिए ग्राहकों को रेस ट्रैक पर बुलाने लगे हैं। दोनो ही कंपनी ने कुछ हज़ार रु की फ़ीस लेकर अपनी स्पोर्ट्स कारों का तजुर्बा देने के  लिए प्रोग्राम शुरू किया है। जिन शहरों में रेस ट्रैक नहीं वहां पर ख़ास ट्रैक बना कर ।
कुछ कार कंपनी अपनी कारों के साथ छोटे छोटे ड्राइव भी आयोजित करती हैं। जहां पर पुराने ग्राहक अपनी फ़ैमिली के साथ आते हैं। कस्टमर के साथ ख़ास रिश्ता जोड़ने के साथ कंपनी की ब्रांड बिल्डिंग भी हो जाती है। महिंद्रा का ग्रेट एस्केप रैली ऐसी ही कोशिश है, जहां ग्राहक मुश्किल रास्तों पर अपनी एसयूवी दौड़ाते हैं। टाटा मोटर्स ने भी इसी तरह की कोशिश फ़ुल थ्रॉटल के नाम से शुरू कर रही है।
ऐसी कोशिशों के साथ ना सिर्फ़ ग्राहक बेहतर फ़ैसला कर पाते हैं, बल्कि कार कंपनियों के लिए भी फ़ायदे का सौदा होता है  जहां कई ग्राहक प्रभावित होकर कार ख़रीदने का फ़ैसला तुरंत कर लेते हैं। इसके अलावा ग्राहकों की जानकारी बढ़ती है, मोटरिंग का कल्चर बढ़ता है। सभी तरीके से फ़ाएदेमंद ही कहा जाएगा, जो कार कंपनियां ऐसा नहीं कर रही हैं उन्हें तुरंत शुरू करना चाहिए।


February 18, 2013

When We Saw Honda Amaze ...


पहली नज़र में कैसी लगी अमेज़ ??


आख़िरकार वो कार चलाने का वक्त आ गया था जिसके लिए ग्राहकों और पत्रकारों से बहुत ज़्यादा इंतज़ार कंपनी को था। और कार भी क्या कहें असल मुद्दा तो इंजिन था। जिसके इंतज़ार में हौंडा कार कंपनी ने भारत में ना जाने कितनी बेचैन रातें काटी हैं। और इसी वजह से कार भले बी बिल्कुल नई है, लेकिन ज़्यादा चर्चा इसके इंजिन की हो रही थी। तो ये है कहानी हौंडा कार कंपनी की ही है। हाल के समय में डीज़ल का सबसे ज़्यादा दर्द झेलने वाली कार कंपनी। हर सेगमेंट और हर ग्राहक जब डीज़ल की तरफ़ मुंह मोड़ रहे थे, नए नए डीज़ल विकल्प देख रहे थे, तब कंपनी डीज़ल इंजिन बनाने में ही लगी थी। और उसका नतीजा अब दिखा हमें जापान में। जहां हम पहुंचे थे हौंडा की लेटेस्ट नई डीज़ल इंजिन वाली छोटी सेडान कार ' अमेज़' को चलाने। ग्राहकों को तो ये कार अगले साल दिखेगी, क्योंकि हमने जिस कार को चलाया वो अमेज़ का प्रोटोटाइप है। यानि कार का वो नमूना जो बड़े पैमाने पर प्रोडक्शन में आने से पहले तैयार होता है। इसके लिए हम पहुंचे थे हौंडा के आर-एंड-डी सेंटर में। जापान के तोचिगी प्रांत में हौंडा के इस आरएंडी सेंटर पर कई दिलचस्प रेसट्रैक हैं, और इसका नाम है ट्विन रिंग मोटेगी।




कार के बारे में समझना है तो ब्रियो कार को याद कीजिए। उसी की बुनियाद पर हौंडा के इंजीनियरों और डिज़ाइनरों ने लंबी कार बनाई है। यानि मोटे तौर पर तो डिक्की के साथ ब्रियो समझ सकते हैं। यानि स्विफ़्ट से डिज़ायर बनी और टोयोटा ने इटीयोस बनाया। छोटी से बड़ी बनाई कार। कंपनी ने डिज़ाइनर्स ने इसमें जोड़ी है एक डिक्की, यानि ये बनने वाली है सिटी से निचले सेगमेंट में हौंडा की छोटी सेडान कार । और इसे देखने पर भी ब्रियो की ही याद आती है। कार की शक्ल उसी से मिलती जुलती है। लेकिन पिछले हिस्से मे जाते जाते फर्क महसूस होता है। जहां पर छोटी कार में एक डिक्की लगाने की कोशिश कई बार मामला गड़बड़ कर देती है, जैसे पुरानी डिज़ायर  में साफ़ लगता था लेकिन अमेज़ के पिछले हिस्से पर क्रिएटिविटी का इस्तेमाल तो हुआ है। अब चूंकि ये कार 4 मीटर से छोटी बनानी थी तो पिछला हिस्सा थोड़ा छोटा तो रखना ही था। हालांकि स्मॉल कार के तहत छूट पाने के लिए भले ही हौंडा ने इस कार को 4 मीटर से छोटा बनाया हो, लेकिन इस कार के अंदर की जगह इसे बहुत पसंदीदा बना सकती है ग्राहकों के बीच। सवाल सिर्फ़ इसकी क़ीमत का है, हौंडा अपने पुराने इमेज के हिसाब से ना करके अगर डिज़ाइर को देखते हुए इसकी क़ीमत तय करती है हौंडा तो फिर मारुति को ज़ोरदार झटका दे सकती है।


लेकिन इस कार का एक हिस्सा वो भी है जो आने वाले वक्त में हौंडा के लिए भारत में ख़ुशख़बरी ला सकता है। वो है 1.5 लीटर का डीज़ल  इंजिन। अब फिलहाल तो इस इंजिन के बारे में कुछ तकनीकी जानकारी नहीं मिली है। लेकिन ये ज़रूर दावा कर रही है कंपनी कि ये अपने सेगमेंट में सबसे किफ़ायती इंजिन होगा। इसे अलग अलग ट्यून करके कंपनी अपने पूरे पोर्टफ़ोलियो को डीज़लमय कर सकती है। तो फिलहाल यही कहा जा सकता है कि कार बाज़ार जहां स्ट्रगल कर रहा है वहां हौंडा कार कंपनी लेट ही सही, अपने लिए नई गुंजाइश खोज रही है। 

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February 12, 2013

Cars on Fire ....


जब नई टेक्नॉलजी से कारें ज़्यादा से ज़्यादा सेफ़ बन रही हैं फिर क्यों जल रही हैं कारें ?

एक बार फिर से हमने दिल्ली में एक ख़बर देखी है, अगर बारीकी से देखें तो दिल दहलाने वाली। दिल्ली के बीचोबीच गुलाबी बाग के एक सीएनजी स्टेशन पर खड़ी एक कार के बोनेट के भीतर से धुआं निकलना शुरु हो गया। किसी देखने वाले ने कहा कि छोटा धमाका हुआ किसी ने कहा नहीं हुआ। लेकिन उसके बाद जो भी हुआ वो सबने देखा। धुआं आग की लपटों में बदला और कार पूरी तरह से धू-धू कर जलने लगी। सीएनजी स्टेशन पर हड़कंप मच गया। वहां सीएनजी भरवाने आईं कार-ड्राइवरों में खलबली मच गई और वो अपनी अपनी कारों को लेकर बाहर की ओर भागे। कार ड्राइव कर रही महिला की किस्मत अच्छी थी कि वो वक्त रहते कार से बाहर निकल आई और बच गई। और बाकियों की किस्मत अच्छी थी कि कार में आग लगने के बावजूद सीएनजी स्टेशन को कोई नुकसान नहीं पहुंचा और एक दुर्घटना बड़ा हादसा बनने से बच गई। कार में आग लगने की ये कोई पहली घटना नहीं थी  और अब दिल्ली के आसपास के इलाकों की बात करें तो अनोखी भी नहीं रही है। आए दिन कार में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। और कई बार जानलेवा भी। जब कार में आग इतनी तेज़ी से लगती है कि कार के अंदर बैठे सवारों को निकलने का वक्त भी नहीं मिला। और जब ध्यान से देखें तो ये घटनाएं वाकई ज़्यादा होने लगी हैं।
जिस ज़माने में हम बड़े हुए थे उस दौरान गाड़ियों में आग लगने की घटनाएं शायद ही ऐसे सुनने को मिलती थीं। और वो याद करके सवाल उठता है ज़हन में कि आख़िर क्यों कारें इतनी असुरक्षित होती जा रही हैं। ऐसा नहीं कि अख़बारों और टीवी चैनल्स की वजह से ये संख्या ज़्यादा लगती है । सड़कों पर चलते हुए आपको हफ़्ता-दस दिन में एक ना एक गाड़ी जली हालत में सड़क किनारे दिख जाती है। जो एक चौंकाने वाली सच्चाई है। ऐसा कैसे हो रहा है कि एक तरफ़ कारें पहले से ज़्यादा सुरक्षित तो हो रही हैं, ब्रेक, एयरबैग, ट्रैक्शन कंट्रोल, बेहतर बॉडी और क्रेश टेस्टिंग के साथ, लेकिन दूसरी ओर एक बहुत ही बुनियादी सवाल का जवाब अब भी नहीं मिल पा रहा है। कारों में लगने वाली आग। याद होगा कि नैनो में लगी आग ने उसकी छवि कितनी ख़राब की। लेकिन सच्चाई है कि हर कंपनी की कार में आग लग रही है।

कई बार तो रिपोर्ट आती है कि कार का सेंट्रल लॉकिंग सिस्टम ही लॉक हो जाता है। यानि पैसेंजर आग लगने की हालत में अंदर से दरवाज़ा नहीं खोल पाते और अंदर फंस कर जान गंवा देते हैं। हालांकि इस घटना को कई कार के इंजीनियर ग़लत भी बताते हैं। उनके हिसाब से सेंट्रल लॉकिंग आग लगने की हालत में भी लॉक नहीं होती और लोग किसी और वजह से फंसते हैं । जानकार मानते हैं कि कारों के अंदर प्लास्टिक का इस्तेमाल हद से ज़्यादा बढ़ गया है और ऐसे में एक आग फैलने की रफ़्तार बहुत बढ़ जाती है। चाहे वो बोनेट के भीतर हो या डैशबोर्ड। कार कंपनियां कई बार कहती है कि लोकल बाज़ार से सीएनजी किट फिट करवाने से आग लगती है, कई सीएनजी लगाने वाली कंपनियां कहती हैं ऑथोराइज़्ड फिटिंग सेंटर से फिट ना करवाने से आग लगती है। कई बार कार ग्राहकों पर लापरवाही का आरोप लगता है, कि ध्यान से मेंटेनेंस ना करने पर आग लग जाती है। हालांकि जिस घटना का मैंने पहले ज़िक्र किया उस कार मालिक का दावा था कि पिछले हफ़्ते ही उसने कार की सर्विसिंग करवाई थी।
लेकिन यहां पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच जो मुद्दा ठोकर खा रहा है वो है कारों में आग। यानि सरकार को इस मुद्दे पर अब पहले से कहीं गंभीरता से सोचना चाहिए। क्यों आग की घटनाएं बढ़ी हैं, किसकी ग़लती है ? क्या सुरक्षित इंजीनियरिंग की अनदेखी हो रही है ? क्या कंपनियां सस्ती और असुरक्षित पार्ट-पुर्ज़े लगा रही हैं ? क्या ग्राहक वाकई लापरवाही ख़ुद कर रहे हैं और अपनी जान से खेल रहे हैं ? और ये मामला केवल सीएनजी एलपीजी का नहीं, क्योंकि बाकी आम पेट्रोल-डीज़ल कारें भी तो पहले से कहीं ज़्यादा आग पकड़ रही हैं। तो सवाल सबकी सुरक्षा का है...जवाब का बहुत समय से इंतज़ार है।

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February 11, 2013

Year of Small SUVs ?



नए साल की शुरूआत वैसी नहीं जो बहुत ही ज़ोरदार ऐलान के साथ आई हो। गाड़ियों की दुनिया कैसे बदलेगी इस साल इसका अंदाज़ा तो नहीं मिल सकता है इस महीने से..क्योंकि सभी कंपनियां तो इस महीने में क़ीमत बढ़ाने में लगी हैं। लेकिन अगर इस साल के बाज़ार का ट्रेंड पढ़ना है तो उसके सुराग़ पिछले साल से मिल सकते हैं। जब दो घटनाएं हुई थीं, एक तो कई कंपनियों ने अपनी गाड़ियों का ऐलान किया था जो 2013 में आने वाली थीं और साथ में एक लौच। हम बात रिनॉ के डस्टर की कर रहे हैं। रिनॉ ने पिछले साल इसे प्रदर्शित भी किया और लौंच भी। कंपनियों ने एक साथ ही इस सेगमेंट को शायद पढ़ना शुरू किया था और लगभग सभी ने एक साथ इस पर काम करना शुरू किया। ये कौंपैक्ट एसयूवी का बाज़ार है। जहां पर रिनॉ के साथ फायदा ये था कि उसके पास छोटी स्पोर्ट्स यूटिलिटी गाड़ियों में एक प्रोडक्ट रेडी था। और डस्टर ने कुछ ऐसी सफलता देखी है जिसने कंपनी को भारत में पहली बार राहत मिली है। और उसने आने वाले सभी प्रोडक्ट के लिए रास्ता साफ़ कर दिया है। जहां पर एक तो लगे हाथों आ गई , महिंद्रा ज़ाइलो का मिनी वर्ज़न -क्वांटो। जो एक एमयूवी में से निकाली गई छोटी एसयूवी नुमा थी। लेकिन अभी भी कुछ ऐसे प्रोडक्ट आने बाकी हैं , जिन्हें देखते हुए लग रहा है कि साल 2013 शायद छोटी एसयूवी का साल रहेगा। यानि वो गाड़ियां जो एक एसयूवी के तौर पर तैयार और डेवलप की गई हों। जिसमें सबसे पहले लग रहा है कि फ़ोर्ड की ईकोस्पोर्ट कहीं ना कहीं कंपनी के लिए वो  कर पाएगी जो फीगो ने किया था। 



अमेरिकी कार कंपनी के लिए एक ऐसे सेगमेंट को खोलेगी जिसकी आस फोर्ड का हेडक्वार्टर भी लगा रहा होगा। इस गाड़ी को लेकर कंपनी की गंभीरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कंपनी ने पेट्रोल इंजिन पर भी ख़ास काम किया है, जबकि एसयूवी में आमतौर पेट्रोल इंजिन की बात कम ही सोची जाती है और आज के वक्त में तो और भी नहीं। ख़ैर । तो एक छोटे पेट्रोल इंजिन के अलावा और क्या पैकेज में लेकर आ सकती है फ़ोर्ड ये तो देखने वाली बात होगी, क्योंकि इस साल अगर बहुत से लोगों में किसी लौच को लेकर दिलचस्पी है तो यही गाड़ी होगी। इसके अलावा एक और छोटी सवारी मारुति की भी होगी, जो अगर इस साल आ गई तो फिर सेगमेंट में नए तरीके का उछाल हम देख पाएंगे। एक्स ए ऐल्फ़ा की कहानी को हम कौंसेप्ट के तौर पर ही देख पाए हैं। बाज़ार की रफ़्तार और अपने गिरते मार्केट शेयर को देखते हुए मारुति के लिए बहुत ही ज़रूरी है कि वो अपनी छोटी एसयूवी लेकर आ जाए। तो बिल्कुल नए तरीके की मारुति सवारी बाज़ार को कैसे हिलाती-डुलाती है ये देखना दिलचस्प होगा। लेकिन एक्स ए ऐल्फ़ा के बारे में सुगबुगाहट अभी नहीं लग रही है। देखिए कब आती है। लेकिन सिर्फ़ दो गाड़ियों से साल का ट्रेंड नहीं बन सकता है। यानि और भी लौंच इस सेगमेंट में ज़रूर होंगे। जिनमें से एक निसान भी होगी।



 रिनॉ की डस्टर को निसान के नाम से लौंच करने की कोशिश कंपनी काफ़ी दिनों से कर ही रही है। दोनों कंपनियां अपने गठजोड़ की वजह से अब तक अपनी कारों को आपस में बांटती आई हैं। तो हो सकता है कि इस साल एसयूवी को भी वो बांटें, और एक नए नाम के साथ डस्टर आ जाए हमारे सामने। देखते हैं कि निसान और रिनॉ कैसे इस कार को अलग बना पाएंगे। इसके अलावा भी कुछ काम चल रहा है टाटा के कैंप में। जो अब तक पिछड़ती दिख रही है एसयूवी के इलाके में जहां पर सफ़ारी का नया अवतार भी बहुत ज़ोरदार कमाल नहीं दिखा पाई है अब तक जहां उसे अब बिल्कुल नए प्रोडक्ट से भिड़ना पड़ रहा है, एक तरफ़ एक्सयूवी एक तरफ़ डस्टर । तो ऐसे में कंपनी अपनी आरिया को छोटा करने में लगी हुई है पता चल रहा है। आरिया टाटा मोटर्स के पोर्टफोलियो में ऐसी गाड़ी ज़रूर रही है जो कि रिफ़ाइनमेंट, बनावट और इंजीनियरिंग के मामले में काफ़ी बेहतर रही है। और कंपनी अगर इसे छोटा बनाती है, हैंडलिंग पर काम करती है तो फिर वाकई मल्टी यूटिलिटी गाड़ी से एक अच्छी छोटी एसयूवी निकल कर आएगी।
तो देश में ये साल स्पोर्ट्स यूटिलिटी गाड़ियों का होने वाला है। छोटी और किफ़ायती एसयूवी। कुछ कंपनियों ने ऐलान कर दिया है, कुछ ऐलान करने वाली हैं। कुछ जो़रों से कुछ हल्के से। लेकिन ये गाड़ियां आते हुए बदलते भारत की कहानी आ रही हैं। 
*Published in January ** फोटो सौजन्य गूगल