घड़ी, मोबाईल और शैंपू की तरह महिलाओं के लिए ऑटोमोबील बाज़ार में अलग से ख़ास कोशिश नहीं होती। यहां पर प्रोडक्ट कुछ सौ या हज़ार के नहीं होते, लाखों के होते हैं, तो ऐसे में कम ग्राहक ऐसे होते हैं जो जेंडर स्पेसिफिक गाड़ी लें। कंपनियों की तरफ़ से, बहुत कम ऐसी कोशिशें देखने को मिली हैं जो केवल महिला ग्राहकों के लिए हो। ऐसे ही कुछ कार मॉडलों में कंपनियों की ऐसी कोशिशें देखने को मिली थीं। मारुति ने अपनी एस्टिलो में ऐसी ही कोशिश की थी, एक अजीब से रंग फ़्यूज़न पर्पल के साथ। एक तो वो रंग इक्का-दुक्का ही नज़र आता है, ऊपर से पुरूष ड्राइवर ही उसके अंदर दिखे हैं । एक वक्त में लग्ज़री सेगमेंट में महिला ग्राहकों की बढ़ोत्तरी के रिपोर्ट आए थे लेकिन उसके पीछे भी टैक्स बचाने की कवायद ज़्यादा थी। पति लोग अपना टैक्स बचाने के लिए दूसरी कारों को पत्नियों के नाम पर ख़रीदते थे। कुल मिलाकर विदेशी बाज़ारों के तरह अभी भी भारतीय बाज़ार उस तरीके से बारीक सेगमेंट वाले नहीं हुए हैं, जहां पर महिलाओं के लिए अलग से प्रोडक्ट लाने के बारे में सोचें या फिर रिस्क लें। विदेशों में कई गाड़ियों की पहचान ऐसी है। महिलाओं की एसयूवी, महिलाओं की हैचबैक कार वगैरह। भारत में अभी ऐसा नहीं। कुछ साल पहले जब मैंने ड्राइवर की तरफ़ सन वाइज़र यानि धूप रोकने वाले पट्टे के पीछ जब मिरर लगा देखा तो चौंका था। लेकिन ये साफ़ बता रहा था कि महिलाएं अब पहले से कहीं ज़्यादा गाड़ी ड्राइव कर रही हैं और कंपनियां उनके लिए तैयार हो रही हैं। गाड़ियां अब पहले से ज़्यादा यूनिसेक्स होती जा रही हैं। ऐसे फ़ीचर्स लगाए जा रहे हैं जो महिलाओं के लिए अहमियत रखते हैं। वैसे टू-व्हीलर्स की बात थोड़ी अलग है। एक तरफ़ इन सवारियों ने महिलाओं या कहें ख़ासकर लड़कियों के ऊपर असर डाला है वहीं ये सेगमेंट भी बहुत महिला सेंट्रिक हुआ है। स्कूटी जैसी सवारियों ने महाराष्ट्र से लेकर यूपी तक की कॉलेज जाने वाली लाखों लड़कियों को एक आत्मनिर्भरता का एहसास दिया है। जो इन छोटे ऑटोमैटिक स्कूटरों की बिक्री से भी साफ़ है। इसे एक उभरता हुए सेगमेंट भी माना जा रहा है जहां नए लौंच भी हो रहे हैं जैसे यामाहा जल्द लड़कियों के लिए 'रे' ला रही है। और स्ट्रगल यहां भी है। हीरो की प्लेज़र को काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ी थी, बावजूद इसके कि वो सिर्फ़ महिलाओं को ध्यान में रख कर लाया गया प्रोडक्ट था। उसका टैगलाइन भी ऐसा ही था, “व्हाई शुड ब्वायज़ हैव ऑल दि फ़न” । एक ऐसी चुनौती जो महिलाएं पुरुष ड्राइवरों को हमेशा देती हैं, एक ऐसी लड़ाई जो नई नहीं है। ये एक मार्केटिंग मंत्र भी था और एक सामाजिक स्टेटमेंट भी। उस लड़ाई के सिलसिले में जो हो महिला बनाम पुरुष। कौन बेहतर है?
आज की तारीख़ में जब कंधे से कंधा मिला कर चलना घिसा –पिटा मुहावरा हो चुका है, महिलाएं उससे कहीं आगे जा चुकी हैं, ऊपर से मेट्रोपॉलिटिन कल्चर में जब महिलाओं की ज़रा सी आलोचना से मेल शॉवनिस्ट की कैटगरी में जाने का ख़तरा होता है, तो ऐसे में कई बार मैन वर्सेज वूमन की लड़ाई दिलचस्प इलाकों में जाती है। जिनमें से एक अखाड़ा है सड़कें। ऐसी ही एक लड़ाई का प्रोग्राम संस्करण इंटरनेट पर देख रहा था जो मेरे मित्र ने तैयार करके फेसबुक पर लगाई थी। डायलोग की धींगामुश्ती चल रही थी महिला और पुरुष ड्राइवरों के बीच। चूंकि ये सब कॉलेज कैंपस के इंटरव्यू थे तो तेवर नया था, लेकिन दलीलें वही सब पुरानी। स्लो चलाती हैं, हॉर्न बजाने पर रास्ता नहीं देतीं, इनको पार्किंग नहीं आती ...वगैरह वगैरह। और ऐसे में मुझे याद आया वो इंटरव्यू जो मैंने कुछ साल पहले किया था। लेडी ड्राइवरों का ग्रुप था, जो एक महिला कार रैली में हिस्सा लेने जा रही थीं और उनका उत्साह देखने लायक था। जहां तक याद आता है सभी की ये पहली कार रैली थी, तो मोटरस्पोर्ट्स में हिस्सा लेने का एक जोश था। घर का काम छोड़ एक कांपिटिशन में ख़ुद को साबित करने का एक जज़्बा और फिर टीवी इंटरव्यू भी तो उन्हें ये यकीन सा था कि सही रास्ते निकली हैं वो। सवाल-जवाब वही रेडीमेड थे जो शॉर्टकट इंटरव्यू के कटपीस होते हैं- महिला होते हुए भी ...? घर में सपोर्ट कैसा है...? सड़क पर लोगों की प्रतिक्रिया कैसी होती है इत्यादि। बाकी कुछ ज़्यादा याद नहीं सिवाय एक बात के जो उनमें से एक ने कही थी- उनमें से एक अपनी कार में एक बोर्ड लेकर चलती थीं जिस पर बड़े अक्षरों में सॉरी लिखा हुआ था। पता नहीं क्यों सुन कर काफ़ी अजीब सा लगा। पता नहीं चल रहा था कि इस बात पर हंसा जाए या अचरज हो। सीधा रिएक्शन तो हंसने का ही था लेकिन वो सॉरी वाला पट्टा उससे कहीं आगे तक ज़ेहन में रहा।
हर रोज़ सड़क पर एक से एक ड्राइवर मिलते हैं, एक अधेड़ उम्र के अंकल जिन्होंने ज़िंदगी स्कूटर से शुरू की तो आज अपनी हौंडा सिविक भी वैसे ही चलाते हैं, बिना इंडीकेटर दिए, किसी भी लेन में घुसा कर और अचानक चलती ट्रैफ़िक के बीच ब्रेक लगाकर रास्ता पूछ लेते हैं। वो नौजवान भी मिलते हैं जिनको उनके बाप ने लगता है कि बर्थडे गिफ़्ट के तौर पर कार का हॉर्न लगा कर दिया है और वो कार का ब्रेक लगाते ही हॉर्न बजाने लगते हैं। वो सफ़ेद हरियाणा नंबर की टैक्सियां भी मिलती हैं जो तेज़ रफ़्तार में चलती हैं, बिना इशारे के आपके आगे आ जाती हैं, कभी भी दाएं या बाएं चली जाती है बिना किसी अपराध बोध के। सारी कलाबाज़ियों के बाद इनके ड्राइवर आंखें दिखा के भी जाते हैं। लेकिन इनमें से किसी को आजतक सॉरी बोलते नहीं सुना। ऐसे में सॉरी लिखा हुआ एक पट्टा क्या सच्चाई दिखाता है।
दरअसल गाड़ियां और ड्राइविंग दो ऐसी चीज़ हैं जिन पर पुरुषों ने शुरूआत से टाइटल सूट कर रखा है, अपना इलाका घोषित कर रखा है और महिलाएं इनमें घुसे ये उन्हें ज़्यादा पसंद आता है। और ये भाव महिलाओं में भी बहुत दिखता है, बहुत सी महिलाएं एक क्षमाप्रार्थी के भाव से सड़कों पर गाड़ी चलाती मिलती हैं। मानो थोड़ी जगह दे दो मैं निकल जाउंगी। और अगर कोई कार ग़लत चलती दिखे सड़क पर तो आमतौर पर पुरुष ड्राइवरों का रिएक्शन होता है (मेरा मतलब मेजोरिटी से है, जेनरलाइज़ेशन नहीं) -कोई मैडम चला रही होंगी।
ये सब उस देश में जहां पर ज़्यादातक ड्राइवर सर्टीफ़ाइड बुरे ड्राइवर हैं, ना सिर्फ़ सड़कों पर मरने वाले लोगों के हिसाब से, बल्कि ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने के हिसाब से भी, जिस देश में ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना उतना ही आसान है जितना डीटीसी की टिकट कटाना है। जहां पर ड्राइविंग के टेस्ट के नाम पर गाड़ी नहीं, कलम चलाई जाती है, इंस्ट्रक्टर की जगह दलाल मिलते हैं, वहां से लाइसेंस लेने वाले हम हिंदुस्तानी पुरूष अगर महिलाओं को बुरा ड्राइवर बताते हैं तो विडंबना वाकई छोटा शब्द लगने लगता है।
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2 comments:
gud observation bt smtimes grlz too brk traffic rules...
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