वजहें राग दरबारी के ट्रक की तरह से होती हैं। जितने अलग एंगिल से देखिए तो उसका मतलब बदलता जाता है। किस वजह से हम किसी चीज़ का इस्तेमाल करते हैं, उससे उस चीज़ का मतलब बदल जाता है। उसका वाशिंग मशीन पंजाब में लस्सी बनाने की मशीन बन जाती है और पंपिंग सेट ट्रैक्टर में। जिस गांव में तीन महीने में एक बार पौने घंटे के लिए बिजली आती है वहां पर आटा चक्की मशीन में लगा जेनरेटर पूरे गांव के मोबाईल फ़ोन का चार्जिंग प्वाइंट बन जाता और क्योंकि दस रु के लाइटर में एलईडी लाइट लगा होता है इसीलिए मेरे गांव में भी हज़ारों चाइनीज़ लाइटर आ जाते हैं जहां पर शायद ही किसी को सिगरेट-बीड़ी पीते आप देखेंगे।
कहने का मतलब आप समझ ही गए होंगे। हम किस कार या मोटरसाइकिल को किस वजह से ख़रीदते हैं या पसंद करते हैं, उस सवारी का मतलब बदल देता है। दिल्ली की सड़कों पर हज़ारों एसयूवी दौड़ती रहती हैं, जिनमें बैठे सज्जन काले चश्मे के पीछे से ये भाव देते हैं कि देखिए एक ‘माचो’ आपके बगल से गुज़र रहा है …लेकिन उन सभी एसयूवी में से 90 फ़ीसदी के पहियों पर साल के एक बार भी मिट्टी नहीं लगती है, कौंक्रीट में ही मंडराती हैं वो गाड़ियां। और ये इमेज शायद ही कोई तोड़ पाता है, इसीलिए जब कोई एसयूवी वाला ऐसा मिला जो वाकई अपनी एसयूवी का इस्तेमाल कर रहा था तो अटपटा लग जाता है। काफ़ी वक्त पहले जब मैं मिला दिल्ली के एक गूजर नेता से, तो उनकी कई मंहगी गाड़ियो-कारों की लाइन में कई एसयूवी खड़ी थीं, मंहगी-मंहगी। और अगर बिहारी आरिजिन का कोई इंसान अगर पालिटिशयन की एसयूवी की खेप देखेगा उसका एसोसिएशन सीधा सा होगा-नेता-दबंग-एसयूवी। इमेज के लिए ज़रूरी गाड़ी। लेकिन फिर भी जेनरली मैंने पूछ लिया...एसयूवी क्यों ज़्यादा तो जवाब मिला कि भई खेत भी तो हैं हमारे, हर थोड़े ही ना हमेशा दिल्ली में रहते हैं।
एक जोड़े से मिला था, उनकी गाड़ी बड़ी दिलचस्प लगी। पुरानी लैंड रोवर मिट्टी से सनी हुई। कोई एक्स्ट्रा ताम झाम नहीं। पति-पत्नी जंगल में ही रहते हैं, एक छोटा सा रिज़ॉर्ट चलाते हैं।और लगता है कि उनके ज़िंदगी का हिस्सा है वो सवारी। वो लैंड रोवर उस जोड़े के दिनचर्या की डायरी लगती है, सुबह का नाश्ता कहां हो रहा है और दोपहर के खाने से पहले कहां कहां टहल कर आए हैं, जंगल के किस कोने से किस अनोखे पंछी को देखकर वापस आए हैं।
ऎसी ही छाप दिखती है कई बाइकर मित्रों की मोटरसाइकिलों में। उनके पहचान छलक कर उनकी सवारी पर आ जाती है, किनारे में लगे कैरियर बताते हैं कि दोनों किस लंबे सफ़र पर एक साथ निकले थे। कहां पर वो लड़खड़ाए थे और कहां किस चढ़ाई पर उनका दम फूल गया था।
लेकिन बड़ा दुख होता है उन गाड़ियों को देखकर जो बेलल्ला सी लगती हैं, थोड़ी खोई सी – अनचाही सी। उन पर कोई निशानी नहीं होती ये बताने के लिए कि वो किसी की ज़िंदगी में शामिल हैं। वो बस प्वाइंट ए से प्वाइंट बी के लिए इस्तेमाल होती हैं। और फिर रुक जाती हैं। कई बार बहुत मंहगी और कई बार सस्ती ।
कहने का मतलब आप समझ ही गए होंगे। हम किस कार या मोटरसाइकिल को किस वजह से ख़रीदते हैं या पसंद करते हैं, उस सवारी का मतलब बदल देता है। दिल्ली की सड़कों पर हज़ारों एसयूवी दौड़ती रहती हैं, जिनमें बैठे सज्जन काले चश्मे के पीछे से ये भाव देते हैं कि देखिए एक ‘माचो’ आपके बगल से गुज़र रहा है …लेकिन उन सभी एसयूवी में से 90 फ़ीसदी के पहियों पर साल के एक बार भी मिट्टी नहीं लगती है, कौंक्रीट में ही मंडराती हैं वो गाड़ियां। और ये इमेज शायद ही कोई तोड़ पाता है, इसीलिए जब कोई एसयूवी वाला ऐसा मिला जो वाकई अपनी एसयूवी का इस्तेमाल कर रहा था तो अटपटा लग जाता है। काफ़ी वक्त पहले जब मैं मिला दिल्ली के एक गूजर नेता से, तो उनकी कई मंहगी गाड़ियो-कारों की लाइन में कई एसयूवी खड़ी थीं, मंहगी-मंहगी। और अगर बिहारी आरिजिन का कोई इंसान अगर पालिटिशयन की एसयूवी की खेप देखेगा उसका एसोसिएशन सीधा सा होगा-नेता-दबंग-एसयूवी। इमेज के लिए ज़रूरी गाड़ी। लेकिन फिर भी जेनरली मैंने पूछ लिया...एसयूवी क्यों ज़्यादा तो जवाब मिला कि भई खेत भी तो हैं हमारे, हर थोड़े ही ना हमेशा दिल्ली में रहते हैं।
एक जोड़े से मिला था, उनकी गाड़ी बड़ी दिलचस्प लगी। पुरानी लैंड रोवर मिट्टी से सनी हुई। कोई एक्स्ट्रा ताम झाम नहीं। पति-पत्नी जंगल में ही रहते हैं, एक छोटा सा रिज़ॉर्ट चलाते हैं।और लगता है कि उनके ज़िंदगी का हिस्सा है वो सवारी। वो लैंड रोवर उस जोड़े के दिनचर्या की डायरी लगती है, सुबह का नाश्ता कहां हो रहा है और दोपहर के खाने से पहले कहां कहां टहल कर आए हैं, जंगल के किस कोने से किस अनोखे पंछी को देखकर वापस आए हैं।
ऎसी ही छाप दिखती है कई बाइकर मित्रों की मोटरसाइकिलों में। उनके पहचान छलक कर उनकी सवारी पर आ जाती है, किनारे में लगे कैरियर बताते हैं कि दोनों किस लंबे सफ़र पर एक साथ निकले थे। कहां पर वो लड़खड़ाए थे और कहां किस चढ़ाई पर उनका दम फूल गया था।
लेकिन बड़ा दुख होता है उन गाड़ियों को देखकर जो बेलल्ला सी लगती हैं, थोड़ी खोई सी – अनचाही सी। उन पर कोई निशानी नहीं होती ये बताने के लिए कि वो किसी की ज़िंदगी में शामिल हैं। वो बस प्वाइंट ए से प्वाइंट बी के लिए इस्तेमाल होती हैं। और फिर रुक जाती हैं। कई बार बहुत मंहगी और कई बार सस्ती ।
आज की तारीख़ में इमेज बहुत अहम हो चुका है, हम कहां पर, कैसे दिख रहे हैं, पेश हो रहे हैं। आपके हाथ में कौन सा फ़ोन है, आपके शर्ट के आस्तीन पर किसी बड़े ब्रांड कि निशानी है कि नहीं...और आप उतर किस गाड़ी से रहे हैं। ऎसे में बड़ा दुख होता है ऎसी गाड़ियों को देखकर जो सिर्फ़ शॉर्टकट या डेस्कटॉप के आइकन की तरह इस्तेमाल में आती हैं। सोशल स्टेटमेंट देने के लिए । उम्मीद है आपके घर के बाहर जो सवारी है, स्प्लेंडर से लेकर मर्सेडीज़ तक, उन पर आपकी छाप है, और लग रहा है कि नहीं है अभी तो फिर हो जाए। लेकर निकल जाइए उसे आज थोड़ी देर के लिए।
(पब्लिश्ड प्लीज़)
2 comments:
Jabardast !!
After reading this i went for a ride on my bullet.
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