August 24, 2011

अण्णा के टॉपिक पर मुझे भी लिखना है - पार्ट-2 : गांधी की फ्रेंचाइज़ी


एक और मुद्दा जिसके ऊपर बहुत से फ़ैबइंडिया गांधीवादी बहस कर रहे हैं वो है अण्णा के गांधी की समझ । जो गांधी को एक इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की तरह देखते हैं, कि गांधी सिर्फ़ उन्हीं के हैं । कांग्रेस जिसने गांधी को जनता के लिए झुनझुना बना कर रख दिया, बहकाने के लिए, दीवारों पर टांग कर गांधी की सोच को चुनवा ही दिया, उसे तकलीफ़ हो रही है कि कोई और क्यों गांधी की बात करे। कांग्रेसी बड़े-बड़े प्रेस कांफ़्रेस में सवाल उठा रही है कि अण्णा का तरीका गांधीवादी नहीं है। लेकिन विडंबना ये कि उन नेताओं ने उस गांधी को कभी जीया ही नहीं वो अब डिसाइड कर रहे हैं कि किसका रास्ता सही है??

तो गांधी विचारधारा की फ्रेंचाइज़ी लिए कई ज्ञानियों ने बड़ी फटीचर व्याख्या की है अण्णा के गांधीगिरी की। तमाम बाईट और इंटर्व्यू टीवी अख़बारों में दलीलें आ रही हैं इस बारे में। गांधी ने कुछ बातें सिखाई थी, अपने जीवन को एक ख़ास तरीके से जिया था। लेकिन वो सोच और फलसफ़ा कोई मैक्डोनल्ड का बर्गर तो है नहीं कि दुनिया के हर फ्रेंचाईज़ी में एक ही स्वाद वाला बर्गर बनेगा। गांधी तो सबके लिए हैं और सब अपनी समझ, अपनी दर्शन के हिसाब से गांधी को जीता है।  मुन्ना और सर्किट के गांधी से अण्णा के गांधी की लड़ाई नहीं हो सकती है ना ही शेख सराय के आरटीओ में टंगे गांधी से । अब अण्णा ने कुछ पढ़ा, कुछ जाना और जितना उतार सकते थे अपनी ज़िंदगी में उतारा । बाकियों को क्यों पेटदर्द हो रहा है ये समझ में नहीं आता। कांग्रेसी और बाकी पार्टी वाले तो एक तरफ़ अरुंधती रॉय भी आज की डेट में गांधीवाद पर स्थापना दे रही हैं। मतलब आपकी विचारधारा वामपंथी है तो अचानक जेट प्रिविलेज कार्ड की माफ़िक आप ऑटोमैटिक अपग्रेड के हक़दार होते हैं, कैटल क्लास से इंटेलेक्चुअल क्लास में। जिस क्लास में आपको पर्फ़्यूम की छोटी बोतल, टूथ ब्रश और एक लाइसेंस दिया जाता है । जिसमें लिखा होता है कि आप हर मुद्दे पर बोल सकते हैं और माओवाद से लेकर गांधीवाद तक के मुद्दे पर अंतिम सत्य आपकी मुंह से ही निकलेगा।
जब मैंने ये लिखा कि ना जाने कितने कीबोर्ड घिस गए होंगे अण्णा मूवमेंट के ऊपर अपनी राय लिख-लिख कर तो उसकी भी कड़ी प्रतिक्रिया कुछ मिली थी। लेकिन ये ज़रूर लगा कि इस मूवमेंट ने कई लोगों की लाइन तय करने में मदद दी है। कई ग़ैरज़रूरी विचारधारा की पोटली खुल गई है, ग़ैरज़रूरी तर्क-कुतर्क उसमें से गिर गए हैं और सिर्फ़ काम की दो चार बातें रह गई हैं। लेकिन जो काम इसने किया वो है भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ डिबेट। इतने सालों बाद लोकसभा औऱ राज्यसभा दोनों ही जगहों पर करप्शन के ऊपर बहस चल रही थी। जिस संसद के ख़िलाफ़ होने का आरोप लग रहा है हज़ारे पर उसी संसद को उसका काम करने पर मजबूर किया देश भर में उठी एक आवाज़ ने। और ये बहस सिर्फ संसद तक नहीं रही ।  एक सहयोगी पत्रकार मेरे सामने ए राजा की वकालत कर रहे थे कि उसने आम लोगों यानि टैक्सपैयर्स का पैसा थोड़े ही ना ग़बन किया है, 1100 करोड़ के ढेर पर बैठ कर बाबा  विदेश में जमा भारतीय पैसे को वापस लाने की मांग कर रहे थे तब मुझे लग रहा था कि क्या भ्रष्टाचार सिर्फ़ फ़ेसबुक टॉपिक  रह गया है।
आजिजपना साफ़ दिख रहा है अब जनता में, लाख से करोड़ से अरब और अब खरबों में जाते घपलों की खबरों से, नेताओं के दोहरेपन से, बिकी हुई ख़ुशफ़हम और दलाल मीडिया से, शासकों के घमंड से । सालों से ये भाव चारो ओर दिख रहा था, कि ये सब तो चलता है और ऐसे ही चलता रहेगा । हाल के कई चुनावों में नेताओं ने साफ़ कहा कि भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं है । और आप ये सोचें कि कैसे चुनावी मुद्दा समाज की भलाई से ना निर्धारित होकर ऐसी स्थानीय खुदरा और टैबलायड वजहों से निर्धारित हो रहा है जैसे 4-0 की हार के बाद चर्चा ये हो रही हो कि धोनी को अपनी जर्सी का नंबर बदलना चाहिए कि नहीं। और सबसे दिलचस्प बात ये थी कि अगर कोई भ्रष्टाचार या करप्शन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए भी तो वीपी सिंह की तरह उसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था, बल्कि ऐसी नज़रों से देखा जा रहा था कि कहां स्लिम फ़िटिंग जींस के ज़माने में बैगी पैंट पहन कर आ गया।
ख़ैर अपने तात्कालिक स्वार्थ, राजनीतिक अलाइनमेंट, कुंठा और सिनिसिज़्म में एक पूरा तबका है जो ये नहीं समझने को तैयार है कि दरअसल ये मूवमेंट क्या कर रहा है। वो हिंदुस्तानियों को सड़क पर उतरने के लिए तैयार कर रहा है...वो भी बिना हथियार उठाए, बिना बसों को जलाए। जो अगर नेताओं की बेईमानी से गुस्सा सकता है तो चुरूट लगाए छद्म बुद्धिजीवियों को भी नहीं छोड़ेगा। शुक्र मनाएं बस कि वो रास्ता अभी गांधी वाला है।

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