ये मेरी पर्सनैलिटी का एक्सटेंशन है- ये जवाब था यंगिस्तान के एक नौजवान का। जब मैंने उसकी मॉडिफ़ाइड कार के बारे में पूछा था। जो लाल और काले रंग में लिपटी चमचमा रही थी। अंदर कई गैजेट्स और बाहर में चटख़ रंग-रोगन। जिसे देखकर पहचानना मुश्किल था कि ये लांसर कार है। ये कुछ साल पहले की बात है, जब एक स्टोरी के सिलसिले में इस नौजवान से मैं मिला था जो अपनी कार के ज़रिए अपना परिचय दे रहा था।
आज के वक्त में ज़रूर कहूंगा कि हम अपनी पसंद और नापसंद को लेकर इतने साकांक्ष हो गए हैं, इतनी अवेयरनेस बढ़ गई है, कि उसकी बारीकियां कई बार दिमाग़ चाट जाती हैं। कौन सा रंग पसंद है, कौन सा कूज़ीन या भोजन , किस मौसम में छुट्टी के लिए कहां जाना है और किस रेस्त्रां का कौन सा आइसक्रीम पसंद है...ये सब हमें मालूम है। और बताने की चाहत भी। इनमें से थोड़ा बहुत पुराने जेनरेशन को भी पता था लेकिन इसका प्रदर्शन नहीं था।
पहले की बात और थी जब विकल्प नहीं था, एंबैसेडर और प्रिमियर पद्मिनी के साथ बहुत एक्सक्लूसिव नहीं दिख सकते थे। लेकिन हम और आप साकांक्ष हैं यानि कौनश्यस हैं , गाड़ी के लुक को लेकर भी। दुनिया भर की तरह अब भारत में भी आ रही है ये सोच कि हमारी पर्सनैलिटी का एक तरह से एक्स्प्रेशन है हमारी गाड़ी।
तो पहले जहां ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए न्यूट्रल किस्म के डिज़ाइन देखते थे वहीं अब कारों के लुक में ख़ास कैरेक्टर झलकने लगे हैं।
जैसे शेवरले की बीट आपको याद होगी, लुक ऐसा था कि यंग लोगों को ख़ासी पसंद आई थी। और उसे डिज़ाइन भी ऐसा ही किया गया था शेवरले के कोरियन डिज़ाइनरों द्वारा। ऐसा डिज़ाइन जो कुछ को बहुत पसंद आया कुछ को बिल्कुल नहीं। ऐसा ही रहा मारुति रिट्ज़ के साथ भी। कार के पिछले हिस्से को नाम दिया गया बूमरैंग शेप। जो बीच में दबी सी नज़र आती है, इसके साथ भी वही मुद्दा । भले ही एक ख़ास लुक कार के बाज़ार को सीमित करे, लेकिन उस कार को चलाते को देख ये ज़रूर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इंसान कैसा होगा।
इसी का अगला लेवल देखने को मिला ह्युंडै की नई वर्ना में। दुनिया के कई बाज़ार में ये ऐक्सेंट के नाम से बिकती है। और उसी कार के टेस्ट ड्राइव में मैं दुबई गया था तब उस कार के नाम पर फ़्लूइडिक नहीं जुड़ा था। वहां पर सिंपल ऐक्सेंट या कहें वर्ना थी।
लेकिन भारत में लौंच के साथ ही इसे पेश किया गया फ़्लूइडिक वर्ना के तौर पर। दरअसल वर्ना को जिस कौंसेप्ट के आधार पर डिज़ाइन किया गया उसका नाम ह्युंडै ने फ़्लूइडिक डिज़ाइन रखा है। ऐसे में भारत में इसके लुक को और प्रचलित करने के लिए कंपनी ने ऐसा क़दम उठाया। जिसके साथ उस कार को एक कैरेक्टर मिला जो अब तक वर्ना में नही दिखा।
और अब लुक के मामले में एक और कार ज़िक्र करने लायक है। नई फ़ोर्ड फ़िएस्टा ।
कार के डिज़ाइन को फ़ोर्ड ने काइनेटिक डिज़ाइन का नाम दिया है। यानि वो डिज़ाइन जो रुकी कार को भी गतिशील या रफ़्तार में दिखाए। ज़रूरी नहीं कि ये लुक सबको पसंद ही आए लेकिन ये तय है कि कार को एक पहचान मिली। पहले फ़िएस्टा बस एक कार थी, बिना किसी कशिश या कहें एक्स फ़ैक्टर के साथ। अब वो इस डिज़ाइन से उसे मिला।
कुल मिलाकर लोगों के बदलते मूड को देखते हुए कंपनियां अपनी कारों को ज़्यादा से ज़्यादा आकर्षक बनाने की कोशिश में हैं। जिससे पहली नज़र में ही लोग उसे पसंद कर लें।
मेरे पसंदीदा लेखकों या कॉलमिस्ट में से एक माल्कम ग्लैडवेल का कहना है कि पहली नज़र में प्यार जैसी चीज़ शायद कुछ नहीं होती...कई मनोवैज्ञानिकों के रीसर्च की बदौलत बताते हैं कि ये दिल दा मामला नहीं होता, बल्कि दिमाग़ के उस हिस्से का कमाल होता है जो किसी भी चीज़ को पहली नज़र में ही नाप लेता है, आपकी पसंद नापसंद के फाइल से मैच करता है और फिर आपको बता देता है कि वो आपको पसंद आनी चाहिए या नहीं, और ये कैल्कुलेशन इतना तेज़ होता है कि हमें भरोसा ही नहीं हो पाता कि हमारा दिमाग़ इतनी तेज़ी से कैसे सब सोच सकता है, लेखक के मुताबिक ये प्रक्रिया हमारे पलक झपकने में लेने वाले वक्त में पूरी हो जाती है। ख़ैर इस सच्चाई को अंतिम ना मानें और अपनी फ़िल्मों के सीन के रोमांस को कम ना होने दें। मैने नहीं होने दिया, लेकिन इस थ्योरी की अहमियत ज़रूर मानता हूं।
कहने का मतलब ये कि भले ही लुक से हम आकर्षित हों लेकिन गाड़ियों के मामले में फ़ाइनल फ़ैसले के पीछे सब कुछ कैलकुलेट होता है, माइलेज, मेंटेनेंस, आफ़्टर सेल्स सर्विस...सब कुछ। यानि एक्स फ़ैक्टर के साथ वाई और ज़ेड फ़ैक्टर भी।
(*already published)
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