ज़माना था जब समझना पड़ता था, ऑटोमैटिक यानि बिना गियर वाली कार, जिसमें बस ऐक्सिलिरेटर दबाने की ज़रूरत होती है, क्लच नहीं और ये तो मानी हुई बात थी कि ऑटोमैटिक की माइलेज कम होती है।
भारत में विंटेज कारों के शौकीनों की कमी नहीं। बल्कि उन्हीं में से कईयों को देखकर मुझे पता चला कि हमारे देश के राजा-रजवाड़ों की कैसी रईसी थी। बचपन में हिस्ट्री में दिलचस्पी नहीं थी और थोड़ा बड़ा हुआ तो लगने लगा कि डेमोक्रेसी में रजवाड़ों की हालत कितनी दयनीय होती होगी, क्या पता मूलचंद की रेडलाइट पर बगल वाली गाड़ी में कोई युवराज बैठा हो और किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ रहा। ख़ैर डेमोक्रेसी के उस भावुकता के दौर से भी निकलने में ज़्यादा देर नहीं लगी और एक दिन अचानक मुझे राजा रजवाड़ों की एक अनोखी अहमियत पता चली। और वो थी विंटेज कारें, अगर वो नहीं होते तो गाड़ियों के साथ हमारा रिश्ता बहुत अलग होता, है ना ? अगर रजवाड़ों के कारिंदे शौक और जतन से कारों को संभाल कर ना रखते तो इतनी कहानियां हम तक पहुंचती ही नहीं। जैसे बहुत साल पहले एक कार देखकर मैं अचरज में पड़ गया था, 1959 में बनी शेवरले की एक कार जो ऑटोमैटिक थी। उसे देखकर मैं अचरज में पड़ गया था। ये वो ज़माना था जब समझना पड़ता था, ऑटोमैटिक यानि बिना गियर वाली कार, जिसमें बस ऐक्सिलिरेटर दबाने की ज़रूरत होती है, क्लच नहीं और ये तो मानी हुई बात थी कि ऑटोमैटिक की माइलेज कम होती है। ज़ाहिर है ऐसी कारों का तो भारत में सामाजिक बहिष्कार होना ही था। अब स्थिति बदल गईं हैं। लोग बढ़ती ट्रैफ़िक से बचने के तरीके ढूंढ रहे हैं। केवल लग्ज़री कार ग्राहक ही नहीं। कई कार कंपनियां अब छोटी कारों में भी ऑटोमैटिक वर्ज़न भी लेकर आ चुकी हैं। ह्युंडै ने इस मामले में पहले हिम्मत दिखाई थी जब आई 10 भी ऑटोमैटिक वर्ज़न में आने लगी। छोटी कारों में मारुति के पास भी शुरूआत में वैगन आर का ऑटोमैटिक वर्ज़न थे लेकिन बहुत आसानी से मिलते नहीं थे । लेकिन अब उनकी ए स्टार जैसी छोटी गाड़ियों की लगभग 5 फीसदी बिक्री ऑटोमैटिक की होती है, जो एक ठीकठाक संख्या कही जाएगी।
अमेरिका में ऑटोमैटिक वर्ज़न की व्यवहारिकता पर कभी सवाल नहीं था क्योंकि वहां तेल की भरमार रही और तेल सस्ता। और ऑटोमैटिक कार को चलाना आरामदेह तो होता ही है। आज के वक्त में तो और भी, ख़ासकर बड़े शहरों में। जहां के ट्रैफ़िक में क्लच दबाते दबाते घुटने की हड्डी साढ़े तीन साल में ही घिस जाए। इस परेशानी ने भी लोगों को ऑटोमैटिक कारों की ओर धकेलना शुरू किया है। लेकिन साथ में कार कंपनियों के तरफ़ से कई ऐसी कोशिशें हुई हैं जो कार बाज़ार में छोटे से ही सही लेकिन ऑटोमैटिक कारों के सेगमेंट को बढ़ाने में मदद दे रही हैं। जैसे ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन के टिकाऊपन पर भारतीय ग्राहकों की शंका को ख़त्म करने के लिए फ़ोर्ड ने अपनी फ़िएस्टा का ऑटोमैटिक वर्ज़न पेश किया, जिसके ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन पर कंपनी ने दस साल या ढाई लाख किमी तक का वायदा किया है, यानि दस साल तक ट्रांसमिशन मेंटेनेंस फ्री। साथ में कंपनी ने माइलेज को भी ठीक-ठाक रखा है। लगभग 17 किमी प्रतिलीटर की माइलेज वो भी ऑटोमैटिक कार में अच्छी मानी जाएगी। और इसके अलावा कंपनी ने इसकी क़ीमत भी बहुत ज़्यादा नहीं बढ़ाई। हालांकि पहले से ही नई फ़िएस्टा काफ़ी महंगी कार रखी गई थी लेकिन आमतौर पर ऑटोमैटिक कार वेरिएंट मैन्युअल से लाख से ज़्यादा मंहगा होता है लेकिन नई फ़िएस्टा में ऐसा नहीं किया कंपनी ने। 8 लाख 99 हज़ार रु से ये शुरू हुआ है। ख़ैर इस केस में ना सही लेकिन आम तौर पर सभी कार कंपनियों की तरफ़ से ऑटोमैटिक वेरिएंट पेश किए जा रहे हैं ख़ास वर्ग के ग्राहकों के लिए। साथ में कंपनियां उन्हें ज़्यादा भरोसेमंद, सस्ता और किफ़ायती बनाने की भी कोशिश कर रही हैं। जिसे देखकर लग रहा है कि आने वाले वक्त में बहुत से ग्राहक अपने बाएं पैर को आराम देने के लिए ऑटोमैटिक कारों को ख़रीदने वाले वर्ग में शामिल होते लग रहे हैं।
1 comment:
Congrats!
For Best Auto Show NT Award.
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