"कोई लेडी ड्राइवर ही रही होगी” ये जुमला आजकल काफ़ी इस्तेमाल होता सुनाई देता है। ज़्यादातक मज़ाक उड़ाने के लिए और कई बार संजीदगी से। ये बहस कुछ साल पहले ज़्यादा नहीं सुनने को मिलती थी, लेकिन जैसे जैसे भारत में महिला ड्राइवरों की संख्या बढ़ती जा रही है, महिला ड्राइवरों पर चुटकुले भी बढ़ते जा रहे हैं । ठीक उसी तरह जैसे पश्चिमी देशों में सुनाई देते रहे हैं। जिन देशों में महिलाएं पहले से गाड़ियां चलाती आई हैं। इंटरनेट पर से लेकर यूट्यूब पर टहल जाइए और देखिए कि साइबर दुनिया भरी हुई है महिला ड्राइवरों के कार क्रैश, ग़लत पार्किंग या चुटकुलों से। ढेर सारे रीसर्च भी हुएं हैं लेकिन उनमें से कोई ऐसा आख़िरी जवाब नहीं मिला जिससे ये बहस ख़त्म हो...और बहस बरकरार है कि महिला ड्राइवर बेहतर हैं या पुरुष ? लेकिन भारत में बहुत सारी बहसों की तरह ये बहस भी थोड़ी टेढ़ी है।
ये एक पहलू है। दूसरा पहलू सड़कों पर देखने को मिलता है।
जहां सड़कों पर भी वैसे ही फ़्रिक्शन देखने को मिल रहे हैं जैसे समाज में। किसी महिला को तेज़ गाड़ी चलाते देखा नहीं कि तुरंत लाइन सुनाई देगा- 'ठोकेगी ये ‘ । लेडी ड्राइवर ने ओवरटेक किया नहीं कि उससे रेस लगना शुरु। पारंपरिक पुरुष ड्राइवरों को ये बात पचती नहीं रहती है कि कोई महिला कैसे उन्हें ओवरटेक कर रही है। ठीक वैसे ही जैसे ऑफिसों में महिलाओं के प्रमोशन की वजहों पर वो हमेशा कोई ना कोई सवाल उठाते हैं। सड़कों पर एक और समस्या है जो नॉर्थ इंडिया में मुझे ज़्यादा देखने को मिलता है। पता नहीं क्यों अभी भी महिला ड्राइवरों को देखना एक अजूबे की तरह होता है। ऐसा नहीं कि कम महिला ड्राइवर हैं, दिल्ली में ही अगर देखें तो। कुछ सुपरबाइक या दमदार एसयूवी चलाती महिलाएं तो वाकई दिलचस्प लगती हैं, वो किसी का भी ध्यान खींच सकती हैं। लेकिन यहां पर बात वहीं तक नहीं रहती है। घूरना एक आवश्यक सामाजिक रिवाज़ सा लगता है सड़कों पर। चाहे अधेड़ उम्र के अंकल हों जो तीन गाड़ियों के बीच से गाड़ी निकाल रहे हों, बावजूद इसके दूसरी कारों में झांकने का समय निकाल पा रहे हैं, चाहे पेट्रोल पंप पर खड़ा नौजवान ड्राइवर हो जो रियर व्यू मिरर में देखने की कोशिश करे कि पिछली कार में कटरीना कैफ़ बैठी है या हेमा मालिनी। या फिर रेड लाइट पर खड़ा ऑटोवाला हो जो नज़रों ही नज़रों में स्कूटी पर बैठी महिला को फ़ेसबुक फ़्रेंड रिक्वेस्ट भेजने की कोशिश कर रहा होता है। कई बार तो ऐसा होते ख़ुद देखा है मैंने, कि इन्हीं नज़रों से बचने के लिए महिला राइडर ने रेड लाइट जंप कर ली हो। कई महिला ड्राइवरों से बातचीत करने पर पता चला कि काले शीशे पर बैन लगने से उन्हें इतनी परेशानी होती है, भले ही सेफ़्टी को लेकर इन पर बैन लगा है लेकिन वो काले शीशे से राहत महसूस करती थीं। कुछ महिला ड्राइवरों को छोड़े दें तो एक औसत महिला ड्राइवर के लिए आम सड़कों पर ड्राइविंग एक ख़ूख़ार जगह सी लगती है, जैसे वो सहमी सहमी सी ड्राइव करती रहती हैं। आम देर रात में ड्राइव करना मुश्किल होता है, कहीं रुक नहीं सकते और कहीं कार में कोई ख़राबी आ गई तो फिर आफ़त ही है। यानि महिलाओं के लिए ड्राइविंग का मतलब केवल स्टीयरिंग व्हील और गियर-ऐक्सिलेरिटर नहीं है। उनके दिमाग़ के डैशबोर्ड में और भी कई चीज़ें भरी होती हैं। और ये सब देखकर वो बहस फ़िलहाल भारत में बेमानी लगती है कि महिला ड्राइवर बेहतर या पुरुष ड्राइवर। दोनों के लिए सड़कों पर एक जैसा महौल बने तब तो पता चले कि कौन सेर है कौन सवा सेर। वैसे एक और मुद्दा है जिस पर ध्यान देना ज़रूरी है । भारत में दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग सड़क हादसे में मारे जाते हैं, १ लाख ४० हज़ार के आसपास। और ये कोई रहस्य नहीं कि इनमें से ज़्यादातर हादसों में पुरुष ड्राइवर ही होते हैं, ऐसे में अगर भारत के मर्द ड्राइवर महिला ड्राइवरों का मज़ाक बनाते हैं तो इससे हास्यास्पद और कुछ नहीं हो सकता।
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