August 28, 2011

अपने-अपने करप्शन- WHAT NEXT !

पिछले हफ़्ते की ही घटना है। रविवार का दिन था। बाज़ार से कुछ चिंटू शॉपिंग यानि छोटी-मोटी रोज़मर्रा सामान की ख़रीददारी करके लौट रहा था। रेडलाइट पर गाड़ी रुकी थी। सामने चार-पांच कारें थीं। लाइट हरी हुई और सभी कारें हिलना शुरू हुई। कि कारों के कंधों के बीच से देखा चौराहे के बीचोबीच एकाएक कुछ चीज़ उछली, जैसे तेज़ भागती ट्रक से कुछ बोरी निकल कर गिरी हो। लेकिन सामने से कारों की भीड़ हटी तो देखा कि एक आदमी गिरा हुआ है। सामने एक टाटा इंजीका खड़ी है। और उससे दूर छिटकी एक बाइक सड़क पर लेटी हुई है। मैंने चौराहा क्रॉस किया, गाड़ी किनारे लगा, उस इंसान को उठाने गया, देखा कि लोग जमा हो गए हैं-उसे उठा रहे हैं, जिस कार से टक्कर लगी थी उसी में बिठा रहे हैं। तो उसकी बाइक को उठाकर किनारे लगा, लॉक कर दिया । और फिर चाभी देने कार के पास गया। अदंर ड्राइवर सीट पर नज़र गई तो दिमाग़ में तुरंत एक कमेंट आया-- 'इसीलिए'  । और जैसे मैं वापस अपनी गाड़ी के ओर बढ़ा, वैसे ही ख़ुद पर ग्लानि भी होती गई। दरअसल । उस ड्राइवर सीट पर एक महिला थी, और उसे देखते ही मन ने मान लिया कि ज़्यादा चांस यही कि ग़लती उसी की होगी। जबकि मुझे ये भी नहीं पता कि किसने रेडलाइट जंप किया था । किसने ब्रेक नहीं मारा और कौन ज़रूरत से ज़्यादा रफ़्तार में था। आजकल हो कुछ ऐसा ही गया है। हर दिन लोगों से ये सब सुनता रहता हूं- "मैं तो महिला ड्राइवरों से बच के चलता हूं", "किसी बुज़ुर्ग को ड्राइव करते देख मैं पहले ही किनारे हो जाता हूं","मैं तो तीन लोगों से बच के गाड़ी चलाता हूं- लेडी ड्राइवर, बूढ़ों और पंजाबी ड्राइवरों से"। तो इस तरह की लिस्ट में और भी ड्राइवरों का ज़िक्र आता रहता है। लेकिन हर स्टेटमेंट एक अजीब पूर्वाग्रह, अविश्वास की बात करता है। कुल मिलाकर भारतीय सड़कों पर ड्राइविंग की जो ख़ामियां, जो सब में हैं , उन्हें ये सीमित कर देता है कुछ ड्राइवरों पर। और ध्यान से देखें तो इस अविश्वास की जड़ में हमारा सिस्टम है। दरअसल हमारी सरकारों ने हमें एक बुरा नागरिक, क़ानून तोड़ने वाला-सभी पर संदेह करने वाला इंसान बना दिया है। दरअसल हो ये गया है कि भारतीय सरकार ने एक सुव्यवस्थित व्यवस्था के तहत बच्चों के हाथ में पिस्तौल दे दिया है और ये भी नहीं समझाया है कि गोली चल जाए तो जान जा सकती है। पिस्तौल से मेरा मतलब है ड्राइविंग लाइसेंस ।
वही लाइसेंस जिसे विदेशों में पाने के लिए वहां के लोग, सालों-साल टेस्ट देते रहते हैं। अमेरिका में ड्राइविंग टेस्ट में दो-चार बार फ़ेल करना आम है। एक इंसान ने तो पहली बार लाइसेंस टेस्ट पास किया जब वो रिटायर हो चुका था। वहीं दुनिया के बाकी देशों में लाइसेंस का एक सोचा-समझा-सलीकेदार सिस्टम है। ना सिर्फ़ लाइसेंस पाना मुश्किल है, बल्कि पांच साल बाद रिन्यू कराने के लिए फिर से टेस्ट भी देना पड़ता है। लगता है वहां पर जान की क़ीमत है। जो चला रहा है उसकी जान और जो गाड़ी के सामने आए उसकी जान। हम लोगों ने शरीर को काफ़ी सीरियसली वस्त्र समझ लिया है। ना अपनी जान की क़ीमत और ना सामने वाले की।

सबको पता है लेकिन कोई ध्यान नहीं देता, ऐसा भ्रष्टाचार है कि अण्णा की भी नज़र ना पड़े। मेरे कहने का मतलब ये नहीं कि साल भर में इसी सरकारी उदासीनता की वजह से एक लाख 20 हज़ार लोग भारत की सड़कों पर मरते हैं। लेकिन उसका कोई ना कोई हिस्सा ज़रूर...या उसके अलावा कई छोटे बड़े सड़क हादसे, जिनमें जान नहीं जाती है, उनके पीछे ज़रूर है भारत में ड्राइविंग लाइसेंस माफ़िया ।
जीहां, रो़ड ऐक्सिडेंट में मौत के मामले में भारत दुनिया में नंबर वन है, चीन से भी आगे। लेकिन आज मैं उन मौत के बारे में नहीं बात करना चाह रहा था, बताना चाह रहा था कि सड़कों पर चलना-चलाना कितना रफ़ हो गया है। हर दिन आपको कोई ना कोई मिलेगा ही जो आप पर आंख तरेरेगा। बिना मतलब इतना फ्रिक्शन हो गया है।
हम सबके पास कोई ना कोई कहानी ज़रूर होती है कि कैसे हमने दो सौ एक्स्ट्रा देकर लाइसेंस बनवाया। कैसे दलालों से भिड़े थे या अप्रोच लगवाया था । और यही वजह है कि सभी को लगता है दूसरा फ़र्ज़ी लाइसेंस लिए हैंडिल पकड़ा हुआ है, या दलाल को पैसे देकर  स्टीयरिंग पकड़ा है। और इसीलिए हर दूसरे को हम घटिया ड्राइवर समझने लगे हैं। ब्रेक पर पैर लगाते ही हॉर्न बजाने लगते हैं। अगर निकलने के लिए जगह देने में देर की , तो तुरंत गाड़ी बराबर में लाकर, नज़रें तरेरने में वक्त लगाएंगे। आपकी इज़्ज़्त में कसीदे पढ़ेंगे जिसे आसानी से हम समझ सकते हैं, उसी तरह पढ़ कर जैसे क्रिकेटरों के होठ की हरकत देखकर हम पढ़ लेते हैं कि अपने आउट होने को उन्होंने कितने संभ्रांत तरीके से स्वीकारा है। और अगर उम्र थोड़ी कम हो, हॉलीवुडी फ़िल्में ज़्यादा देखते हों तो फिर गाड़ी चलाने के बीच एक हाथ फ्री करके बीच वाली उंगली आपको दिखाएंगे।   या फिर ये जांच कर कि सामने वाला मेरे से ज़्यादा बलिष्ठ तो नहीं, और अगर नहीं लग रहा है तो फिर शीशा खोल के उसके मुंह पर , जीवन से तमाम दर्शन छोटे-छोटे शब्दों में उगल देते हैं।
गाहे-बगाहे ऐसी ख़बरें आप देखते रहते हैं जैसे हाल में लोगों को लाइसेंस मिलने का ख़बर आई  है, जो विकलांग हैं। एक ही इंसान के नाम पर दो लाइसेंस, मंत्री के नाम पर, प्रधानमंत्री के नाम पर भी । और ये सब जब सड़क पर उतरते हैं, बिना डिसिप्लिन समझे, बिना गंभीरता को समझे तो फिर हादसे होते हैं, छोटे-बड़े जैसे भी, चाहे गाड़ी से बाइक टकराए या एक ड्राइवर से दूसरा । भ्रष्टाचार के इस सोशल इफ़ेक्ट के बारे में सरकार नहीं सोच रही। हर इंसान से दो सौ-चार सौ कमाने वाली अरबों की लाइसेंस इंडस्ट्री के एक सामाजित पतन को लूब्रिकेट कर रही है, ये सरकार का सरदर्द नहीं। कुल मिलाकर दुख यही कि हमें एक और अनचाही वजह मिल रही है, बुरा इंसान बनने की।
(प्रभात ख़बर में प्रकाशित)

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