बहुत सालों पहले दिल्ली में एक म्यूज़ियम खुला था। अलग और ख़ास। प्रो बोनो पब्लिको के नाम से। ये म्यूज़ियम था विंटेज और क्लासिक कारों का। एक से एक ख़ूबसूरत, पुरानी और नायाब कारें यहां पर लगी हुई थीं। जिन कारों को अच्छे से रिस्टोर किया गया था, यानि एक-एक पार्ट पुर्ज़े को असल हालत रंग-रूप में रखा गया था। चमका कर और रंग-रोगन करके। वहीं पर था जब एक बहुत ही लाल रंग की ख़ुबसूरत और बहुत ही लंबी कार पर नज़र गई। ये कार थी शेवरले की बेलएयर। जैसे पुरानी फ़िल्मों में हीरो के पास हुआ करती थी। इस म्यूज़ियम को शुरू करने वाले दलजीत टाइटस, जो एक नामी वक़ील हैं उनसे बात हो रही थी तो पता चला कि शेवरले की ५० और ६० की दशक की कारों का उन्हें ख़ास शौक है। और उन्हीं में से एक थी ये कार भी। इसी बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि कैसे एक बार इसमें मैन्युल ट्रांसमिशन आया था यािन गियर वाला और लेकिन ग्राहकों ने इसे बिल्कुल ख़ारिज कर दिया और फिर ये सिर्फ़ ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन में आती थी। ये सुन कर बड़ा अटपटा सा लगा। दरअसल हिंदुस्तानी ग्राहकों और कार बाज़ार की ऐसी आदत है कि ये सुन कर दो मिनट के लिए सोच में पड़ा कि केवल ऑटोमैटिक कारें कैसे । वाकई ये मानने में पहले बहुत दिक्कत होती है कि मैन्युअल ट्रांसमिशन को कोई ख़ारिज क्यों करेगा। लेकिन दो मिनट के बाद ही लगा कि ये तो किसी और कार बाज़ार की कहानी है और वहां पर ज़रूरी नहीं कि भारत जैसे हालात हों। और ये सोच आम ही है भारत में । ऊंची क़ीमत, महंगा रखरखाव और ख़राब माइलेज, ये सब मुद्दे ऐसे हैं जिसके साथ ऑटोमैटिक कारों को कोई क्यों पसंद करेगा भारत में । सिर्फ़ इसलिए कि उन कारों को चलाना आरामदेह होता है। लेकिन अब जो ताज़ा आंकड़े आ रहे हैं उसके मुताबिक मूड कुछ बदला है। मारुति ने अपनी सेलीरियो को पेश किया है और कंपनी की माने तो आधी से ज़्यादा बिक्री सेलीरियो के ऑटोमैटिक कार की हो रही है। इस कार में मारुति ने ग्राहकों की उन चिंताओं को दूर करने की कोशिश की थी जो उन्हें ऑटोमैटिक कारों को ख़रीदने से रोकता है। दो मुद्दे तो अभी ही दिखे, कम क़ीमत और ज़्यादा माइलेज। हालांकि रखरखाव के मामले में क्या हाल है ये तो आगे देखेंगे। तो इस पैकेज को लोगों ने भी हाथोंहाथ लिया है और वो ख़रीद रहे हैं ऑटोमैटिक वेरिएंट ही। अब देश के ज़्यादातर शहरों में गाड़ियों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन ना तो ट्रैफ़िक मैनेजमेंट सही किया जा रहा है और ना सड़कों की योजना तरीके से हो रही है। ट्रैफ़िक बद से बदतर होता जा रहा है, ट्रैफ़िक नियम की तो पूछिए मत। ऐसे में क्लच और गियर बदलते बदलते हाथ और पैर की हड्डियां घिस रही हैं और दिमाग़ गरम हो रहा है। उन्हीं ग्राहकों ने अब सेलीरियो के साथ एक्सपेरिमेंट करने की सोची है। जिसमें दो मुद्दे ख़ास ध्यान रखे गए हैं। एक तो ऑटोमैटिक सेलीरियो और मैन्युअल सेलीरियो में मात्र ४० हज़ार रु का अंतर है, जबकि पहले मैन्युअल और ऑटोमैटिक में लाख-डेढ़ लाख रु का फ़र्क होता था। वहीं माइलेज पर भी फ़र्क नहीं पड़ा है। हालांकि अब तक ऐसी हालत नहीं थी। पहले तो बताया जा रहा था कि बाज़ार का मुश्किल से ४-५ फ़ीसदी हिस्सा ऑटोमैटिक कारों का है, अब कहा जा रहा है कि छोटी कारों में तो २-३ फीसदी ही है। हो भी क्यों नहीं ये सेगेमेंट ही है किफायत पसंद ग्राहकों का, बिना क्लच की कार का आराम तो चाहिए लेकिन कम क़ीमत पर।
मारुति हो या ह्युंडै सभी कंपनियों ने अपने पास पहले भी ऑटोमैटिक विकल्प रखे थे। मारुति ने तो ज़ेन को उतारा था सालों पहले ऑटोमैटिक अवतार में। लेकिन पारंपरिक ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन महंगे थे और कम किफ़ायती भी। इसीलिए ग्राहक भले ही शोरूम जाकर ऑटोमैिटक कारों का पता करें, लेकिन ख़रीदते मैन्युअल ट्रांसमिशन ही थे। लेकिन अब ये तस्वीर बदलने वाली है।
सेलिरियो तो सिर्फ़ एक शुरूआत है। अभी तो और भी कई कारें आने वाली हैं इन्हीं ख़ासियत के साथ । सस्ती, किफ़ायती और आरामदेह ऑटोमैटिक विकल्प के साथ। कंपनियों को समझ में ये बात तो आ ही गई है कि भारती ग्राहक अब थोड़ा ज़्यादा आराम चाहते हैं। लेकिन हां, वो किफ़ायत भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। इसलिए ऑटोमैटिक मैन्युअल ट्रांसमिशन का रास्ता खोजा गया जिससे सबसे बेहतर बैलेंस मिल सके। टाटा मोटर्स ने अपनी बोल्ट और ज़ेस्ट में इसी तकनीक का सहारा लिया है । जल्द ऑटोमैटिक मैन्युअल ट्रांसमिशन में ये कारें आएंगी। साथ में कहा जा रहा है कि सबसे सस्ती ऑटोमैटिक नैनो बनेगी। साथ में कई और कंपनियों ने अपनी अपनी ऑटोमैटिक कारों पर काम शुरू किया है उसे पहले से ज़्यादा आकर्षक पैकेज बनाने के लिए।
देखना दिलचस्प होगा कि आनेवाले वक्त में कितना स्वरूप बदलेगा बाज़ार का, ग्राहक क्या ज़्यादा ऑटोमैटिक कारें ख़रीदेंगे, क्या हम अमेरिकी जापानी बाज़ार के रास्ते पर हैं जहां पर ऑटोमैटिक कारें कुल बिक्री का ८०-९० फ़ीसदी हैं।
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