बदलती
हवा, सुबह शाम में गुनगुनी हवा में छुप कर चुपके से आने वाला ठंडा झोंका। धूप का
पीला होता रंग और छोटे होते दिन। जब तापमान और रौशनी मन को समय और भूगोल से कहीं
दूर और अलग ले जाता है। ये मौसम,
साल का वो वक्त है, जब
मुझे एक गाड़ी सबसे ज़्यादा याद आती है। जो कोई कार या बाइक नहीं एक बस है। कोई आम
बस नहीं, ख़ास। जो दशहरे में मुझे गांव ले जाती थी। जिस त्यौहार और गांव के मेले
का साल भर इंतज़ार होता था बचपन में। उस समय सिर्फ़ बस ही ज़रिया थी, पटना से
मधुबनी को जोड़ने के लिए। राज्या ट्रांसपोर्ट की बसें और प्राइवेट। जर्जर हालत में
चलने वाली सरकारी बसें जिन पर लिखे क्रैक सेवा को कभी समझ नहीं पाया था, लेकिन तब
लगता था कि बसें टूटी-फूटी-क्रैक हालत में होती थीं इसलिए उनका नाम ऐसा है। उनपर
सफ़र बेरस लगता था। जो बेरंगे बस स्टैंड से निकलती और पहुंचती थीं। जाने का असल रस
आता था उस बस में जिसे आज आपके साथ बांट रहा हूं। पटना के हार्डिंग पार्क से
निकलने वाली ये बसें एक ख़ास रंग के कॉंबिनेशन में आती थीं। तीन पट्टियां ख़ास तौर
पर बस के चारो ओर लिपटी होती थी। लाल और भूरे रंग को मिलाकर बना ईंट का रंग और
गाढ़ा ग्रे, जिसमें एक नीलापन था और नीला, जो आसमानी से लेकर गाढ़े नीले तक जाता
था, हालांकि तीसरे रंग के बारे में बहुत पक्का नहीं हूं। क्योंकि दशक से ज़्यादा हो
गया इन बसों को उस रंग-रूप में देखे हुए। जिनपर लिखा होता था तिरुपति ट्रैभल्स और
सामने लिखा होता था शाही तिरुपति। इन पर सीट मिलना आपकी क़िस्मत और जुझारुपन पर
निर्भर करता था। और पहियों पर चढ़कर, खिड़की के रास्ते रुमाल या तौलिया रखकर, सीट
लूटने का कर्मकांड सफल हो जाता था तो फिर ज़िंदगी बदल जाती थी। अचानक ब्लैक एंड
व्हाइट से कलर टीवी की तरह। बस के बाहर दुश्मन दिखने वाले लोग अब इंसान लगने लगते
थे, सहयात्री हो जाते थे। बस का कंडक्टर अपने ही परिवार का हिस्सा लगने लगता था।
नज़रें गड़ जाती थीं ड्राइवर वाले केबिन में गतिविधियों पर। ड्राइवर की बारीक
समीक्षा के साथ। देखने में ही धाकड़। आजकल के बस ड्राइवरों से कहीं ज़्यादा
संभ्रांत। बुलंद बनावट और चकाचक सफ़ेद कलफ़ वाले धोती-कुर्ता में। कुर्ते की बांह
में चुन्नट किया हुआ। उसकी हर मूवमेंट पर लगता था कि अब बस चलेगी। और मैं चौकन्ना
होकर खिड़की से अपने पिताजी को काउंटडाउन देता रहता था। जिनकी आदत थी कि बस या
ट्रेन में आख़िर वक्त तक नहीं चढ़ने की। ये ड्राइवर कम बोलते थे और इशारों में
कंडक्टर के सवाल जवाब करते थे। ऐसे में ये समझना मुश्किल था कि बस कब चलेगी। कई
बार के फॉल्स अलार्म के बाद बस चलना आमतौर पर तब तय होता था, जब ड्राइवर ने कुर्ते
की बांह समेट कर मुंह में एक पान दबा ली होती थी। और फिर सफ़र की होती थी शुरूआत। इसके
बाद क्या होता था ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि आपका भी कोई ऐसा सफ़र
होगा, जो ऐसे ही आपको बार बार याद आता होगा। वैसी ही उत्सुकता, आश्चर्य और ख़ुशी
का पैकेट लाता होगा। रास्ते की मुश्किलें और हिचकोले, कभी ना भूलने वाले मंज़र और
सफ़र में मिले अच्छे इंसान। आपको भी याद होगा। पता नहीं कि वो बसें आजकल चल भी रही
हैं या नहीं, लेकिन मैं आज भी उसी सफ़र पर हूं।
3 comments:
मुझे नहीं मालूम था कि आप इतना बढ़िया लिखते भी हो क्रांति भाई! बस का सफ़र अपने आप में कई पहलू समेटे रहता है. लेकिन ये तो सवारी पे निर्भर है के उसे मंजिल ज्यादा प्यारी है, या रास्ता. बहुत अच्छा लगा ये ब्लॉग. अंतिम पंक्तियाँ सबसे गहरी!!
आगे के लिए शुभकामनाएं :)
Hi Kranti
Happy Dussehra to you and your family.
After long time, you have written something from memory lane. I think you are missing your village in Delhi. I hope, next year you will get a chance to visit your village.
Recently, Alto 800 launched, write some review about this car and your experience of your test drive.
I am thinking of visiting Delhi next year. I do not know how much Delhi has changed since I left it. You come across Delhi roads everyday and I think you can give a better idea about Delhi, how much it is safe for girls in general and while driving their car and also how many girls now drive cars on road of Delhi. Write something about this also.
One request, Please request, Raftaar producer to repeat show in weekdays in time slot of 3-4 PM. Because of both show timings are in night, I usally missed it, I really want to watch it but most of the time, I missed it and also because of cap on GB used in net connection, it is difficult to watch it on ndtv site.
Enjoy this festival season. This is the best season in India.
Nidhi
great thanks alot...Happy Diwali now . not sure but i dnt miss it...its with me somewhere...like delhi maybe..so i miss my village even when I am there :) Delhi has changed just the way living and leaving delhiwalas have. cheers
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