हर बहस में एक प्वाइंट ज़रूर आता है जब सारे मुद्दे फ़ेल हो जाते हैं। बारीक तकनीकी पहलू की जगह एक मोटा सा स्थूल सवाल ले लेता है। जिसका जवाब दिए बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं। ऐसे ही एक सवाल से मैं फिर रूबरू हुआ। सवाल यातायात का। मोबिलिटी, आवाजाही और ट्रांसपोर्टेशन की तमाम परतों से गुज़रते वो सवाल जो भारतीय समाजशास्त्र के सरोकारों से सरकारों तक जाते हैं। और ये बहुत ही दिलचस्प लगता है ये देखना कि जिस देश में आम-लोग सबसे आम शब्द हैं, जिनके नाम की क़समें प्यार की क़समों से ज़्यादा खाई जाती हैं, वो ट्रांसपोर्टेशन के पूरे विज़न से ग़ायब हैं।
दरअसल साल-दो साल में गांव का चक्कर काटने का रूटीन पिछले कई सालों से टूटा हुआ था। इस बार मौक़ा बना तो निकल लिए। दिल्ली से पकड़ी ट्रेन दरभंगा के लिए, वहां उतर कर मधुबनी के रास्ते पिलखवाड़। दिल्ली की कनकनाती ठंड से निकल अपने गांव की नम सर्द सुबह और बेदम धूप के बीच। दिल्ली से एसी ट्रेन में बैठकर 1200 किमी दूर दरभंगा पहुंचने में जितने रुपए लगे, उतने ही लगे 30-32 किमी दूर मेरे गांव तक पहुंचने के लिए। इंप्रूवमेंट सिर्फ़ इतना था कि पिछली बार जो सफ़र मैंने तीन घंटे में तय किया था वो इस बार डेढ़ घंटे में हो गया। बीच में ललचाने के लिए नैशनल हाइवे 57 नंबर भी आया, मुज़फ़्फ़रपुर को पूर्णिया से जोड़ने वाला। सड़क की क्वालिटी एक सर्प्राइज़ एलिमेंट था। लेकिन इससे पहले कि उस रास्ते से मोह हो जाए, बीच से रास्ता बदलना था। और फिर रास्ते के नाम पर सिंगल लेन, जहां पर गाड़ियां कम और हॉर्न ज़्यादा थे। गाड़ियां अंटी पड़ी थीं, 7 सीटर 15 सीटर बनी थी, मिनी बस में 70 लोग लटके पड़े थे, खुले जीप में ड्राइवर अपना आधी तशरीफ़ बाहर लटका कर ड्राइव कर रहा था।
ये तस्वीर बहुत अलग नहीं थी, जब दिल्ली-जयपुर हाईवे क़स्बों के बीच से गुज़रता है। जहां ना सिर्फ़ क्षमता से चार गुना ज़्यादा लोग किसी भी औसत टेंपो या विक्रम में बैठे दिेखेंगे। भैंसों को ठूस कर लॉरी में ले जाने पर प्रतिबंध लग गया लेकिन लोगों को फट्टों पर बैठ लॉरी में ठुसा हुआ देख कभी अचरज भी नहीं होता। और इस तरह से ये यात्रा एक स्थान विशेष की ना होकर पूरे भारत की हो जाती है। जिसे देखने के लिए आपको मेरी तरह अपने गांव जाने की ज़रूरत नहीं। दिल्ली का बॉर्डर क्रॉस कीजिए और देखिए कैसे ऑटो और विक्रम थ्री-व्हीलर पर दर्जनों लोग अपनी जान पर खेल कर लदे रहते हैं। सामान लेकर लोग सड़क किनारे खड़े मिलेंगे, इस इंतज़ार में कि कोई उनकी भी सुध ले, 12 किमी जाने के लिए तीन सौ रु लेकर ही सही।
इतने सालों से अनगिनत गाड़ियों को जिन पैमानों पर मैंने पत्रकार के तौर पर परखा है, वो सारे पैमाने इस जगह पर जाकर फेल हो जाते हैं। स्पीड, संतुलन और सुरक्षा की बात तो लागू ही नहीं होती। इनकी जगह दूसरे सवाल ले लेते हैं, जैसे ये कि गाड़ी में कितने लोग भरे जा सकते हैं, सस्पेंशन की मज़बूती का एक ही पैमाना ये कि 15 लोगों को भरने के बाद मेरे घर से निकल कर पक्के रास्ते पर पहुंचने से पहले ये टाटा सूमो ईंट वाले रास्ते में धंस तो नहीं जाएगी, पलट तो नहीं जाएगी। इंजिन प्रदर्शन एक बेतुका जुमला हो जाता है जब ओवरलोडेड गाड़ी की रफ़्तार को ख़राब सड़क जैसे स्पीड गवर्नर ने सीमित कर रखा था। और उस माहौल में जब शरीर आड़ा-तिरछा हो रहा था, सोच सीधी हो रही थी, कि पर्सनल मोबिलिटी और पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन को लेकर हमारे देश में सोच, विज़न और बहस कितनी एकतरफ़ा है।
भारत को भविष्य का सुपरपावर माना जा रहा है। सामरिक से ज़्यादा आर्थिक पैमाने पर। देश में कई क्रांतियां आ गईं, आईटी, मोबाइल, हरित, श्वेत, बीपीओ और ना जाने क्या-क्या। सबके लिए मोबाइल से लेकर लैपटॉप तक की कोशिश हो रही है। यहां तक कि सबके लिए कार भी। यातायात के नाम पर वाकई एक आम धारणा यही हो गई है। पर्सनल गाड़ी। फिक्र तब होती है जब आम लोगों की धारणा की तरह सरकारी महकमें में भी सारी चर्चाएं पर्सनल गाड़ियों की ही सुनने को मिलती हैं। लखटकिया, किफ़ाइती, इलेक्ट्रिक कार, डीज़ल इत्यादि। क्यों नहीं पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन को लेकर एक राष्ट्रीय बहस और पहल शुरू होती है.. जिससे हर तबके का इंसान आरामदेह तरीके से अपनी मंज़िल तक जल्दी औऱ सुरक्षित पहुंचे । ऑटो बाज़ार, स्मॉल कार, महंगाई, पेट्रोल की क़ीमत से बहस बस कॉरिडोर और पब्लिक ट्रांसपोर्टकी तरफ़ क्यों नहीं जा रही है। क्या पहले ही बहुत देर नहीं हो गई है ? क्या ट्रांसपोर्टेशन के मास्टरप्लान में, राष्ट्रीय बहस में आम से आम हिंदुस्तानियों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। क्या इनके लिए भी रतन टाटा सपना देखेंगे। क्यों नहीं इस मुद्दे को बुनियादी तौर पर सुलझाने की कोशिश की जाए। क्यों नहीं हर हिंदुस्तानी को टाइम पर चलने वाली सुविधाजनक पब्लिक ट्रांसपोर्ट दी जाए, जिसमें थोड़ा आराम तो हो ही, सुरक्षित भी हो। , जिससे कि मैं भी अपनी गाड़ी को बंद करके रख दूं, और अगर कार नहीं ख़रीदी है तो केवल ज़रूरत के लिए ना लूं। भारत में सभी कार कंपनियों को भविष्य दीख रहा हो, ये अच्छी बात है, लेकिन कंपनियों के भविष्य और देश के लोगों के भविष्य के बीच अंतर समझने की ज़रूरत है। सिर्फ़ कारें कभी भी हमारा समाधान नहीं हो सकती हैं, किसी की भी नहीं हुई हैं। पहले ही इतनी देरी हो चुकी है कि ख़ामियाज़ा हम भुगत ही रहे हैं। भारत, जहां पर साल में सवा लाख लोग सड़कों पर मारे जाते हैं, भारत जहां की आबादी घटने वाली नहीं लग रही है और सड़कों का आकार बढ़ने नहीं वाला है। चीन जहां भारत से ज़्यादा आबादी और गाड़ियां हैं वहां पर लोग कम मरते हैं,और हर साल वो संख्या घट रही है, जबकि भारत नंबर एक तो है ही, ये संख्या घट भी नहीं रही। घट रहा है तो सिर्फ़ वक्त।
(ये मैंने तब लिखा था जब दिल्ली की बीआरटी पर केवल बसें चल सकती थीं, अब कोर्ट के आदेश के तहत आम गाड़ियां भी उसी पर से जाएंगी... यानि ये BRT एक्सपेरिमेंट भी फ़ेल। )
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1 comment:
yeah....we should do something for our public transport......
if every person is going to buy his or her own vehicle we would have a very high pollution level......and from where we'll bring the space to park.....
So this is not abt luxury....in my view public transport should be promoted well.
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