May 01, 2013

तजुर्बा तो ज़रूरी है....

कुछ साल पहले तक...किसी भी सुपरबाइकर के साथ एक बात तो तय थी कि जब भी कोई उनकी बाइक को कोई छूए को वो तपाक से रोकते थे । कई बार गुस्से से भी। अपनी प्यारी मोटरसाइकिल पर एक उंगली का निशान भी उन्हें पसंद नहीं होता। साथ में ये भी मुद्दा था ही कि कुछ वक्त पहले तक उन मोटरसाइकिलों के पार्ट-पुर्ज़े काफ़ी मुश्किल से मिलते थे। तो चिंता ज़रूरी था। ऐसे में जब मोटरसाइकिल कंपनियां जब सुपरबाइक्स लाईं, और शोरूम पर उन्होंने डू-नॉट-टच का स्टिकर लगाया तो ज़्यादा लोगों को आश्चर्य नहीं हुआ । लेकिन बात अटपटी ज़रूर थी, जब मैं देखता था कि स्कूली बच्चों का झुंड बाइक शोरूम के बाहर से लाखों रु की उन मोटरसाइकिलों को निहारते थे लेकिन नज़दीक से छू नहीं सकते थे। ये बात मुझे काफ़ी अटपटी लगती थी, ख़ासकर तब जब कंपनियां भारत में इस तरीके की सवारियों का भारत में बाज़ार ही खंगाल रही थीं। यहां पर बिक्री से ज़्यादा ज़रूरी था बाज़ार को बनाना। और मुझे बाद में लगा कि मैं बहुत ग़लत नहीं था। ग्राहक एक्सपीरिएंस की मांग करते हैं।
इसी पहलू पर एक नए लहजे में देखा हार्ले डेविडसन को जब कंपनी ने भारत में अपनी महंगी मोटरसाइकिलों को लौंच किया। कंपनी के शोरूम में बाइकप्रेमियों पर बहुत बंदिशें नहीं थीं । इसके अलावा कंपनी ने अपनी सवारियों को एक्सपीरिएंस करवाने के लिए कई तरीके की कोशिशें की। कंपनी का वैसे भी नाम मज़बूत था लेकिन इन सब कोशिशों के साथ, कंपनी ने आज की तारीख़ में भारत में भी एक मोटरसाइकिल कल्चर को अपने नाम किया है । ये सच्चाई तो है ही कि आने के दो साल में ही कंपनी ने दो हज़ार मोटरसाइकिलें बेच दी थीं, जो बाकी सुपरबाइक या प्रीमियम बाइक की बिक्री से कही ज़्यादा है।  हर वीकेंड पर देश के कई बड़े शहरों में बाइकर्स एक साथ निकलते हैं और बाइकिंग का मज़ा लेते हैं साथ वक्त गुज़ारते हैं।
मोटरसाइकिलों में तो सिर्फ़ इक्का दुक्का ऐसे उदाहरण हैं, कार कंपनियां इस मामले में कहीं आगे जा चुकी हैं। एक वक्त था जब घर पर मार्केटिंग के लिए धूप-अगरबत्ती और वाटर प्यूरिफ़ायर वाले आते थे। अब लाखों करोड़ों की कार कंपनियां शहर शहर घूम रही हैं, अपनी कारों को बेचने के लिए। भारतीय कार बाज़ार की दुर्गति निकली हुई है, ज़्यादातर कार निर्माता हिचकियां ले रहे हैं। कैसे कार बेचें इसकी तरकीबें सोच रहे हैं। कोई एक के साथ एक फ्री दे रहा है और कोई कार्ड स्क्रैच करने के लिए कह रहा है। ऐसे में लग्ज़री कार कंपनियां भी पीछे नहीं रह रही हैं । आज के दौर में इन कंपनियों ख़ासकर जर्मन कार कंपनियों को जिस आक्रामक मूड में देखा जा रहा है वो अब तक नहीं था। पारंपरिक प्रतिद्वंदी मर्सेडीज़, बीएमडब्ल्यू और ऑडी। ये कंपनियां एक दूसरे से रेस में लगी हैं जिसके लिए पूरे भारत में संभावित बाज़ार ढूंढ रही हैं। जहां पर शोरूम है वहां तो है ही, जहां नहीं है वहां भी कार बेचने की कोशिश ज़ोरदार है। सभी कंपनियां किसी ना किसी तरीके से उन सभी शहरों में अपनी कारों को लेकर पहुंच रही हैं जहां पर पैसे वाले ग्राहकों की संख्या बढ़ी मालूम चली है। और एक समय में संभ्रांत और एक्सक्लूसिव ब्रांड उस गुमान में नहीं दिखते जो कुछ साल पहले था। अब वो सभी ग्राहकों को अपने एक एक फ़ीचर को एक्सपीरिएंस कराने की कोशिश कर रही हैं।
जैसे मर्सेडीज़ और ऑडी अपने ग्राहकों के लिए कुछ अलग तरीके की कोशिश कर रही है। कंपनी ने अपनी कारों की ड्राइव और पर्फोर्मेंस की एक एक बारीकी समझाने के लिए ग्राहकों को रेस ट्रैक पर बुलाने लगे हैं। दोनो ही कंपनी ने कुछ हज़ार रु की फ़ीस लेकर अपनी स्पोर्ट्स कारों का तजुर्बा देने के  लिए प्रोग्राम शुरू किया है। जिन शहरों में रेस ट्रैक नहीं वहां पर ख़ास ट्रैक बना कर ।
कुछ कार कंपनी अपनी कारों के साथ छोटे छोटे ड्राइव भी आयोजित करती हैं। जहां पर पुराने ग्राहक अपनी फ़ैमिली के साथ आते हैं। कस्टमर के साथ ख़ास रिश्ता जोड़ने के साथ कंपनी की ब्रांड बिल्डिंग भी हो जाती है। महिंद्रा का ग्रेट एस्केप रैली ऐसी ही कोशिश है, जहां ग्राहक मुश्किल रास्तों पर अपनी एसयूवी दौड़ाते हैं। टाटा मोटर्स ने भी इसी तरह की कोशिश फ़ुल थ्रॉटल के नाम से शुरू कर रही है।
ऐसी कोशिशों के साथ ना सिर्फ़ ग्राहक बेहतर फ़ैसला कर पाते हैं, बल्कि कार कंपनियों के लिए भी फ़ायदे का सौदा होता है  जहां कई ग्राहक प्रभावित होकर कार ख़रीदने का फ़ैसला तुरंत कर लेते हैं। इसके अलावा ग्राहकों की जानकारी बढ़ती है, मोटरिंग का कल्चर बढ़ता है। सभी तरीके से फ़ाएदेमंद ही कहा जाएगा, जो कार कंपनियां ऐसा नहीं कर रही हैं उन्हें तुरंत शुरू करना चाहिए।


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