...रोज़ फेसबुक पर मैं लिख रहा हूं, वो लाइनें जिसे कई बकवास मानते हैं, मैं कहता हूं ट्रैफ़िक मसाला डोसा। जिसकी एंट्री वहां होती है, जिस डब्बे को दिखाकर ज़ूकरबर्ग कहता है कि आपके सर पर क्या सवार है, ये दोस्तों को बताइए। और चूंकि अभी भी चिट्ठी के आख़िर में मैं योर्स ओबिडिएंटली क्रांति संभव ही लिखता हूं तो मैं इस बक्से में भी कुछ लिखने लगा हूं...जिसे कहते हैं स्टेटस मेसेज और जो मेरे जज़्बातों के लिए मसाज का काम भी करता है। वो जज़्बात जो उभर कर आते हैं कई बार सड़कों के बीच में...जब बाईं ओर से स्कॉर्पियो वाला मुझे ओवरटेक करता है, मोबाइल पर बात करने की वजह से जो नहीं दे पाता है इंडीकेटर और उसे लगता है कि टेलिपैथी के ज़रिए मैं समझ जाउंगा कि वो अब ओवरटेक करके अचानक दाएं होने वाला है और फिर स्लो हो जाने वाला है, मानो उसने संकट मोचन मंदिर में यही मन्नत मांगी थी कि देश के किसी मूर्धन्य या फिर धन्य कुचले पत्रकार को उसकी औक़ात समझा सकूं...वैसे इमानदारी से कहूं तो हाल में मेरी गाड़ी में जितना ख़र्चा लगा है, उसे चुकाने के बाद मैं पहले से कहीं ज़्यादा संवेदनशील हो गया हूं, मैं -कोई मिल गया- का रितिक रौशन हो चुका हूं, कि मुझे पता चल जाता है कि तीन किलोमीटर आगे कैसे कोई सैंट्रो वाला मेरे लिए घात लगाए बैठा है, जो अचानक शाहरुख़ ख़ान की तरह अपनी स्टीयरिंग घुमाएगा और मेरे कलेजे के एक सत्रहवें हिस्से को मेरे मुंह के रास्ते निकलने की वजह देगा। लेकिन कई बार ये सिक्स्थ सेंस बिज़ी होता है।
सैंट्रो के सिग्नल को बीच में इंटरसेप्ट करके एक सफ़ेद कॉलसेंटर सिंड्रोम से पीड़ित टवेरा मुझे पहले दाएं से ओवरटेक करती है, फिर बाएं से, आगे जाकर अचानक ब्रेक मारती है, फिर अचानक पीछे से आकर हॉर्न बजाती है...लग रहा है कि मैं ज्वेल थीफ़ का देव आनंद हूं, गरदन टेढ़ी करके ढोल बजा रहा हूं और वो टवेरा वैजंति माला है और इर्द गिर्द नाचते हुए कह रही है कि “होठों पे ऐसी बात मैं छुपा के चली आई....” वैसे बुनियादी सवाल ये है कि वाई शुड आई केयर कि कॉल सेटंर टवेरा क्या बात छुपा सकती है...”हाऊ मे आई हेल्प यू मिस्टर बॉब फ्रॉम बाल्टीमोर” डैम इट...तो इसी पूर्वाग्रह के साथ मैं विश्वामित्र की तरह स्थिर चित्त एक रफ़्तार में चला जा रहा हूं, ये बात अलग है कि पिछली बारिश में ये गाड़ी भीग गई थी, मंदाकिनी से थोड़ा कम और श्रीदेवी से थोड़ा ज़्यादा, जिसके बाद से मेरी गाड़ी की टॉप स्पीड मेरी मजबूरी है विकल्प नहीं। वैसे ये काबिलेतारीफ़ बात कही जानी चाहिए और रोटरी क्लब के द्वारा मुझे प्रशस्ति पत्र मिलना चाहिए कि पूरा देश जब इनकसेंस्टेंसी से जूझ रहा है, वहां पर मेरी कंसेस्टेंसी आने वाली नस्लों के लिए एक समाजशास्त्रीय स्टडी हो सकती है। लेकिन फिर ये सोच कर अपनी मांग वापस लेता हूं कि उस सर्टिफिकेट से मुझे एक लीटर पेट्रोल भी नहीं मिलेगा...तो वापस आता हूं उसी स्कॉर्पियो पर, सॉरी टवेरा या सैंट्रो ...आई डोंट नो मेट...लगता है भूल गया...
वैसे कई सारी हैं, सड़कों पर दिमाग़ ज़्यादा चलता है इसलिए कई तरीके के कैल्कुलेशन करता रहता हूं...कई बार नुसरत और कोल्डप्ले सुनते हुए कई बार मैडम अख़्तर को सुनते हुए और कई बार चुप्पी में भी। ख़ैर। फिर से वापस आता हूं। पिछले शुक्ल पक्ष या विपक्ष की बात है....लाजपत नगर की सड़क पर ट्रैफ़िक में दबा सा, मिडिल क्लास के डेली स्ट्रगल को गरिमामंडित करते हुए अपनी धीमी रफ़्तार गाड़ी से सड़क के बीचो बीचे चला जा रहा था....सबसे दाईं वाली लेन में गाड़ियों की क़तार लगती दिखाई दे रही थी...वो जगह ऐसी है जहां पर एक ही सड़क के दो हिस्से एक दूसरे से रूठते हुए मुड़ जाते हैं, एक तो बाईं तरफ़ सेंट्रल मार्केट में चली जाती है, जिस मोड़ के एक तरफ़ एक ज़माने में स्टूडेंट बस पास बनाने वाला सीमेंट का चहलपहल भरा कमरा दीखता था, और उसके दूसरे ओर इतने जूस कॉर्नर हुआ करते थे कि ज्योमेट्री के सारे थ्योरम से इंसानियत का भरोसा उठ जाए, दाएं बाएं तो ठीक, बीच और ऊपर वाले दुकान भी ख़ुद को जूस कॉर्नर ही बताते, जूस सेंटर या सेंटर फ़ॉर्वर्ड नहीं...रूठी हुई सड़क का दूसरा सिरा बहुत ही महत्वाकांक्षी तरीके से एक फ्लाईओवर में तब्दील हो जाता है। वैसे उसकी अकड़ भी जल्द ख़त्म हो जाती है जब 8 लेन का ट्रैफ़िक तीन लेन में अंटने की कोशिश में, इसका करियर नेहरू नगर में जाकर भद्दे तरीके से ख़त्म कर देता है। लेकिन आज कहानी वहां तक नहीं जा रही है। प्लॉट तो पहले से तैयार हो गया था। एक श्कोडा वाले सज्जन ने ट्रैफ़िक के मोमेंटम के ऊपर अपने हार्मोनल ज़रूरत को तरजीह दी, अधेड़ उम्र में अपने जीवन के माएने खोजने की प्रक्रिया में नज़र एक बाला पर टिकी, और जैसा कि कोई भी 42 साल का शरीफ़ शादीशुदा इंसान करेगा, प्रकृति की उस सुंदर क्रिएटिविटी को इज़्ज़त देगा, ख़ुद को नहीं रोकेगा तो ऐसा ही उन्होंने भी किया। ख़ुद को बिल्कुल नहीं रोका, गाड़ी रोकी। और ज़ाहिर है कि ऐसी अलौकिक प्रक्रिया में कोई भी जानबूझ कर अड़चन नहीं डालेगा, जिसके भी दिल में जज़्बात हैं और कार की स्टीरियो में अन्नू मलिक के गाने हैं वो अप्रिशिएट तो करेगा ही इस जज़बात को, और बल्कि उसी बाला को निहार कर अपना सपोर्ट भी प्रदर्शित करेगा। लेकिन सच्चाई के अनगिनत पहलुओं में से एक पहलू है कलयुग भी और इसी युग के बर्थ सर्टिफिकेट के नशे में चूर एक नौजवान नहीं कद्र कर पाया इस रेयर खगोलीय घटना को और रगेत के मारा अपनी कार, लाल श्कोडा के पीछ लगी 8 गाडियों की कतार में सबसे आख़िर में खड़ी गाड़ी में। रगेत वाला वर्ड हमेशा मुझे फैसिनेट करता है, इट्स फ्रॉम पटना यू नो। अगर दिल्ली वाली हिंदी में बोलूं तो सूत के मारा। वहीं इसका एक बॉलीवुड पैरलल खींचू तो बिल्कुल उसी तरह मारा जैसे आई थिंक इंस्पेक्टर सन्नी या किसी बन्नी ने एक चमड़े के बैट से विलेन के पृष्ठ भाग में ऑटोग्राफ़ दिया था। तो आगे बढ़ते हैं। तो उस सफ़ेद सफ़ारी ने अगली गाड़ी को ठोका, जो न्यूट्रल में थी, उसने उसी चोट को आगे पास किया, फिर आगे और आगे एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। अचानक 8-9 गाड़ियां जो कुछ सेकेंड पहले तक प्रकृति के साथ एकाकार होते लैंडस्केप का हिस्सा थीं, एक अनचाहे चुंबन का शिकार बनी। जिसमें रत्ती भर भी ब्यूटी नहीं थी, पैशन नहीं था, क्योंकि इसमें होठों की जगह सफ़ारीनुमा हथौड़े का इस्तेमाल था, जो दिल दहलाने वाला और शरीर से लेकर आत्मा तक को चोट पहुंचाने वाला था। और मैं इस घटना का गवाह था। लग रहा था मेरी आंखें एक ऐसे कैमरे की तरह हैं, जो बल्ले से निकले बॉल के साथ चल रहा है, ज़ूम इन या ज़ूम आउट नहीं..साथ में चल रहा है। एक हाई डेफिनिशन वीडियो जिसकी एक एक डीटेल मेरे सामने खुल रही है। ये सब मैंने बताया तो बहुत रायता फैला कर है लेकिन कुल मिलाकर 2-3 सेकेंड में ये लंका-कांड समाप्त हो चुका था।
जैसा कि कहा जाता है कि शरीर तो सिर्फ़ वस्त्र है, और जिस फटे वस्त्र के लिए इंश्योरेंस भी क्लेम कर सकते हैं उसके लिए क्या रोना, क्या फ़ील करना। वैसे भी अपने ईएमआई, पेट्रोल और बिजली बिल का रोना कम है कि उन टिन के वस्त्रों के लिए सोचूं। लेकिन थोड़ा सोचा। फिर ये भी सोचा कि क्या सोचा ये बताने की मजबूरी तो नहीं है, वैसे भी ब्लॉग पर मैं लिख रहा हूं...डज़न्ट मैटर की ये पढ़ कर किसी के जीवन में कुछ ऐड हो या ना हो, मैं तो कमसेकम इसे अपने दिमाग़ के डेटाबेस से सबट्रैक्ट कर लूं। लेकिन फिर भी मैं आम भारतीय की तरह नॉन जवाबदेहिक सलाह तो दे ही दूं...सड़क के सबसे दाईं ओर कम ही चलाएं...वैसे इंटरनैशनली उसका इस्तेमाल ओवरटेकिंग के लिए होता है लेकिन मैं ग़ुलाम मानसिकता वाला भारतीय नहीं हूं इसलिए इंटरनैशनली इसका इस्तेमाल किसी के लिए भी हो, आई डू नॉट केयर। सड़क की बाईं ओर चलाने से व्यू बेहतर होता है दरअसल, बस स्टॉप होता है, ऑटो स्टैंड होता है, और संजय लीला भंसाली से नई हीरोईन खोजने का एकतरफ़ा वायदा आपने कर रखा है वो बेहतर तरीके से निभा पाएंगे। और अगर गाड़ी रोकनी भी पड़े तो अनचाहे चुंबन की आशंका कम ही हो। तो इसी अनमोल एडवाइस के साथ.... शब्बा ख़ैर।
1 comment:
शानदार लेखन.
और, आपका भोगा यथार्थ तो भारत के हर शहर के हर सड़क के हर भारतीय का है!
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