November 05, 2012

Diavel या डेविल कहें ...


दिल्ली में मॉनसून की फ़िल्मी हीरो की तरह यादाश्त चली गई थी, जो अचानक तभी लौटी जब मुझे एक दमदार मोटरसाइकिल चलाने का बहुत दिनों के बाद मौक़ा मिल रहा था। और खटका लगा हुआ था कि कहीं बारिश तो नहीं हो जाएगी। तो सुबह पांच बजे से बादल के ऊपर टकटकी लगाए बैठा था। और फिर लगा कि चांस ले लिया जाए, इटैलियन डुकाटी की एक ऐसी मोटरसाइकिल के लिए जो मैंने आजतक नहीं चलाई थी। ऐसा नहीं कि बारिश में चला नहीं सकता था, लेकिन इस मोटरसाइकिल के लिए रिस्क लेना थोड़ा ज़्यादा हो जाता है। वो इसलिए क्योंकि इस मोटरसाइकिल की क़ीमत है मात्र पच्चीस लाख रु। इसका नाम है डियावेल, जिसमें वही दो पहिए और एक इंजिन लगा है, लेकिन क़ीमत इतनी कि लग्ज़री कारें भी फ़ेल हो जाएं। और जब क़ीमत के बारे में पता चल जाता है तो नज़रिया बदलना तो लाज़िमी है। ख़ैर, बादल के भरोसे पर निकला मैं इस मोटरसाइकिल को लेकर खुली सड़क पर।



दमखम के बारे में क्या बताऊं, सिर्फ़ ये कह सकता हूं कि काफ़ी है। 162 हॉर्सपावर की ताक़त आ रही है 1200 सीसी के इंजिन से। तुलना आप कर सकते हैं स्विफ़्ट के साथ। स्विफ़्ट में भी 1200 सीसी का इंजिन लगा है और उससे दुगनी ताक़त देने वाली और पांच गुना हल्की मोटरसाइकिल को चलाने का क्या रोमांच हो सकता है, इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं। अगर नहीं तो बताने की कोशिश करता हूं। ऐक्सिलिरेटर को घुमाते ही ये मोटरसाइकिल हवा से बातें करने लगेगी, इतनी तेज़ आगे जाएगी कि लगेगा कि अगला पहिए अब अपनेआप हवा में उठने वाला है, अचानक बढ़ी रफ़्तार आपको मोटरसाइकिल से पीछे धकेल रही है और आमतौर पर जितने वक्त में हमें जो दूरी तय करने की आदत होती है उससे कहीं आगे हम कहीं जल्दी पहुंच जाते हैं। ये वो रफ़्तार होती है जिस पर चलने की हमें क्या किसी को भी आदत नहीं होती है, और अगर इस जोश में होश खो बैठे तो अनर्थ हो जाता है, और संभले रहे तो रोमांच का अलग एहसास होता है, कुछ वक्त के लिए दीन-दुनिया को आप भूल जाते हैं। एक पैरलल दुनिया होती है ये। लेकिन केवल डियावेल में ये ख़ूबी नहीं होती है, कई अच्छी सुपरबाइक्स आपको ये एहसास दिलाती हैं। तो फिर ऐसे में क्यों ऐसा है कि डियावेल की क़ीमत 25 लाख रु है।
सबसे पहले ये बता दूं कि इस मोटरसाइकिल के कई वेरिएंट हैं, जिनकी शुरूआत बीस लाख रु से शुरू होती है। जिस वेरिएंट को मैं चला रहा था वो डियावेल कार्बन कहलाती है, जिसमें कार्बन फ़ाइबर का काफ़ी इस्तेमाल है, वो 25 लाख रु की है। वो भी एक्स शो रूम क़ीमत। फ़ीचर्स कई सारे ऐसे हैं जिनके बारे में जानकर अचरज होगा। जैसे राइडिंग मोड, यानि अलग अलग तरह की राइड के लिए अलग मोड। सिर्फ़ एक बटन दबाइए और बाइक में लगा कंप्यूटर इंजिन से निकलने वाली ताक़त को कम या ज़्यादा कर देगा, 163 हॉर्सपावर को घटा कर 100 हॉर्सपावर कर देगा, या इसका उल्टा भी। हैंडलिंग को सख़्त या मुलायम कर देगा। शहरी माहौल के लिए अलग मोड, हाईवे के लिए अलग और तेज़ रफ़्तार सुपरबाइकिंग के लिए अलग। टंकी पर लगा छोटा सा डिस्प्ले वो सब जानकारी देगा जो कई महंगी कारें नहीं देती हैं। यहां तक की टायर में हवा का प्रेशर है कि नहीं। लगता है कि दो पहिए पर चलता फिरता ये कंप्यूटर ही है। लेकिन इन सब फ़ीचर्स के बावजूद भी मन में सवाल ज़रूर उठेगा कि इतनी ज़्यादा क़ीमत क्यों है... तो फिर याद कीजिए...इंपोर्ट करने पर इन गाड़ियों की क़ीमत कस्टम की वजह से दुगनी हो जाती है। तब जाकर इसकी क़ीमत का गणित सुलझता है।
बावजूद इस क़ीमत के ये मोटरसाइकिल भारत में बिकती है। साल में 30-40 का आंकड़ा है। जीहां भारत में ये मोटरसाइकिल भी बिक रही है।
((पुराना लिखा है, फ़ोटो देख रहा था बाइक की तो याद आई इसकी ))
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October 30, 2012

नाम में क्या रखा है...


पसंद और पहचान का ग्लोबलाइज़ेशन
काफ़ी विविधता भरा हफ़्ता रहा। एक ही हफ़्ते में जब मुझे तीन अलग अलग तरह की गाड़ी चलाने को मिले, जिन्हें लगभग एक जैसे सेगमेंट में अलग अलग कंपनियों ने अलग अलग लेवल पर उतारा है, जिनकी क़ीमत में कई गुना का फ़र्क है और प्रदर्शन में भी, तो लगता है कि गाड़ियों का दर्शनशास्त्र कहीं ज़्यादा पेचीदा हो जाता है, वो क्यों आगे बताता हूं। वैसे ऐसा नहीं कि तीनों में से कोई ऐसी है जिस पर ख़ासकर अलग से आपको बताना चाहता था लेकिन एक ही साथ ये तीनों ज़ेहन में आ रही थीं और साथ में कहीं ना कहीं तुलना भी। वैसे पहली नज़र में इन तीनों को एक ख़ाने में रखना थोड़ा हास्यास्पद ज़रूर लगेगा। हो सकता है कि बेतुका। क्योंकि भले ही इसे नाम दिया गया हो कौंपैक्ट स्पोर्ट्स यूटिलिटी कारों का जिनका मैं ज़िक्र कर रहा हूं, लेकिन तीनों को नज़दीक से देखें तो पता चलेगा कि ये सब मिथ्या है। तीनों को किसी एक तकनीकी नामकरण की वजह से भले ही साथ में जोड़ा जाए लेकिन ये बहुत अलग हैं। और ब्रांड और क़ीमत देखें तो लगेगा कि कहानी कितनी अलग है। एक तरफ़ बीएमडब्ल्यू है, फिर ऑडी है और एक तरफ़ महिंद्रा। जर्मन महारथी बीएमडब्ल्यू का एक ब्रांड है मिनी है, उसकी कार मिनी कूपर एस कंट्रीमैन मैंने चलाई। जिसकी क़ीमत लगभग 32 लाख रु है। वहीं ऑडी की क्यू थ्री एक नई छोटी एसयूवी है कंपनी की ओर से। ये भी 27 लाख रु से ऊपर से शुरू होती है। इन सबके बीच महिंद्रा की नई क्वांटो चलाने का । अब इसकी क़ीमत पौने छह लाख रु से शुरू हो रही है। ऐसे में अगर मैं ये कहूं कि एक बेहतर है और दूसरी नहीं। मतलब ये कहना कि मिनी और ऑडी क्या शानदार है और क्वांटो कितनी फिसड्डी बेमानी है। समझने में कोई मुश्किल चीज़ नहीं कि क्वांटो से पांच गुना ज़्यादा क़ीमत वाली कार पांच गुना बेहतर होगी, ये सीधा और सहज गणित है, जिसे ग़लत भी नहीं कहूंगा मैं । लेकिन केवल क़ीमत, ब्रांड और महंगे फ़ीचर्स की वजह से तुलना ना ही हो ऐसा सोचना भी एकतरफ़ा है। दरअसल हाल फ़िलहाल में मैंने हिंदुस्तानी ग्राहकों को थोड़ा और बदलते देखा है। जिनकी पसंद में कई और पहलू जुड़े हैं, उन्होंने ग्लोबल स्वाद चख लिया है और वो बारीकियां पहचानने भी लगे हैं और ज़ाहिर भी करने लगे हैं। जो गाड़ियों और मोटरसाइकिलों में भी हुआ है। बीएचपी और टॉर्क के बारे में तो हिंदुस्तानी ग्राहक बात करने ही लगे हैं साथ में गाड़ी के तकनीकी प्रदर्शन पर भी कड़ी निगाह रखने लगे हैं। वो अब हाईटेक फ़ीचर से मिलने वाली सुविधा, गाड़ी की हैंडलिंग पर भी सटीक टिप्पणी कर रहे हैं। और ये सब हुआ है हर सेगमेंट में ग्लोबलाइज़ेशन की वजह से। कहने का मतलब है दुनिया की अलग अलग कंपनियों की गाड़ियों की भारत में एंट्री पिछले कुछ वक्त से कहीं बढ़ गया है, और उन्होंने हमारे स्वाद-बोध में कुछ नया जोड़ा है। जिसमें दो चीज़ें ख़ास लगती हैं, एक तो रिफ़ाइनमेंट ( जिसमें बनावट, डिज़ाइन से लेकर गाड़ी की चाल तक शामिल है) और दूसरा प्रदर्शन ( जिसमें इंजिन से निकलने वाली ताक़त से लेकर आड़े-तिरछे रास्तों पर चलने की क्षमता शामिल है)। ये दोनों पहलू इसलिए याद आए क्योंकि ये वो इलाक़े हैं जहां पर शुद्ध भारतीय गाड़ी कंपनियां अब भी संघर्ष कर रही हैं। और मैं ये सिर्फ़ कारों और एसयूवी तक सीमित नहीं रख रहा हूं, मैं मोटरसाइकिलों की भी बात कर रहा हूं। आज इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आज ज़रूरत और ज़्यादा बढ़ गई है भारतीय कंपनियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय रिफ़ाइनमेंट के साथ कंपीट करने की। वो इसलिए क्योंकि खुले बाज़ार, बेहतर होती सड़कों और ख़रीदने की बढ़ती ताक़त के बीच एक और चुनौती है उनके लिए। वो है बहुत ही आक्रामक क़ीमत पर ग्लोबल प्रोडक्ट भारत में आ रहे हैं, चाहे  वो दो पहिए हों या फिर चार पहिए। जो हिंदुस्तानी बाज़ार को कम बदल पा रहे हैं, हिंदुस्तानियों को ज़्यादा। 

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October 29, 2012

लिस्ट अभी बाक़ी है...

त्यौहारों का मौसम इस बार कुछ ख़ास ही है गाड़ी कंपनियों के लिए। जहां पर मंदी की कंपकपाती ज़मीन पर
क़दम मज़बूत करने के लिए कंपनियों को कुछ नया करने की बहुत सख़्त ज़रूरत है। और इसी सोच के साथ
हम देख रहे हैं कि दशहरे से ठीक पहले गाड़ी कंपनियों ने ढेरो गाड़ियां उतार दी। एक हफ़्ते में हमने देखा कि छह नई गाड़ियां लौंच कर दी गई हैं। जो हर तरीके के सेगमेंट की गाड़ियां हैं। जहां पर चिर-परिचित ऑल्टो अब नए ऑल्टो 800 के नाम के साथ आ गई है बाज़ार में वहीं लौंच का दूसरा सिरा महिंद्रा की कंपनी सैंगयौंग की उतारी रेक्सटन थी। जो थोड़े प्रीमियम एसयूवी बाज़ार में आई है। तो मशक्कत सभी तरफ़ से दिख रही है। ऑल्टो 800 की क़ीमत लगभग पुरानी ऑल्टो जैसी ही है। और इस क़ीमत में कंपनी ने कमसेकम कोशिश में नया से नया करने की कोशिश की है। लुक को नया किया है और अंदर भी। 2 लाख 44 हज़ार रु से शुरू हुई है। वहीं ऑल्टो 800 CNG की क़ीमत की शुरूआत 3 लाख 19 हज़ार से हुई है। वैसे हौंडा के पास ऐसा कोई नया प्रोडक्ट तो नहीं था लेकिन कुछ बदलाव के साथ कंपनी ने छोटी कार ब्रियो को ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन के साथ उतारा है। जहां क़ीमत की शुरूआत हो रही है 5 लाख 74 हज़ार से , दूसरा ऑटोमैटिक 5 लाख 99 हज़ार में आ रहा है।

बड़ी कारों के इलाके में एक बदलाव दिखा है टाटा की ओर से। जो अपनी मांज़ा का एक क्लब क्लास वेरिएंट लेकर आई है। इसके पेट्रोल और डीज़ल वेरिएंट की क़ीमतें 5 लाख 70 हज़ार से 6 लाख 49 हज़ार के बीच है।
लेकिन हां एक बड़ा लौंच जिसका इंतज़ार बहुत लंबा खिंच गया था वो भी दिखा इस हफ़्ते। टाटा मोटर्स ने अपनी स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेह्किल सफ़ारी को नए रंग-रूप में उतार दिया है। सफ़ारी स्टॉर्म के नाम से। अब ये एक ऐसी गाड़ी रही है जिसने लंबे वक्त तक टाटा का साथ दिया है। हिंदुस्तानी ग्राहकों के एसयूवी के शौक को पूरा किया है। लेकिन पिछले कुछ सालों में ये सेगमेंट बदल गया है। स्कॉर्पियो ने ग्राहकों के लिए नया विकल्प दिया और पिछले दो साल में हमने इस सेगमेंट में कई नए एसयूवी की चर्चा सुन ली है। सभी कंपनी सस्ती एसयूवी के इलाके में पैर जमाने में लगी हुई हैं वहीं टाटा मोटर्स ने इस इलाक़े में ज़्यादा कुछ किया नहीं। नतीजा ये रहा कि एक वक्त में अपने रौबीले रंग-रूप की वजह से पसंद की जाने वाली सफ़ारी पुरानी हो गई। जिस नए अवतार को स्टॉर्म के तौर पर उतारा गया है वो काफ़ी दिनों से तैयार हो रही थी लेकिन ना जाने क्या वजह रही कि टाटा मोटर्स ने इतनी देरी की। जिसका असर ज़रूर पड़ेगा इसकी बिक्री पर क्योंकि इस बीच कई सुपरहिट प्रोडक्ट इस सेगमेंट में आ चुके हैं। एक तरफ़ रिनॉ की डस्टर है तो दूसरी ओर महिंद्रा की एक्सयूवी है। ऐसे में टाटा  कैसे वापसी कर पाएगी, ये सवाल तो है। क्योंकि इसकी क़ीमत भी थोड़ी ज़्यादा ज़रूर है फ़िलहाल। जिसकी क़ीमत शुरू हो रही है 9 लाख 95 हज़ार रु से। वैसे ये बात और है कि पुरानी सफ़ारी भी बाज़ार में बरकरार रहेगी।

तो एक हफ़्ते में छह लौंच के बाद भी कहानी ख़त्म नहीं हुई है। कई और आ सकते हैं, और जो नए नहीं हैं उनके भी इश्तेहार अख़बारों में दिखेंगे ही, डिस्काउंट ऑफ़र के साथ।

((पिछले हफ़्ते लिखी थी..))

October 24, 2012

बस का रस !!


बदलती हवा, सुबह शाम में गुनगुनी हवा में छुप कर चुपके से आने वाला ठंडा झोंका। धूप का पीला होता रंग और छोटे होते दिन। जब तापमान और रौशनी मन को समय और भूगोल से कहीं दूर और अलग ले जाता है। ये मौसम, साल का वो वक्त है, जब मुझे एक गाड़ी सबसे ज़्यादा याद आती है। जो कोई कार या बाइक नहीं एक बस है। कोई आम बस नहीं, ख़ास। जो दशहरे में मुझे गांव ले जाती थी। जिस त्यौहार और गांव के मेले का साल भर इंतज़ार होता था बचपन में। उस समय सिर्फ़ बस ही ज़रिया थी, पटना से मधुबनी को जोड़ने के लिए। राज्या ट्रांसपोर्ट की बसें और प्राइवेट। जर्जर हालत में चलने वाली सरकारी बसें जिन पर लिखे क्रैक सेवा को कभी समझ नहीं पाया था, लेकिन तब लगता था कि बसें टूटी-फूटी-क्रैक हालत में होती थीं इसलिए उनका नाम ऐसा है। उनपर सफ़र बेरस लगता था। जो बेरंगे बस स्टैंड से निकलती और पहुंचती थीं। जाने का असल रस आता था उस बस में जिसे आज आपके साथ बांट रहा हूं। पटना के हार्डिंग पार्क से निकलने वाली ये बसें एक ख़ास रंग के कॉंबिनेशन में आती थीं। तीन पट्टियां ख़ास तौर पर बस के चारो ओर लिपटी होती थी। लाल और भूरे रंग को मिलाकर बना ईंट का रंग और गाढ़ा ग्रे, जिसमें एक नीलापन था और नीला, जो आसमानी से लेकर गाढ़े नीले तक जाता था, हालांकि तीसरे रंग के बारे में बहुत पक्का नहीं हूं। क्योंकि दशक से ज़्यादा हो गया इन बसों को उस रंग-रूप में देखे हुए। जिनपर लिखा होता था तिरुपति ट्रैभल्स और सामने लिखा होता था शाही तिरुपति। इन पर सीट मिलना आपकी क़िस्मत और जुझारुपन पर निर्भर करता था। और पहियों पर चढ़कर, खिड़की के रास्ते रुमाल या तौलिया रखकर, सीट लूटने का कर्मकांड सफल हो जाता था तो फिर ज़िंदगी बदल जाती थी। अचानक ब्लैक एंड व्हाइट से कलर टीवी की तरह। बस के बाहर दुश्मन दिखने वाले लोग अब इंसान लगने लगते थे, सहयात्री हो जाते थे। बस का कंडक्टर अपने ही परिवार का हिस्सा लगने लगता था। नज़रें गड़ जाती थीं ड्राइवर वाले केबिन में गतिविधियों पर। ड्राइवर की बारीक समीक्षा के साथ। देखने में ही धाकड़। आजकल के बस ड्राइवरों से कहीं ज़्यादा संभ्रांत। बुलंद बनावट और चकाचक सफ़ेद कलफ़ वाले धोती-कुर्ता में। कुर्ते की बांह में चुन्नट किया हुआ। उसकी हर मूवमेंट पर लगता था कि अब बस चलेगी। और मैं चौकन्ना होकर खिड़की से अपने पिताजी को काउंटडाउन देता रहता था। जिनकी आदत थी कि बस या ट्रेन में आख़िर वक्त तक नहीं चढ़ने की। ये ड्राइवर कम बोलते थे और इशारों में कंडक्टर के सवाल जवाब करते थे। ऐसे में ये समझना मुश्किल था कि बस कब चलेगी। कई बार के फॉल्स अलार्म के बाद बस चलना आमतौर पर तब तय होता था, जब ड्राइवर ने कुर्ते की बांह समेट कर मुंह में एक पान दबा ली होती थी। और फिर सफ़र की होती थी शुरूआत। इसके बाद क्या होता था ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि आपका भी कोई ऐसा सफ़र होगा, जो ऐसे ही आपको बार बार याद आता होगा। वैसी ही उत्सुकता, आश्चर्य और ख़ुशी का पैकेट लाता होगा। रास्ते की मुश्किलें और हिचकोले, कभी ना भूलने वाले मंज़र और सफ़र में मिले अच्छे इंसान। आपको भी याद होगा। पता नहीं कि वो बसें आजकल चल भी रही हैं या नहीं, लेकिन मैं आज भी उसी सफ़र पर हूं।

August 07, 2012

Small SUVs

चिढ़ हो गई थी मुझे एसयूवी से । यानि स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेह्किल से। अरे हर सड़क हर मोड़ पर नई नई एसयूवी। किसी में टेम्परोरी नंबर प्लेट, किसी में प्लेट भी नहीं सिर्फ़ पूजा के टीके । किसी की सीट का प्लास्टिक भी नहीं हटा था। साफ़ पता चल रहा था कि हफ़्ता दस दिन पहले ख़रीदी गई थीं। कोई हरियाणा, कोई यूपी और कोई दिल्ली की, और सबकी मंज़िल पहाड़। उत्तराखंड के पहाड़ों की बात मैं कर रहा हूं, जहां कि पतली सड़कों पर इतनी नई एसयूवी देखी कि लग रहा था कि अब बहुत जल्द भारत में ऐसा वक्त आ जाएगा कि सबके पास एक वोटरआईडी कार्ड होगा और एक एसयूवी होगी। पूरी जनता लगता है एसयूवी ही ख़रीदना चाहती है। और बहुत ग़लत नहीं है ये बात। कमसे कम कार कंपनी तो यही सोच रही हैं, ख़ासकर छोटी एसयूवी वाले सेगमेंट में। इसीलिए कंपनियां एसयूवी की फ़सल पकाने में लगी हैं। देखते हैं कि किसकी फ़सल सबले उपजाऊ होती है। वैसे पहले रोपने के हिसाब से देखें यहां सबसे पहले फ़सल लगाई है, रिनॉ ने। अपनी डस्टर के साथ। आने से पहले ही इस गाड़ी ने काफ़ी दिलचस्पी जगाई हुई थी। भारत में गाड़ियों के बाज़ार में छोटी कारों का राज रहा है, कंपनियों उसी पर दांव खेला है, लेकिन एसयूवी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया था। छोटी एसयूवी, और इसी सेगमेंट में हम आने वाले वक्त में सबसे ज़्यादा ऐक्शन देखने वाले हैं।
रिनॉ, अगर आपको याद हो तो वही फ़्रेंच कार कंपनी है जो महिंद्रा के साथ मिलकर लाई थी, लोगन। दोनों की दोस्ती टूटी और अब वो ब्रांड रिनॉ ने महिंद्रा को ही दे दिया, जो लोगन से वेरिटो हो गई । इस तलाक को इतना वक़्त गुज़र चुका है लेकिन अभी तक रिनॉ उस लोगन को भूल नहीं पाई है। जिसमें एक वजह ये भी कि कंपनी के ख़ुद के लाए किसी प्रोडक्ट ने अब तक कुछ कमाल नहीं किया है। फ़्लूएंस, कोलियोस और  पल्स वो गाड़ियां जो बाज़ार में हैं तो लेकिन कुल मिलाकर बिक्री से पल्स ग़़ायब है। और अब रिनॉ अपने ख़ून में रवानगी बढ़ाने के लिए लाई है डस्टर। 



इस एसयूवी का एक पेट्रोल इंजिन विकल्प है और डीज़ल इंजिन के साथ दो विकल्प हैं। कंपनी ने पेट्रोल डस्टर की एक्स शोरूम क़ीमत सात लाख 19 हज़ार क्या रखी ग्राहकों में खलबली सी मच गई। अचानक सबको लगने लगा कि एक एसयूवी तो मैं ले ही लूंगा। कंपनी के शोरूम पर गाड़ी टेस्ट ड्राइव के लिए लोगों की भीड़ लग गई। तो अभी की प्रतिक्रिया बता रही है कि गाड़ी रिनॉ के लिए हिट है । कंपनी को उम्मीद है कि छह महीने में वो हो सकता है 20-25 हज़ार डस्टर बेच लेगी। हो सकता है कि ये गाड़ी कंपनी को पहली बार भारत में टिकने के लिए एक ठोस ज़मीन दे। लेकिन कहानी सिर्फ़ इतनी नहीं है। कौंपैक्ट या छोटी एसयूवी वाला सेगमेंट केवल रिनॉ ने थोड़ी ही ना पढ़ा है, मतलब बाकी कंपनियां भी तो लगी हैं लाइन में। 
आपको बता दें कि भले ही डस्टर को शुरूआती फ़ायदा मिले लेकिन आगे का रास्ता बहुत चुनौती वाला है। फ़ोर्ड की ईकोस्पोर्ट तो है ही । जो एक छोटे पेट्रोल इंजिन के साथ पेश की गई एसयूवी थी, ऑटो एक्स्पो में । जिसमें, जैसा कि वक्त का तकाज़ा है, डीज़ल इंजिन लगा कर फ़ोर्ड उतारेगी। क़ीमत का रेंज 7 से 9 लाख ही रहेगा। वैसे मारुति की एक्सए आल्फ़ा भी इसी सेगमेंट के लिए सोची गई है। लेकिन सोच प्रोडक्ट में कब बदलती है बाद में पचा चलेगा। 
लेकिन पुराने प्लेयर से भी चुनौती तो आएगी ही। टाटा मोटर्स ने ना जाने कब से वादा कर रखा है सफ़ारी स्टॉर्म का, जो कभी भी लौंच हो सकती है। अब ख़बर ये है कि कंपनी पुरानी सफ़ारी को सस्ती करके रख सकती है। यानि 7-9 लाख रु में। साथ में महिंद्रा की मिनी ज़ाइलो भी लगभग इसी इलाक़े में आएगी, भले ही तकनीकी तौर पर एसयूवी ना हो । इन सब गाड़ियों का इंतज़ार बहुत से एसयूवी प्रेमी कर रहे हैं, और मैं भी कर रहा हूं।
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July 31, 2012

।।। युगे-युगे ।।।

तो बहुत दिनों के बाद मौक़ा लगा मुझे सौ सीसी की बाइक चलाने का। आमतौर पर सुपरबाइक के ग्लैमर और रोमांच में हम करीने से इन मोटरसाइकिलों को अपनी सोच के कोने में रख देते हैं। ऐसी बात नहीं कि ये नहीं मालूम हो कि भारतीय मोटरसाइकिल बाज़ार के ब्रेड एंड बटर यही कहे जाते हैं। पता है। लेकिन फिर भी ये लिस्ट में निचले स्थानों पर रहते हैं। जिसके पीछे एक ख़ास वजह है इन मोटरसाइकिलों का नयापन या कहूं कि नएपन की कमी। दरअसल इस सेगमेंट में सालों से एक ही कंपनी ने क़ब्ज़ा कर रखा है ( हम हीरो के अलावा और किसकी बात कर सकते हैं) और वो भी अपने सालों पुराने प्रोडक्ट के साथ। हो भी क्यों ना, ग्राहकों को कोई परेशानी नहीं है तो फिर उनमें बदलाव क्या करना। और इसी वजह से हम हर साल हीरो की बाइक्स के नए ग्राफ़िक्स के साथ नए वर्ज़न देखते हैं जो मेकैनिकली लगभग वैसी ही होती है जो पिछले साल थी। तो ऐसे कम बदलावों के साथ नई सौ सीसी या एंट्री मोटरसाइकिलों को चलाने का बहाना नहीं मिल पाता। वैसे हाल फ़िलहाल में बजाज ने इस सेगमेंट में थोड़ी पकड़ बनाई अपनी डिस्कवर 100 के साथ। इस सेगमेंट को देखें तो समझ में आ जाएगा कि देसी ग्राहकों को क्या चाहिए। वो है बहुत ही सिंपल किफ़ायत और भरोसा। और इसी वादे के साथ एक नई एंट्री हुई है एंट्री सेगमेंट में। ये है हौंडा नई ड्रीम युगा। जो दरअसल 100 सीसी नहीं बल्कि 110 सीसी की है लेकिन हां बात तो मैं उसी एंट्री सेगमेंट का कर रहा हूं। एक तो बिल्कुल नई सवारी ऊपर से हौंडा के लिए इतनी अहम क्योंकि कंपनी अब भारत में हीरो को पछाड़ कर नंबर एक बनना चाहती है। इसीलिए एक सस्ती, किफ़ायती और ठोस मोटरसाइकिल लाने का प्लान बनाया हौंडा ने। जिसमें बहुत हद तक सफल भी हुई है। सेगमेंट के हिसाब से सस्ती ही कही जाएगी जहां पर साढ़े 44 से साढ़े 46 हज़ार में मौजूद है नई युगा।
इसके अलावा इस मोटरसाइकिल के 110 सीसी के इंजिन से कंपनी का दावा है कि माइलेज भी 72 किमी प्रतिलीटर का आएगा। ख़ैर चलाने पर मुझे ये अच्छी सवारी लगी। वो जिसका संतुलन भी ठीक था और इंजिन भी इसका सुलझा-स्मूद था। हालांकि किसी सुपरबाइक की तरह मैं नहीं बात कर रहा हूं, लेकिन इस सेगमेंट की मोटरसाइकिलों से जैसी उम्मीद की जाती है, उसमें ये खरी उतरी मेरे हिसाब से । हैंडलिंग भी मुझे संतुलित लगी, जो आड़े-तिरझे रास्तों पर आराम से भाग रही थी। कंपनी का ध्यान इसे ठोस बनाने में भी लगा था, जिससे की कस्बाई इलाक़ों में अगर इस पर सामान भी लाद कर ले जाते हैं तो कमज़ोर ना पड़े। हां ये बात अलग है कि देखने में हो सकता है पहली नज़र में थोड़े पुराने-डिज़ाइन की लगे, बोरिंग लगे। मेरे हिसाब ने इसे स्टाइल देने और डिज़ाइन करने में कुछ ज़्यादा ही सादगी और गंभीरता से काम लिया है, क्योंकि भले ही इस सेगमेंट में लोगों को पैसा वसूल सवारी की दरकार होती है, लेकिन यहां भी थोड़े बहुत स्टाइल की मांग तो हो ही गई है। ख़ैर इसका लुक हो सकता है बेमानी हो जाए अगर लंबे वक्त तक ग्राहकों को ड्रीमयुगा तसल्ली दे। कंपनी को बस करना है कि इस मोटरसाइकिल के साथ भी वैसी ही मानसिक शांति का इंतज़ाम कर दे ग्राहकों के लिए जो हीरो की ख़ूबी रही है। जिसके लिए सस्ते रखरखाव के साथ साथ देश के कोने कोने में नेटवर्क और अच्छी आफ़्टर सेल्स सर्विस ज़रूरी है

July 21, 2012

छोटी Monster

वैसे गर्मी तो ऐसी है कि हिम्मत नहीं हो रही थी, लेकिन इस मोटरसाइकिल को चलाने के लिए इस गर्मी को झेलने में भी मुझे दो बार सोचना नहीं पड़ा। डुकाटी मॉन्सटर एक ऐसी मोटरसाइकिल है जिसने हमेशा से मुझे आकर्षित किया है। और इसी मोटरसाइकिल को चलाने का इंतज़ार मैं लंबे वक्त से कर रहा था। जनवरी में ही इस नई मॉन्सटर के भारत में एंट्री का ऐलान हो चुका था लेकिन इसे चलाने का मौक़ा नहीं बन पा रहा था। मलेशिया के रेसट्रैक पर इसे राइड करने का मौक़ा मैंने गंवा दिया था, जो बात लंबे वक्त से मुझे चुभ रही थी। ख़ैर मैंने काफ़ी धीरज से इस मोटरसाइकिल का इंतज़ार किया, और मौक़ा मिलते ही लपक लिया। दिल्ली से सटे नौएडा के एक्सप्रेसवे पर सूरज उगने से पहले ही पहुंच गया। लोग भी कम थे, चलाने में आसानी तो थी ही। लेकिन साथ में ये भी बुद्धि लगाई कि सूरज अपने पूरे शबाब पर पहुंचे उससे पहले इसकी राइड ख़त्म कर ली जाए। ये मत सोचिए कि ए सी के लत में जीने वाला इंसान हूं, दरअसल मोटरसाइकिलों को चलाने वाले जैकेट, हेलमेट और ग्लव्स हिंदुस्तानी मौसम के हिसाब से नहीं तैयार होते हैं इसलिए इन्हें पहन कर मोटरसाइकिल चलाना एक बड़ी चुनौती होती है। और अगर दुपहरी में यही लाव-लश्कर के साथ मोटरसाइकिल चलाता हूं तो मज़ा कम सज़ा ज़्यादा हो जाती है। वैसे आपको बता दूं कि सुबह सुबह सूरज निकलने से पहले किसी भी राइड पर निकलिए उसका मज़ा अलग ही होता है। और उम्मीद के मुताबिक ही, बल्कि उससे ज़्यादा ही मज़ा दिया मॉन्सटर की सवारी ने। इस मोटरसाइकिल के अलग वर्ज़न को मैंने पहले भी चलाया था लेकिन ये नई सवारी है। पुराने दो मोटरसाइकिलों को एक में मिला कर इसे तैयार किया गया है। सबसे छोटी डुकाटी का फ्रेम और पिछले मॉन्सटर का इंजिन लगा कर कंपनी ने एक नया दांव खेला है। आठ सौ सीसी का इंजिन जिसकी ताक़त 86 बीएचपी की है।

ये ताक़त ना सिर्फ़ काफ़ी लगी बल्कि रफ़्तार पकड़ने में वक्त भी नहीं लगाती । बड़ी मज़ेदारी लगी ये। और मैं कोई अकेला नहीं था, इस लाल चमचमाती मोटरसाइकिल को जिसने देखा वो मुस्कुराया। और हां किसी ने ये नहीं पूछा कि माइलेज क्या देती है...ये पूछा कि टॉप स्पीड कितनी है...

दरअसल विकसित देशों की क्या हालत है, उनकी अर्थव्यवस्था की क्या दुर्दशा है ये हमें पता ही है। ऐसे में सभी कंपनियां विकासशील देशों के बाज़ार में पकड़ बनाना चाहती हैं। इसी कोशिश का नतीजा है मॉन्सटर 795, जिसे तैयार किया गया है ख़ासतौर पर भारत और एशिया के उभरते मोटरसाइकिल बाज़ारों के लिए। डुकाटी एक ऐसी मोटरसाइकिल कंपनी रही है जो अपनी मोटरसाइकिलों के साथ साथ अपनी एक ख़ास ब्रांड के लिए जानी जाती है। एक प्रीमियम मोटरसाइकिल के तौर पर, जो आम बाइकप्रेमियों से लेकर हॉलीवुडिया एक्टरों की पसंद रही है। और इसी वजह से भारत में जब ये आई थी तो क़ीमत पंद्रह से पचास लाख रु के बीच थी। जीहां मोटरसाइकिलों की क़ीमत 50 लाख रु तक । लेकिन अब कंपनी को समझ में आ चुका है कि भारतीय ग्राहक केवल ब्रांड के नाम पर पटने वाले नहीं हैं। और ये डुकाटी की बिक्री से भी साफ़ था । अब कंपनी ने अपनी मोटरसाइकिलों के दाम कम भी किए हैं और मॉन्सटर 795 के साथ तो वो अलग ही खेल कर चुकी है। 6 लाख रु की एक्स शोरूम क़ीमत के साथ इसने ज़ोरदार चुनौती दी है। आप सोच सकते हैं कि ये क़ीमत ज़्यादा है लेकिन आपको बता दें कि केवल महेंद्र सिंह धोनी ही ऐसी बाइक नहीं ख़रीदते, इस क़ीमत पर मोटरसाइकिल ख़रीदने वालों की कमी नहीं। कंपनी ख़ुश है कि सवा सौ मॉनस्टर मोटरसाइकिलों की बुकिंग हो चुकी है और भविष्य उन्हें उज्जवल लग रहा है।




June 15, 2012

Options = Confusion


विकल्प जितने ज़्यादा होंगे कन्फ़्यूज़न उतना ज़्यादा होगा...और हो भी रहा है लोगों में। गाड़ियों के जितने विकल्प बढ़ते जा रहे हैं वहां पर कन्फ़्यूज़न बढ़ता जा रहा है। ग्राहकों के दिमाग़ में क्या चल रहा है ये मैं किसी सर्वे का नतीजा नहीं बता रहा हूं। ये मैं बता रहा हूं उन सवालों के बाद जिनसे रोज़ मेरा सामना होता है। कौन सी कार कौन सा इंजिन और कौन सा वेरिएंट। और इन तीन सवालों के अनगिनत जवाब हो सकते हैं। फ़ैसला लेना वाकई पहले से बहुत टेढ़ा काम हो चुका है। एक तो हर सेगमेंट में अनगिनत प्रोडक्ट हो चुके हैं और ऊपर से चुनाव के लिए क्राइटेरिया भी बहुत कौंप्लेक्स हो चुके हैं। पहले वैल्यू का मतलब सिर्फ़ पैसा वसूल था, जिसमें माइलेज से लेकर आफ़्टर सेल्स और मेंटेनेंस तक का दायरा आता था, अब ये पैमाना अगले लेवल पर जा चुका है। वैल्यू के तमाम माएने दिखाई दे रहे हैं। हाल के वक्त में देखें कुछ प्रोडक्ट देखें तो बात समझ में आएगी।

एक वक्त था जब कन्फ़्यूज़न नहीं था...वैल्यू का मतलब सिर्फ़ पैसा वसूल था। अब वैल्यू के तमाम माएने दिखाई दे रहे हैं।


नैनो जब आई थी तो उसके लिए लॉट्री निकली थी, लेकिन उसके बाद बिक्री के आंकड़ें ऐसे औंधे मुंह गिरे ये हम सब जानते हैं। लेकिन इसे समझना किसी के लिए भी मुश्किल है, कंपनी के लिए भी। अब नई नैनो की बिक्री थोड़ी बढ़ी है लेकिन एक वक्त ऐसा था जब रतन टाटा के सपना टूटा हुआ मान लिया गया था। कुछ लोग इस असुरक्षित कार बता रहे थे, जहां हर दिन कहीं ना कहीं किसी ना किसी कार में आग लगती है फिर 5-6 नैनो में लगी आग इस कार की बिक्री को तहस नहस नहीं कर सकती। ग्राहकों ने इस कार में वैल्यू देखना छोड़ दिया था। और ये वो कार है जो सबसे सस्ती औऱ ज़्यादा माइलेज देनी पेट्रोल कार थी। यही नहीं टाटा गाड़ियों का रखरखाव भी ज़्यादा ख़र्चीला नहीं।
ठीक उल्टा देखा हमने एक ऐसी गाड़ी के मामले में जो सस्ती नहीं थी, छोटी नहीं थी, और किफ़ायती भी नहीं। महिंद्रा की XUV 500, एक ऐसी गाड़ी जिसकी शुरूआती क़ीमत ही 10 लाख 80 हज़ार रखी गई थी। और आज की हालत ये है कि एक्सयूवी लॉट्री से मिल रही है। यानि सवा लाख की नैनो पर लॉट्री नहीं चला, एक्सयूवी पर चल गया।
वहीं तीसरी गाड़ी एर्टिगा का ज़िक्र भी ज़रूरी है। लौंच होते ही चारों ओर से बात आने लगी काफ़ी सस्ता लौंच है...और जिसे सस्ता बताया जा रहा था वो क़ीमत 5 लाख 90 हज़ार से शुरू हो रही थी। ऐसा नहीं कि ये गाड़ी इनोवा जैसी बड़ी या ज़ाइलो जैसे फ़ीचर्स से भरी हो। सात लोगों के बैठने के लिए काफ़ी बेसिक सा इंतज़ाम है। और इन्हीं सीमित फ़ीचर्स के साथ एर्टिगा ने आते ही मारुति को ख़ुश कर दिया, ग्राहकों को खींचकर। सिर्फ़ 5 दिनों में ही 10 हज़ार एर्टिगा बुक हो गई। ग्राहकों ने इसमें ऐसी सवारी देखी जो बड़े परिवार, छोटे ऑफिसों के लिए फिट गाड़ी कही जा सकती है और उन्होंने इसे बुक किया। जिसे परखने के लिए ज़ाहिर सी बात है कि केवल माइलेज और क़ीमत को ध्यान में नहीं रखा गया।
दरअसल अब जितनी गाड़ियां आती जा रही हैं ग्राहक पहले से परिपक्व होते जा रहे हैं, जिसमें किसी एक गाड़ी को देखने के लिए उनका चश्मा पहले से ज़्यादा पैना हो गया है, वृहत हो गया है। किसी भी कार के सिर्फ़ एक या दो पहलू नहीं देखते। इन सभी गाड़ियों को देखकर सिर्फ़ यही बात याद आती है कि जिस नज़रिए से भारतीय ग्राहकों को अब तक देखा जाता रहा है , वो पुराना पड़ गया है। अब भारतीय ग्राहक नई गाड़ी देखकर सिर्फ़ ये नहीं पूछते हैं कि- कितना देती है ?

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June 08, 2012

इसे कहेंगे Petro-Guilt :)

थोड़ा अपराध बोध हो रहा है। जिस बारे में आज आपसे अपने विचार बांटने की सोच रहा हूं वो आज के समय में थोड़ी अटपटी बात है। थोड़ी अव्यवहारिक भी। लेकिन जीवन में अव्यवहारिक चीज़ें ही कई बार बहुत रोमांचक भी होती हैं। जैसा कि फ़ॉर्मूला वन ट्रैक पर रेस कार ड्राइव करना है। इस जानकारी के साथ कि सरकार ने पेट्रोल की क़ीमतों में प्रतिलीटर साढ़े सात रु की बढ़ोत्तरी कर दी है तब मैं मोटरस्पोर्ट की कैसे बात कर सकता हूं। सरकार ने जब डीज़ल और गैस पर से सब्सिडी ख़त्म करने के लिए संकेत दे दिए हैं तब मैं कैसे माइलेज की जगह रफ़्तार और टॉप स्पीड की बात कर सकता हूं। लेकिन इस अपराध बोध के साथ भी लग ज़रूर रहा है कि ये अनुभव आपके साथ बांटूं। एक पेट्रोल पर भागने वाली रेस कार चलाने का। फ़ॉर्मूला वन ट्रैक पर ड्राइव का। वो ट्रैक जहां पर दुनिया की सबसे तेज़ कारें भागती हैं। जहां पर हम अपने सामने साढ़े तीन सौ किमी प्रतिघंटे की रफ़्तार में जाती कार को देख सकते हैं । जिसके बाद ड्राइवर की काबिलियत, हिम्मत और टेक्नॉलजी की तारीफ़ करते हुए हफ़्ते गुज़ार सकते हैं। ऐसे ट्रैक पर अगर गाड़ी भगाने का मौक़ा मिले तो कैसा रहे ? मैं बताऊं...बहुत अच्छा रहे। ऐसा कोई भी मौक़ा मिले तो तपाक से हां कर देनी चाहिए, सोच तो यही थी लेकिन जीवन इतना सरल नहीं इसीलिए काम के सिलसिले में मुझे एक-दो न्यौतों को मना करना पड़ा। ख़ैर मौक़ा बना और मैं दिल्ली की चंडाल गर्मी की ठीकठाक गर्म सुबह पहुंच गया बुद्धा इंटरनैशनल सर्किट पर। और मुझे इस ट्रैक पर चलानी थी पोलो कप कार। दरअसल फ़ोक्सवागन जेके टायर के साथ मिल कर एक रेसिंग सीरीज़ भारत में लाई है। इसे वन मेक रेस भी कह सकते हैं, जिसमें हर ड्राइवर एक ही गाड़ी चलाता है, यानि एक जैसी। दरअसल इस तरह की रेसिंग सीरीज़ में गाड़ियां आयोजक तैयार करते हैं और ड्राइवर को सिर्फ़ रेस करना होता है। इससे एक तरह से ड्राइवर की असल काबिलियत भी पता लगती है क्योंकि सभी ड्राइवर एक ही इंजिन, ताक़त और बनावट वाली कार दौड़ाता है। तो इस साल इस ख़ास ड्राइव का मक़सद ये था कि फोक्सवागन ने पोलो कप में दौड़ाने वाली कार को बदला है, पिछले दो साल जो डीज़ल पोलो दौड़ती थी वो अब बदल कर पेट्रोल हो गई है। लगभग सवा सौ हॉर्सपावर वाले डीज़ल इंजिन को बदल कर लगभग 180 हॉर्सपावर वाले पेट्रोल इंजिन में।



पेट्रोल की क़ीमतों में प्रतिलीटर साढ़े सात रु की बढ़ोत्तरी के बाद मोटरस्पोर्ट की बात कैसे हो। डीज़ल और गैस सब्सिडी ख़त्म करने के संकेत दे हैं तब माइलेज की जगह रफ़्तार और टॉप स्पीड की बात कैसे हो !!
ख़ैर इसमें रेस करने के लिए पहले तो ड्राइवर को काबिलियत दिखानी होती है और फिर 7 से 14 लाख रु सालाना फ़ीस देनी होती है। इसी के टेस्ट ड्राइव का मौक़ा था और हमारी बारी आते आते सूरज ने मूड और उग्र कर लिया था। और रेसिंग कारों में एसी तो होती नहीं और ऊपर से वीराने में बने रेसट्रैक पर गर्मी का आलम तो कुछ अलग ही होता है लेकिन चलाने का मज़ा ऐसा आता गया कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था मैं। दरअसल रेसट्रैक पर ड्राइव करने का सबसे पहला मतलब ये है कि आप अपनी और अपनी गाड़ी की सीमा जान सकते हैं। आप ज़्यादा से ज़्यादा किस रफ़्तार में जा सकते हैं, गाड़ी को तेज़ रफ़्तार में कैसे मोड़ सकते हैं और कम से कम समय में ट्रैक का चक्कर काट सकते हैं। और ये भावना वाकई चस्के वाली होती है क्योंकि रेसट्रैक सीधे तो होते नहीं, तुरत-फुरत तीखे मोड़ होते हैं और ऐसे में गाड़ी की रफ़्तार बनाए रखना बहुत चुनौती का काम होता है। कई मोड़ ऐसे होते हैं जहां पहिए ज़मीन छोड़ने लगते हैं और संभालना काफ़ी मुश्किल होता है। कुल मिलाकर कहें तो हमारे ड्राइविंग,संतुलन और काबिलियत को पूरा टेस्ट कर लेते हैं रेस ट्रैक। और ऐसे ट्रैक पर चलाते वक्त मुझे ये ही महसूस हो रहा था कि देश के हर शहर के बाहर एक ना एक छोटा-बड़ा रेसट्रैक होना ही चाहिए। जहां पर जाकर हम आप अपनी ड्राइविंग को सुधार सकें और वो ड्राइवर जो शहरों की सड़कों पर लोगों के बीच ख़ुद को माइकल शूमाकर साबित करने की कोशिश करते रहते हैं, उनकी ड्राइविंग की असलियत भी तो पता चले !

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June 05, 2012

Celebrities for Common Man !!!??


बॉलीवुड का प्रेम कहें, बॉलीवुड की ताक़त पता नहीं लेकिन भारत में इससे बेहतर उपाय नहीं हैं लोगों से जुड़ने के लिए लगता है। तमाम न्यूज़ चैनल के तमाम प्रड्यूसरों के बीच अचानक रोना पीटना मच गया कि आमिर ख़ान ने हमारा आइडिया चोरी कर लिया। अब आमिर ख़ान भले ही आंसू निकालते बहुत सहज ना लगे हों लेकिन देखने वाली बात ये भी है कि वो स्टार पावर ही था जिसकी वजह से देश के तमाम कोनों में एक साथ कन्या भ्रूण हत्या पर चर्चा हो रही थी। भले ही ये चर्चा दो दिन की ही हो। कहने का मतलब ये कि पूरे देश से एक साथ जुड़ने के लिए बॉलिवुड से बढ़िया शॉर्टकट शायद ही कोई हो। और मक़सद चाहे सामाजिक हो या बाज़ारिक। जैसे अगर किसी मोटरसाइकिल कंपनी का मक़सद हो भारत में नंबर एक बनने का तो वो क्या करे ? जीहां सही जवाब। बॉलीवुड स्टार को ब्रांड एंबैसेडर बनाएगी। वही किया भी, हौंडा मोटरसाइकिल एंड स्कूटर इंडिया लिमिटेड ने। हीरो से गठजोड़ टूटने के बाद हौंडा अपने बूते पर भारत में नंबर एक टू-व्हीलर कंपनी बनना चाहती है। जिसके लिए कंपनी ने साल 2020 तक का लक्ष्य रखा है।

 और नंबर एक बनने के लिए ज़रूरी है कि हीरो के असल गढ़ में सेंध लगाई जाए, यानि सस्ती सौ सीसी बाइक। औऱ हौंडा ने यही किया भी। यही नहीं, इस बाइक को आम ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए कंपनी ने अपनाई है जानी मानी रणनीति। बॉलीवुड। हौंडा ने अपनी नई सस्ती मोटरसाइकिल उतार दी है ड्रीम युगा के नाम से, 110 सीसी की मोटरसाइकिल जिसकी शुरूआती क़ीमत साढ़े चवालिस हज़ार रु रखी गई है। और इस मोटरसाइकिल पर बैठे प्रेस के सामने आए हौंडा के नए ब्रांड एंबैसेडर। अक्षय कुमार। अब तक हौंडा स्कूटरों में नंबर एक कंपनी रही है, मोटरसाइकिल भी थोड़े मंहगे सेगमेंट वाले रहे हैं। लेकिन अब कंपनी को ज़रूरत है आम ग्राहकों तक पहुंचने की, गांव-गांव कस्बे-कस्बे तक, जिसके लिए अक्षय कुमार को कंपनी ने चुना है।

 पूरे देश से एक साथ जुड़ने के लिए बॉलिवुड से बढ़िया शॉर्टकट शायद ही कोई हो। और मक़सद चाहे सामाजिक हो या बाज़ारिक।


वैसे दिलचस्प बात ये है कि बाकी के जापानी मोटरसाइकिल महारथी भी इसी रणनीति को अपनाते देखे गए हैं। दरअसल ऐसे में सबसे पुरानी दोस्ती रही है यामाहा और जॉन अब्राहम की। जहां यामाहा ने पहली बार जॉन को तब अपनाया जब कंपनी भारत में दो नई बाइक लाकर हंगामा करना चाह रही थी। आर 15 और एफ़ज़ी के साथ। लेकिन बाद में भी हालत सुधरी नहीं और ख़र्च बचाने के  चक्कर में यामाहा ने जॉन से किनारा कर लिया। लेकिन अब दोस्ती वापस बन चुकी है। लेकिन यहां पर चर्चा करने वाली एक और दिलचस्प बात ये है कि तीसरी जापानी महारथी सुज़ुकी ने भी यही रणनीति अपनाई है। और कंपनी की आने वाली सस्ती बाइक हायाते के ब्रांड एंबैसेडर के तौर पर ला रही है दबंग सलमान ख़ान को। जिस सेगमेंट में हायाते या ड्रीमयुगा आ रही है वहां के लिए सलमान और अक्षय किसी भी कंपनी के लिए ज़रूरी भी हैं।
हौंडा ने एक दिलचस्प आंकड़ा दिया कि कंपनी के दुनिया भर की बिक्री में से 13 फीसदी भारत से फिलहाल आती है। इसी बिक्री को कंपनी 2020 तक 30 फीसदी तक ले जाना चाहती है। साफ़ है कि भारतीय बाइक बाज़ार कितना अहम है इनके लिए।  इन कंपनियों की कोशिशें इसी बात का सबूत हैं कि भारतीय बाइक बाज़ार में अपना हिस्सा बनाने और बढ़ाने के लिए वो कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं। 

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May 30, 2012

वो दूसरे ग्रह नहीं...



कई मौक़ों पर इस बात को कहते हुए अलग अलग तरीके की प्रतिक्रिया पाई है। कुछ वाकई आह्लादित होते हैं, कुछ के चेहरे उत्सुकता से भरते हैं और कुछ मेरी दलील में देश के प्रति अभिमान महसूस कर सहानुभूति का भाव दिखाते हैं लेकिन कभी भी बहुत विश्वसनीय नहीं बन पाता हूं मैं। वो ये कि भारत में भी इंटरनैशनल स्टैंडर्ड की सड़कें हैं। और इस पर अविश्वास के पीछे वजहें भी हैं। समझाना बहुत जटिल भी है। सड़कों में गड्ढे या गड्ढों में सड़क के यक्ष प्रश्न पूछती जिन भारतीय सड़कों ने पिछली आधी शताब्दी से भारतीयों को बातचीत के लिए एक बहुत ही ठोस और विचारोत्तेजक टॉपिक दिया है, उनके बारे में कोई भी नई जानकारी का मतलब है इस विषय पर फिर से विचार मंथन, यानि फिर से सोच-विचार। बिना वजह की मेहनत। ख़ैर फिर भी कहूंगा। भारतीय सड़कें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हैं। शहर के तौर पर दिल्ली की सड़कें तो हैं ही इंटरनैशनल क्वालिटी की, देश के ढेरों हाइवे बेहतरीन क्वलिटी के हैं। और मेरी ये बातें बहस की शक्ल तब ले लेती हैं जब जब कोई नया-बड़ा लौंच होता है, तेज़ तर्रार करोड़ों की कार या फिर दमदार सुपरबाइक। या फिर कोई दुखद हादसा होता है जिनमें सैकड़ों हॉर्सपावर की ताक़त किसी की जान लेती है। हालांकि मेरी भागीदारी की ज़रूरत नहीं होती है इस बातचीत में क्योंकि करोड़ों की कार का ऐक्सिडेंट हमेशा से एक सनसनीख़ेज़ घटना होती है, एक तो आमतौर इन महंगी गाड़ियों के मालिक बड़ी हस्ती होते हैं और दूसरे ये दुर्घटनाएं बहुत ही भयावह होती हैं, जिनकी बारीकियों इतनी होती हैं कि कई दिनों की चर्चा हो जाए। हाल में दिल्ली की एक ऐसी ही दुर्घटना हुई और वैसी ही बहस भी हुई। भारत में कहां हैं सड़क ऐसी गाड़ियों के लिए, ये विदेश थोड़े ही ना है कि ऐसी गाड़ियां यहां भगाई जाएं। और देश-ग्लानि से भरे इन दलीलों पर तो जवाब देना बनता है ना। माना कि करोड़ों की कार थी लैंबोर्गिनी जिसका ऐक्सिडेंट हुआ, परखच्चे उड़ गए। एक साइकिल वाले बूढ़े भी चपेट में आ गए। और उस कार को चलाने वाला नौजवान मारा गया। तस्वीरें टीवी स्क्रीन पर सुबह से तैरने लगीं और विश्लेषण होने लगे, ये भारत के लिए बनी कार नहीं है, यहां की सड़कें ऐसी कारों के लिए ठीक नहीं।


करोड़ों की कार का ऐक्सिडेंट हमेशा से एक सनसनीख़ेज़ घटना होती है।

सबसे ज़्यादा सुपरकारों की वेराइटी मैंने हाल फिलहाल में दुबई में देखी थी, जहां पर सड़कें ज़बर्दस्त थीं और हाईवे तो और भी शानदार। वहां पर स्पीड लिमिट पता है कितनी थी 120 किमीप्रतिघंटे की। जो देश दमदार गाड़ियों के लिए नामी है और भारत में बदनाम है, जर्मनी। वहां के शहरों में स्पीड लिमिट 30 से लेकर 50 किमीप्रतिघंटे के बीच था। हां ऑटोबान ऐसा हाईवे है जिस पर स्पीड लिमिट नहीं है लेकिन वो भी लगभग आधे हिस्से में। हां लेकिन वो हाईवे भी कोई बीस-पच्चीस लेन वाला नहीं है। वैसा ही हाइवे है जैसे भारत में कई जगह दिखेंगे। टोकियो शहर के अंदर की सड़कें दिल्ली से पतली मिलेंगी । दरअसल जब से पैदा हुआ हूं भारत एक विकासशील देश ही बना हुआ है और ऐसे में विकसित देशों का एक अजीब से हौव्वा बना हुआ है विकासशीलों के ज़ेहन में, विकसित देश ना हो गए कोई अलग ग्रह ही हों। जहां पर इलेक्ट्रॉनिक सड़कें और डिजिटल गाड़ियां हों और हर सड़क पर बेशुमार रफ़्तार में गाड़ी भागती हों औऱ माहौल पूरा जादुई हो। लेकिन सच्चाई ये है कि फर्क सड़क की क्वालिटी में नहीं है, उस पर चलने वाले लोगों और चलाने वाली सरकारों में है। जहां पर एक-एक नियम को पालन किया जाता है। वहीं फेरारी और लैंबोर्गिनी 30 और 50 की स्पीड से ही उन सड़कों से गुज़रती हैं जहां पर लिमिट होता है। और जब उन्हें टॉप स्पीड चेक करनी होती है तो फिर वो रेसट्रैक पर जाते हैं। और यही फर्क है हमारे और उनके बीच। वो तेज़ रफ़्तार को पसंद करते हैं, इज़्ज़त भी और उसे कंट्रोल भी। उसके रोमांच को भी पहचानते हैं और ख़तरे को भी। लगेगी किताबी बात लेकिन विकसित देशों में आम लोगों के जान की क़ीमत हमारे यहां से ज़्यादा आंकी जाती है। इसीलिए नियम लागू किए जाते हैं, जिसकी लोग इज़्ज़त भी करते हैं, मानते भी हैं और ना मानने वाले के लिए भारी जुर्माना भी है। कुलमिलाकर ये उनके जीवन का हिस्सा है। यकीन नहीं आएगा, ओवरस्पीडिंग के लिए साइकिल का चालान होते मैंने ख़ुद देखा है जर्मनी में। जीहां एक साइकिल जो काफ़ी तेज़ जा रही थी और उसने स्पीड लिमिट पार कर ली थी।
तो इस दुनिया और उस दुनिया में फर्क बहुत महीन-बारीक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण जटिलता लिए नहीं है। अब दोनों दुनिया की गाड़ी कमोबेश एक जैसी हो गई हैं, सड़कों में इस्तेमाल होने वाला तारकोल भी एक जैसा ही लगा। दरअसल फर्क बहुत ही बेसिक है। उन्होंने कुछ नियम बनाए हैं और ये तय कर लिया है कि इस नियम का पालन होकर रहेगा। और इस छोटे से फर्क का असर हम महसूस कर सकते हैं।
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March 25, 2012

‘क्लच’रहित क़िस्सा

ज़माना था जब समझना पड़ता था, ऑटोमैटिक यानि बिना गियर वाली कार, जिसमें बस ऐक्सिलिरेटर दबाने की ज़रूरत होती है, क्लच नहीं और ये तो मानी हुई बात थी कि ऑटोमैटिक की माइलेज कम होती है।  

भारत में विंटेज कारों के शौकीनों की कमी नहीं। बल्कि उन्हीं में से कईयों को देखकर मुझे पता चला कि हमारे देश के राजा-रजवाड़ों की कैसी रईसी थी। बचपन में हिस्ट्री में दिलचस्पी नहीं थी और थोड़ा बड़ा हुआ तो लगने लगा कि डेमोक्रेसी में रजवाड़ों की हालत कितनी दयनीय होती होगी, क्या पता मूलचंद की रेडलाइट पर बगल वाली गाड़ी में कोई युवराज बैठा हो और किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ रहा। ख़ैर डेमोक्रेसी के उस भावुकता के दौर से भी निकलने में ज़्यादा देर नहीं लगी और एक दिन अचानक मुझे राजा रजवाड़ों की एक अनोखी अहमियत पता चली। और वो थी विंटेज कारें, अगर वो नहीं होते तो गाड़ियों के साथ हमारा रिश्ता बहुत अलग होता, है ना  अगर रजवाड़ों के कारिंदे शौक और जतन से कारों को संभाल कर ना रखते तो इतनी कहानियां हम तक पहुंचती ही नहीं। जैसे बहुत साल पहले एक कार देखकर मैं अचरज में पड़ गया था, 1959 में बनी शेवरले की एक कार जो ऑटोमैटिक थी। उसे देखकर मैं अचरज में पड़ गया था। ये वो ज़माना था जब समझना पड़ता था, ऑटोमैटिक यानि बिना गियर वाली कार, जिसमें बस ऐक्सिलिरेटर दबाने की ज़रूरत होती है, क्लच नहीं और ये तो मानी हुई बात थी कि ऑटोमैटिक की माइलेज कम होती है। ज़ाहिर है ऐसी कारों का तो भारत में सामाजिक बहिष्कार होना ही था। अब स्थिति बदल गईं हैं। लोग बढ़ती ट्रैफ़िक से बचने के तरीके ढूंढ रहे हैं। केवल लग्ज़री कार ग्राहक ही नहीं। कई कार कंपनियां अब छोटी कारों में भी ऑटोमैटिक वर्ज़न भी लेकर आ चुकी हैं। ह्युंडै ने इस मामले में पहले हिम्मत दिखाई थी जब आई 10 भी ऑटोमैटिक वर्ज़न में आने लगी। छोटी कारों में मारुति के पास भी शुरूआत में वैगन आर का ऑटोमैटिक वर्ज़न थे लेकिन बहुत आसानी से मिलते नहीं थे । लेकिन अब उनकी ए स्टार जैसी छोटी गाड़ियों की लगभग 5 फीसदी बिक्री ऑटोमैटिक की होती है, जो एक ठीकठाक संख्या कही जाएगी।

अमेरिका में ऑटोमैटिक वर्ज़न की व्यवहारिकता पर कभी सवाल नहीं था क्योंकि वहां तेल की भरमार रही और तेल सस्ता। और ऑटोमैटिक कार को चलाना आरामदेह तो होता ही है। आज के वक्त में तो और भी, ख़ासकर बड़े शहरों में। जहां के ट्रैफ़िक में क्लच दबाते दबाते घुटने की हड्डी साढ़े तीन साल में ही घिस जाए। इस परेशानी ने भी लोगों को ऑटोमैटिक कारों की ओर धकेलना शुरू किया है। लेकिन साथ में कार कंपनियों के तरफ़ से कई ऐसी कोशिशें हुई हैं जो कार बाज़ार में छोटे से ही सही लेकिन ऑटोमैटिक कारों के सेगमेंट को बढ़ाने में मदद दे रही हैं। जैसे ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन के टिकाऊपन पर भारतीय ग्राहकों की शंका को ख़त्म करने के लिए फ़ोर्ड ने अपनी फ़िएस्टा का ऑटोमैटिक वर्ज़न पेश किया, जिसके ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन पर कंपनी ने दस साल या ढाई लाख किमी तक का वायदा किया है, यानि दस साल तक ट्रांसमिशन मेंटेनेंस फ्री। साथ में कंपनी ने माइलेज को भी ठीक-ठाक रखा है। लगभग 17 किमी प्रतिलीटर की माइलेज वो भी ऑटोमैटिक कार में अच्छी मानी जाएगी। और इसके अलावा कंपनी ने इसकी क़ीमत भी बहुत ज़्यादा नहीं बढ़ाई। हालांकि पहले से ही नई फ़िएस्टा काफ़ी महंगी कार रखी गई थी लेकिन आमतौर पर ऑटोमैटिक कार वेरिएंट मैन्युअल से लाख से ज़्यादा मंहगा होता है लेकिन नई फ़िएस्टा में ऐसा नहीं किया कंपनी ने। 8 लाख 99 हज़ार रु से ये शुरू हुआ है। ख़ैर इस केस में ना सही लेकिन आम तौर पर सभी कार कंपनियों की तरफ़ से ऑटोमैटिक वेरिएंट पेश किए जा रहे हैं ख़ास वर्ग के ग्राहकों के लिए। साथ में कंपनियां उन्हें ज़्यादा भरोसेमंद, सस्ता और किफ़ायती बनाने की भी कोशिश कर रही हैं। जिसे देखकर लग रहा है कि आने वाले वक्त में बहुत से ग्राहक अपने बाएं पैर को आराम देने के लिए ऑटोमैटिक कारों को ख़रीदने वाले वर्ग में शामिल होते लग रहे हैं। 

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March 23, 2012

नैनो का पुनर्जन्म ?


वक्त आ गया शायद इस सवाल का, जब आम ग्राहक भी वो सवाल पूछें जो टाटा मोटर्स दरअसल बहुत लंबे वक्त से पूछ रही है। क्या अब वापसी होगी नैनो की ?  और इस सवाल के पीछे की भूमिका हमने देख ली है। मंहगाई बढ़ी है, कई स्तर पर। लोगों ने कार-ख़रीदने के फ़ैसले को या तो टाल दिया है या कैंसिल कर दिया है। कार लोन महंगे हो गए हैं, और जिस ज़रिए से भारत की सारी कारें ख़रीदी जाती हैं, अगर उन्हीं कार लोन की ये हालत हो तो फिर क्या कीजिए...और ये सब क्या कम था कि पेट्रोल की क़ीमतों में आग लग गई। और इस पृष्ठभूमि के बाद तो दो ही रास्ते दीखते हैं, या तो कार ख़रीदें ही नहीं या फिर सस्ती ख़रीदें। क़ीमत में सस्ती और रखरखाव में भी। और इस माहौल में नैनो का याद आना लाज़िमी है। ना सिर्फ़ वो एक छोटी कार है बल्कि सस्ती और किफ़ायती भी।

और ये याद इसलिए भी आएगी क्योंकि हाल में फिर से नैनो की चर्चा शुरू हो गई है। आपने भी देखा ही होगा कि कैसे टाटा मोटर्स एक बार फिर से जान फूंकने की कोशिश में लग गई है नैनो के भीतर। जिसकी एक कड़ी है नैनो का अपग्रेड जिसके भीतर दो तीन तब्दीलियां दिखेंगी। जिनमें सबसे अहम है इंजिन का प्रदर्शन। 2012 वर्ज़न वाली नैनो आई है इंजिन में बदलाव के साथ, बदलाव का मतलब आंकड़ों से है। इंजिन तो वही 623 सीसी वाला है, लेकिन 3 बीएचपी का इज़ाफ़ा ताक़त में दिखा है और साथ में माइलेज भी बढ़ी है। एआरएआई ने एक लीटर पेट्रोल में नई नैनो की माइलेज मापी है 25.4 किमी की । हां क़ीमत में फ़िलहाल कोई बदलाव नहीं दिखा है। मोटे तौर पर देखें तो बदलाव बहुत क्रांतिकारी नहीं हैं, लेकिन हां इसी बहाने हर महीने गिरती बिक्री की जगह लोगों की नज़र इसके बदलावों पर गई है। पर इससे इस कार का पुनर्जन्म हो जाएगा, मुझे नहीं लगता है।
 
(वैसे ये नैनो के आधार पर बनी कॉंसेप्ट मेगापिक्सेल की तस्वीर है)

जिस पुनर्जन्म की संभावना मैं देख रहा हूं वो होगा एक नए इंजिन की बदौलत। नैनो बहुत जल्द आ रही है नए डीज़ल इंजिन के साथ। फ़िलहाल मैं इंतज़ार कर रहा हूं ऑटो एक्स्पो का जहां हो सकता है डीज़ल नैनो दिख जाए। अभी तक की जानकारी के मुताबिक इसमें 1.1 लीटर का इंजिन लग सकता है और इसकी माइलेज काफ़ी बढ़िया हो सकती है। अब बढ़िया तो हम 30 के ऊपर के आंकड़े को ही मानेंगे। जिसके अलावा एक और ख़ास पहलू होगा नैनो डीज़ल की क़ीमत।
हाल के वक्त में पेट्रोल से किसी भी तरीके से पिंड छुड़ाने में लगे ग्राहकों के पास डीज़ल के भी कई विकल्प आ चुके हैं। जिनमें से सबसे लेटेस्ट है शेवरले बीट डीज़ल। जिसमें लगा है हज़ार सीसी या एक लीटर का डीज़ल इंजिन और क़ीमत शुरू हुई है 4 लाख 28 हज़ार रु से । इस कार ने शेवरले की बिक्री में रफ़्तार दे रखी है।वहीं नैनो अपनी क़ीमत की बदौलत एक नए तरीके के सेगमेंट को जन्म दे सकती है। और मुझे ये लग रहा है कि जो काम पेट्रोल नैनो नहीं कर पाई, वो डीज़ल नैनो करेगी। अगले साल मार्च के आसपास की ख़बर सुन रहा हूं इसके लौंच की। और हो सकता है कि एक बार फिर से ये चर्चा में रहे ये कार, और बहस शुरू हो जाए कि पैसेंजर सेगमेंट के लिए यानि आम आदमियों के लिए डीज़ल पर सरकार की सब्सिडी कितनी जायज़ है। डीज़ल कारों औऱ एसयूवी पर टैक्स लगना चाहिए वगैरह वगैरह। लेकिन सच्चाई ये भी है कि नैनो को तो इस तरह के बहस की आदत है।
( थोड़े दिन पहले लिखी थी, *Already Published)

March 19, 2012

what is the point !! republic of public transport ............


हर बहस में एक प्वाइंट ज़रूर आता है जब सारे मुद्दे फ़ेल हो जाते हैं। बारीक तकनीकी पहलू की जगह एक मोटा सा स्थूल सवाल ले लेता है। जिसका जवाब दिए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं। ऐसे ही एक सवाल से मैं फिर रूबरू हुआ। सवाल यातायात का। मोबिलिटी, आवाजाही और ट्रांसपोर्टेशन की तमाम परतों से गुज़रते वो सवाल जो भारतीय समाजशास्त्र के सरोकारों से सरकारों तक जाते हैं। और ये बहुत ही दिलचस्प लगता है ये देखना कि जिस देश में आम-लोग सबसे आम शब्द हैं, जिनके नाम की क़समें प्यार की क़समों से ज़्यादा खाई जाती हैं, वो ट्रांसपोर्टेशन के पूरे विज़न से ग़ायब हैं।

दरअसल साल-दो साल में गांव का चक्कर काटने का रूटीन पिछले कई सालों से टूटा हुआ था। इस बार मौक़ा बना तो निकल लिए। दिल्ली से पकड़ी ट्रेन दरभंगा के लिए, वहां उतर कर मधुबनी के रास्ते पिलखवाड़। दिल्ली की कनकनाती ठंड से निकल अपने गांव की नम सर्द सुबह और बेदम धूप के बीच। दिल्ली से एसी ट्रेन में बैठकर 1200 किमी दूर दरभंगा पहुंचने में जितने रुपए लगे, उतने ही लगे 30-32 किमी दूर मेरे गांव तक पहुंचने के लिए। इंप्रूवमेंट सिर्फ़ इतना था कि पिछली बार जो सफ़र मैंने तीन घंटे में तय किया था वो इस बार डेढ़ घंटे में हो गया। बीच में ललचाने के लिए नैशनल हाइवे 57 नंबर भी आया, मुज़फ़्फ़रपुर को पूर्णिया से जोड़ने वाला। सड़क की क्वालिटी एक सर्प्राइज़ एलिमेंट था। लेकिन इससे पहले कि उस रास्ते से मोह हो जाए, बीच से रास्ता बदलना था। और फिर रास्ते के नाम पर सिंगल लेन, जहां पर गाड़ियां कम और हॉर्न ज़्यादा थे। गाड़ियां अंटी पड़ी थीं, 7 सीटर 15 सीटर बनी थी, मिनी बस में 70 लोग लटके पड़े थे, खुले जीप में ड्राइवर अपना आधी तशरीफ़ बाहर लटका कर ड्राइव कर रहा था।
ये तस्वीर बहुत अलग नहीं थी, जब दिल्ली-जयपुर हाईवे क़स्बों के बीच से गुज़रता है। जहां ना सिर्फ़ क्षमता से चार गुना ज़्यादा लोग किसी भी औसत टेंपो या विक्रम में बैठे दिेखेंगे। भैंसों को ठूस कर लॉरी में ले जाने पर प्रतिबंध लग गया लेकिन लोगों को फट्टों पर बैठ लॉरी में ठुसा हुआ देख कभी अचरज भी नहीं होता। और इस तरह से ये यात्रा एक स्थान विशेष की ना होकर पूरे भारत की हो जाती है। जिसे देखने के लिए आपको मेरी तरह अपने गांव जाने की ज़रूरत नहीं। दिल्ली का बॉर्डर क्रॉस कीजिए और देखिए कैसे ऑटो और विक्रम थ्री-व्हीलर पर दर्जनों लोग अपनी जान पर खेल कर लदे रहते हैं। सामान लेकर लोग सड़क किनारे खड़े मिलेंगे, इस इंतज़ार में कि कोई उनकी भी सुध ले, 12 किमी जाने के लिए तीन सौ रु लेकर ही सही।

इतने सालों से अनगिनत गाड़ियों को जिन पैमानों पर मैंने पत्रकार के तौर पर परखा है, वो सारे पैमाने इस जगह पर जाकर फेल हो जाते हैं। स्पीड, संतुलन और सुरक्षा की बात तो लागू ही नहीं होती। इनकी जगह दूसरे सवाल ले लेते हैं, जैसे ये कि गाड़ी में कितने लोग भरे जा सकते हैं, सस्पेंशन की मज़बूती का एक ही पैमाना ये कि 15 लोगों को भरने के बाद मेरे घर से निकल कर पक्के रास्ते पर पहुंचने से पहले ये टाटा सूमो ईंट वाले रास्ते में धंस तो नहीं जाएगी, पलट तो नहीं जाएगी। इंजिन प्रदर्शन एक बेतुका जुमला हो जाता है जब ओवरलोडेड गाड़ी की रफ़्तार को ख़राब सड़क जैसे स्पीड गवर्नर ने सीमित कर रखा था। और उस माहौल में जब शरीर आड़ा-तिरछा हो रहा था, सोच सीधी हो रही थी, कि पर्सनल मोबिलिटी और पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन को लेकर हमारे देश में सोच, विज़न और बहस कितनी एकतरफ़ा है।

भारत को भविष्य का सुपरपावर माना जा रहा है। सामरिक से ज़्यादा आर्थिक पैमाने पर। देश में कई क्रांतियां आ गईं, आईटी, मोबाइल, हरित, श्वेत, बीपीओ और ना जाने क्या-क्या। सबके लिए मोबाइल से लेकर लैपटॉप तक की कोशिश हो रही है। यहां तक कि सबके लिए कार भी। यातायात के नाम पर वाकई एक आम धारणा यही हो गई है। पर्सनल गाड़ी। फिक्र तब होती है जब आम लोगों की धारणा की तरह सरकारी महकमें में भी सारी चर्चाएं पर्सनल गाड़ियों की ही सुनने को मिलती हैं। लखटकिया, किफ़ाइती, इलेक्ट्रिक कार, डीज़ल इत्यादि। क्यों नहीं पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन को लेकर एक राष्ट्रीय बहस और पहल शुरू होती है.. जिससे हर तबके का इंसान आरामदेह तरीके से अपनी मंज़िल तक जल्दी औऱ सुरक्षित पहुंचे । ऑटो बाज़ार, स्मॉल कार, महंगाई, पेट्रोल की क़ीमत से बहस बस कॉरिडोर और पब्लिक ट्रांसपोर्टकी तरफ़ क्यों नहीं जा रही है। क्या पहले ही बहुत देर नहीं हो गई है ? क्या  ट्रांसपोर्टेशन के मास्टरप्लान मेंराष्ट्रीय बहस में आम से आम हिंदुस्तानियों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। क्या इनके लिए भी रतन टाटा सपना देखेंगे। क्यों नहीं इस मुद्दे को बुनियादी तौर पर सुलझाने की कोशिश की जाए। क्यों नहीं हर हिंदुस्तानी को टाइम पर चलने वाली सुविधाजनक पब्लिक ट्रांसपोर्ट दी जाए, जिसमें थोड़ा आराम तो हो ही, सुरक्षित भी हो। जिससे कि मैं भी अपनी गाड़ी को बंद करके रख दूंऔर अगर कार नहीं ख़रीदी है तो केवल ज़रूरत के लिए ना लूं। भारत में सभी कार कंपनियों को भविष्य दीख रहा होये अच्छी बात है, लेकिन कंपनियों के  भविष्य और देश के लोगों के भविष्य के बीच अंतर समझने की ज़रूरत है। सिर्फ़ कारें कभी भी हमारा समाधान नहीं हो सकती हैं, किसी की भी नहीं हुई हैं। पहले ही इतनी देरी हो चुकी है कि ख़ामियाज़ा हम भुगत ही रहे हैं। भारत, जहां पर साल में सवा लाख लोग सड़कों पर मारे जाते हैं,    भारत जहां की आबादी घटने वाली नहीं लग रही है और सड़कों का आकार बढ़ने नहीं वाला है। चीन जहां भारत से ज़्यादा आबादी और गाड़ियां हैं वहां पर लोग कम मरते हैं,और हर साल वो संख्या घट रही हैजबकि भारत नंबर एक तो है हीये संख्या घट भी नहीं रही। घट रहा है तो सिर्फ़ वक्त।
(ये मैंने तब लिखा था जब दिल्ली की बीआरटी पर केवल बसें चल सकती थीं, अब कोर्ट के आदेश के तहत आम गाड़ियां भी उसी पर से जाएंगी... यानि ये BRT एक्सपेरिमेंट भी फ़ेल। )
*Already Published

March 10, 2012

Ladies Spl :)



घड़ी, मोबाईल और शैंपू की तरह महिलाओं के लिए ऑटोमोबील बाज़ार में अलग से ख़ास कोशिश नहीं होती। यहां पर प्रोडक्ट कुछ सौ या हज़ार के नहीं होते, लाखों के होते हैं, तो ऐसे में कम ग्राहक ऐसे होते हैं जो जेंडर स्पेसिफिक गाड़ी लें। कंपनियों की तरफ़ से, बहुत कम ऐसी कोशिशें देखने को मिली हैं जो केवल महिला ग्राहकों के लिए हो। ऐसे ही कुछ कार मॉडलों में कंपनियों की ऐसी कोशिशें देखने को मिली थीं। मारुति ने अपनी एस्टिलो में ऐसी ही कोशिश की थी, एक अजीब से रंग फ़्यूज़न पर्पल के साथ। एक तो वो रंग इक्का-दुक्का ही नज़र आता है, ऊपर से पुरूष ड्राइवर ही उसके अंदर दिखे हैं  । एक वक्त में लग्ज़री सेगमेंट में महिला ग्राहकों की बढ़ोत्तरी के रिपोर्ट आए थे लेकिन उसके पीछे भी टैक्स बचाने की कवायद ज़्यादा थी। पति लोग अपना टैक्स बचाने के लिए दूसरी कारों को पत्नियों के नाम पर ख़रीदते थे। कुल मिलाकर विदेशी बाज़ारों के तरह अभी भी भारतीय बाज़ार उस तरीके से बारीक सेगमेंट वाले नहीं हुए हैं, जहां पर महिलाओं के लिए अलग से प्रोडक्ट लाने के बारे में सोचें या फिर रिस्क लें। विदेशों में कई गाड़ियों की पहचान ऐसी है। महिलाओं की एसयूवी, महिलाओं की हैचबैक कार वगैरह। भारत में अभी ऐसा नहीं। कुछ साल पहले जब मैंने ड्राइवर की तरफ़ सन वाइज़र यानि धूप रोकने वाले पट्टे के पीछ जब मिरर लगा देखा तो चौंका था। लेकिन ये साफ़ बता रहा था कि महिलाएं अब पहले से कहीं ज़्यादा गाड़ी ड्राइव कर रही हैं और कंपनियां उनके लिए तैयार हो रही हैं। गाड़ियां अब पहले से ज़्यादा यूनिसेक्स होती जा रही हैं। ऐसे फ़ीचर्स लगाए जा रहे हैं जो महिलाओं के लिए अहमियत रखते हैं। वैसे टू-व्हीलर्स की बात थोड़ी अलग है। एक तरफ़ इन सवारियों ने महिलाओं या कहें ख़ासकर लड़कियों के ऊपर असर डाला है वहीं ये सेगमेंट भी बहुत महिला सेंट्रिक हुआ है। स्कूटी जैसी सवारियों ने महाराष्ट्र से लेकर यूपी तक की कॉलेज जाने वाली लाखों लड़कियों को एक आत्मनिर्भरता का एहसास दिया है। जो इन छोटे ऑटोमैटिक स्कूटरों की बिक्री से भी साफ़ है। इसे एक उभरता हुए सेगमेंट भी माना जा रहा है जहां नए लौंच भी हो रहे हैं जैसे यामाहा जल्द लड़कियों के लिए 'रे' ला रही है। और स्ट्रगल यहां भी है। हीरो की प्लेज़र को काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ी थी, बावजूद इसके कि वो सिर्फ़ महिलाओं को ध्यान में रख कर लाया गया प्रोडक्ट था। उसका टैगलाइन भी ऐसा ही था, व्हाई शुड ब्वायज़ हैव ऑल दि फ़न” । एक ऐसी चुनौती जो महिलाएं पुरुष ड्राइवरों को हमेशा देती हैं, एक ऐसी लड़ाई जो नई नहीं है। ये एक मार्केटिंग मंत्र भी था और एक सामाजिक स्टेटमेंट भी। उस लड़ाई के सिलसिले में जो हो महिला बनाम पुरुष। कौन बेहतर है 
आज की तारीख़ में जब कंधे से कंधा मिला कर चलना घिसा –पिटा मुहावरा हो चुका है, महिलाएं उससे कहीं आगे जा चुकी हैं, ऊपर से मेट्रोपॉलिटिन कल्चर में जब महिलाओं की ज़रा सी आलोचना से मेल शॉवनिस्ट की कैटगरी में जाने का ख़तरा होता है, तो ऐसे में कई बार मैन वर्सेज वूमन की लड़ाई दिलचस्प इलाकों में जाती है। जिनमें से एक अखाड़ा है सड़कें। ऐसी ही एक लड़ाई का प्रोग्राम संस्करण इंटरनेट पर देख रहा था जो मेरे मित्र ने तैयार करके फेसबुक पर लगाई थी। डायलोग की धींगामुश्ती चल रही थी महिला और पुरुष ड्राइवरों के बीच। चूंकि ये सब कॉलेज कैंपस के इंटरव्यू थे तो तेवर नया था, लेकिन दलीलें वही सब पुरानी। स्लो चलाती हैं, हॉर्न बजाने पर रास्ता नहीं देतीं, इनको पार्किंग नहीं आती ...वगैरह वगैरह। और ऐसे में मुझे याद आया वो इंटरव्यू जो मैंने कुछ साल पहले किया था। लेडी ड्राइवरों का ग्रुप था, जो एक महिला कार रैली में हिस्सा लेने जा रही थीं और उनका उत्साह देखने लायक था। जहां तक याद आता है सभी की ये पहली कार रैली थी, तो मोटरस्पोर्ट्स में हिस्सा लेने का एक जोश था। घर का काम छोड़ एक कांपिटिशन में ख़ुद को साबित करने का एक जज़्बा और फिर टीवी इंटरव्यू भी तो उन्हें ये यकीन सा था कि सही रास्ते निकली हैं वो। सवाल-जवाब वही रेडीमेड थे जो शॉर्टकट इंटरव्यू के कटपीस होते हैं- महिला होते हुए भी ...? घर में सपोर्ट कैसा है...? सड़क पर लोगों की प्रतिक्रिया कैसी होती है इत्यादि। बाकी कुछ ज़्यादा याद नहीं सिवाय एक बात के जो उनमें से एक ने कही थी- उनमें से एक अपनी कार में एक बोर्ड लेकर चलती थीं जिस पर बड़े अक्षरों में सॉरी लिखा हुआ था। पता नहीं क्यों सुन कर काफ़ी अजीब सा लगा। पता नहीं चल रहा था कि इस बात पर हंसा जाए या अचरज हो। सीधा रिएक्शन तो हंसने का ही था लेकिन वो सॉरी वाला पट्टा उससे कहीं आगे तक ज़ेहन में रहा। 
हर रोज़ सड़क पर एक से एक ड्राइवर मिलते हैं, एक अधेड़ उम्र के अंकल जिन्होंने ज़िंदगी स्कूटर से शुरू की तो आज अपनी हौंडा सिविक भी वैसे ही चलाते हैं, बिना इंडीकेटर दिए, किसी भी लेन में घुसा कर और अचानक चलती ट्रैफ़िक के बीच ब्रेक लगाकर रास्ता पूछ लेते हैं। वो नौजवान भी मिलते हैं जिनको उनके बाप ने लगता है कि बर्थडे गिफ़्ट के तौर पर कार का हॉर्न लगा कर दिया है और वो कार का ब्रेक लगाते ही हॉर्न बजाने लगते हैं। वो सफ़ेद हरियाणा नंबर की टैक्सियां भी मिलती हैं जो तेज़ रफ़्तार में चलती हैं, बिना इशारे के आपके आगे आ जाती हैं, कभी भी दाएं या बाएं चली जाती है बिना किसी अपराध बोध के। सारी कलाबाज़ियों के बाद इनके ड्राइवर आंखें दिखा के भी जाते हैं। लेकिन इनमें से किसी को आजतक सॉरी बोलते नहीं सुना। ऐसे में सॉरी लिखा हुआ एक पट्टा क्या सच्चाई दिखाता है। 
दरअसल गाड़ियां और ड्राइविंग दो ऐसी चीज़ हैं जिन पर पुरुषों ने शुरूआत से टाइटल सूट कर रखा है, अपना इलाका घोषित कर रखा है और महिलाएं इनमें घुसे ये उन्हें ज़्यादा पसंद आता है। और ये भाव महिलाओं में भी बहुत दिखता है, बहुत सी महिलाएं एक क्षमाप्रार्थी के भाव से सड़कों पर गाड़ी चलाती मिलती हैं। मानो थोड़ी जगह दे दो मैं निकल जाउंगी। और अगर कोई कार ग़लत चलती दिखे सड़क पर तो आमतौर पर पुरुष ड्राइवरों का रिएक्शन होता है (मेरा मतलब मेजोरिटी से है, जेनरलाइज़ेशन नहीं) -कोई मैडम चला रही होंगी। 
ये सब उस देश में जहां पर ज़्यादातक ड्राइवर सर्टीफ़ाइड बुरे ड्राइवर हैं, ना सिर्फ़ सड़कों पर मरने वाले लोगों के हिसाब से, बल्कि ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने के हिसाब से भी, जिस देश में ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना उतना ही आसान है जितना डीटीसी की टिकट कटाना है। जहां पर ड्राइविंग के टेस्ट के नाम पर गाड़ी नहीं, कलम चलाई जाती है, इंस्ट्रक्टर की जगह दलाल मिलते हैं, वहां से लाइसेंस लेने वाले हम हिंदुस्तानी पुरूष अगर महिलाओं को बुरा ड्राइवर बताते हैं तो विडंबना वाकई छोटा शब्द लगने लगता है। 
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