जॉर्ज बुश ने कह दिया था कि या तो आप उनके साथ हैं या हमारे साथ, इसके अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा था 9-11 के बाद....कुछ ऐसा ही माहौल हो गया है आज अण्णा के घनघोर समर्थकों के बीच, जब आपकी निरपेक्ष राय भी आपको ख़िलाफ़ खेमा का बना देती है, कई गरियाने लगते हैं। कई फ़्लाई-बाई-नाइट खुदरे घनघोर आलोचकों की बातें पढ़कर, सुनकर, लगेगा कि अण्णा के ऊपर एनैलिसिस के लिए कमिटी बन गई है, लेकिन ऐसे थिंकटैंक के साथ जो दरअसल एक टंकी है जहां पर जमा विचारों में मलेरिया और डेंगू के मच्छर पनपते मिलेंगे। अण्णा को मिल रहे व्यापक (संख्या के बारे में मतभेद हो सकते हैं) समर्थन को कई पचा नहीं पा रहे, कुछ तो हर भीड़ को लाखों में गिनवा रहे हैं, कई उस भीड़ की आर्थिक-सामाजिक-जातीय विवेचना-मीमांसा में लगे हैं, कुछ अपने बॉस को नारे के टोन में जवाब दे रहे होंगे । कुछेक की दुकान वैसे चल निकली है जैसे शादियों के बाहर फ्रीलांसर पान-बीड़ी वाले बैठते हैं। स्टेटस अपडेट से लेकर प्रिंट आर्टिकल से लेकर टीवी स्टूडियो तक, अण्णा से जुड़ी सभी सेवाएं उपलब्ध हैं । तो अभी तक मुझे समर्थन में कई जगह अतिभावुकता और विरोध में वैचारिक घपला तो लग ही रहा है।
अचानक अरुणा रॉय पहुंची हैं टीवी चैनलों की तरह लेकर एक एक्सक्लूसिव लोकपाल बिल, सिर्फ़ इसी चैनल पर बना ये ख़ास लोकपाल बिल। डेल्ही बेली में जैसे आमिर ख़ान आया हो...अरुंधती रॉय भी अण्णा के ख़िलाफ़ हैं, सुना है । हेडर पढ़ा कहीं पर उनके ज्ञानदर्शन का, कि अण्णा का रास्ता गांधी वाला नहीं है । ऊपर से कई साइबर विचारक और टीवी डिस्कशन में बुलाए जाने वाले तथाकथित दलित नेता इसे दलित विरोधी आंदोलन कह रहे हैं , जिसे साबित करने के लिए उनके पास कई तर्क हैं, कैल्कुलेशन हैं। कई मूर्धन्य और धन्य पत्रकार भी ये बयान देते सुनाई दे रहे हैं कि कैमरा नहीं लगा होता तो ये आंदोलन नहीं होता।
हाथ में स्कॉच थामे विचारमग्न समाजशास्त्री इसे मिडिल क्लास का आंदोलन कह कर ख़ारिज कर रहे हैं तो बीजेपी बिलबिला रही है, जो काम हमें करना चाहिए था और जिसके काबिल हम रहे नहीं वो काम ये बूढ़ा कर रहा है ।
लेकिन इन सबके बीच एक सर्प्राइज़ पैकेज के तौर पर न्यूट्रल वाले खेमे में दीख रहा है एक इंसान, जिसे रहना नहीं चाहिए था। अगर कल के प्रधानमंत्री के तौर पर राहुल गांधी को पेश कर रही है कांग्रेस तो क्यों नहीं ये युवराज अपना मुंह खोल रहे। क्या ये गरिमा के ख़िलाफ़ है, रणनीति के ख़िलाफ़ या फिर माताजी का इंतज़ार है। जब कांग्रेस के नेतृत्त्व वाली इस सरकार को सबसे भ्रष्ट सरकार का नाम दिया जा रहा है, हज़ारों करोड़ों के घोटाले लोगों के मन में ये सवाल उठा रहे हैं कि क्या वाकई हमारा देश इतना ग़रीब है कि देश की एक तिहाई से ज़्यादा आबादी बीपीएल होनी चाहिए। जब सवाल ऐसे हों, माहौल ऐसा हो तो फिर सिर्फ़ भट्टा-परसौल पर बयान देने का कोई अर्थ नहीं होता है ना क्योंकि पुणे में पुलिस फ़ायरिंग उन्हीं बयानों को खोखला साबित कर देती है।
ख़ैर...कमिंग बैक टू क्रिटिक्स...क्या मतलब कहें इसका कि मेरे पास लोकपाल बिल का मसौदा भी था जो ज्यादा संतुलित है। अरुणा राय कहती हैं कि सरकार का बिल सुपरवीक है तो अन्ना का सुपरपावरफुल, दोनों ही ख़तरनाक। तो सवाल यही उठता है कि पहले क्यों नहीं आए आप सामने, क्यों नहीं अण्णा और सिविल सोसाइटी का शुरू से विरोध किया ? क्यों नहीं समझी अपनी ज़िम्मेदारी जनता के प्रति कि अगर वाकई जनलोकपाल बिल इतना ही ख़तरनाक है जितना आप बता रही हैं तो फिर जनता को गुमराह होने से बचाना सही नहीं होता ? क्या भ्रष्टाचार वाकई इतना लोकल और टुच्चा मुद्दा है कि भूल गए थे कि एक मसौदा हमने भी बनाया है और अभी रामलीला मैदान की अतिश्योक्ति वाली कवरेज ने मुझे याद दिलाया है। वहीं हास्यास्पद बात ये हो गई कि अरुंधती रॉय गांधी के ऊपर स्थापना दे रही हैं, और अचानक गांधीवाद की आरटीओ हो गई हैं कि कौन गांधीवादी है कौन नहीं है ये लाइसेंस वहीं देंगी। आख़िरी बार जब उनकी कहानी पढ़ी थी तो वो बंदूक के रास्ते को सही बताने पर लगी हुई थीं। वहीं कुछ दलित संगठन भी इस मूवमेंट का विरोध करते दिखे टीवी पर। कई मेहमानों की बातें भी सुनी जिनके नाम के आगे दलित नेता लिखा हुआ था। वो तर्क दे रहे थे कि अण्णा हज़ारे से ज़्यादा भीड़ हमने जमा कर रखी है, और अगर अण्णा हज़ारे इतने महान हैं तो दलितों के लिए कुछ क्यों नहीं करते । एक प्रेस कांफ्रेंस में किरण बेदी से एक पत्रकार सवाल पूछते सुने गए कि आप महिला बिल के लिए क्यों नहीं लड़ रहीं हैं, अण्णा और केजरीवाल महिला बिल के लिए आंदोलन क्यों नहीं करते हैं ? तो ऐसे में सवाल ये उठता है कि जो अण्णा को भीड़ की संख्या में मात देने की बात कर रहे थे, क्यों नहीं इससे भी बड़ा आंदोलन खड़ा करते हैं। ख़ुद को वो कितना भी बड़ा दलित नेता बताएं, मायावती से तो बड़े नहीं, जिन्होंने फ़िलहाल अण्णा का समर्थन किया है। या वो पत्रकार जो महिला बिल की कारगरता समझा रहे थे, ऐसे आलोचक क्या मुद्दे को भटका नहीं रहे। क्या समाज में दलितों की हालत में सुधार और महिला बिल का पास किसी के एवज़ में होना चाहिए, भ्रष्टाचार से लड़ने की क़ीमत पर होना चाहिए। जैसे कि प्रधानमंत्री ने कहा कि आर्थिक प्रगति चाहिए तो मंहगाई भी होगी ही ? क्या ऐसा असंभव है कि बदलाव समग्रता में हों। दरअसल ऐसा है नहीं।
एसी कमरों में बैठे, राजनीति और पू्र्वाग्रह के कौंटैक्ट लेंस लगाकर, ब्रॉडबैंड के ज़रिए देश के आमलोगों को देखने वालों का समझ में नहीं आ रहा है कि वाले करप्शन के असली रंग देख नहीं पा रहे । ख़ुद ह्यूमिडिटी और सनबर्न के डर से सड़क पर उतरते नहीं, कोई और उतरे तो ये भी मेरे मार्लबोरो का पैकेट क्यों नहीं ले आते हो। अगर मरीज़ छोड़ने के लिए एंबूलेंस निकाल ही ली है तुमने तो रास्ते में इन बच्चों को भी स्कूल छोड़ आना। और ऐसे विकल्प बहुत ही बकवास लग रहे हैं आज की तस्वीर में।
बजाय इसके की सभी पार्टियां ये समझने की कोशिश करे कि कैसे एक इंसान की आवाज़ पर देश भर में लोग जुटे हैं- वो अण्णा मूवमेंट के छिद्रन्वेषण में लगे हैं । आख़िर क्यों बीजेपी अपोज़िशन कॆ नाम पर मज़ाक लग रही है, जिस पार्टी का आधा समय अपनी नेता के राजघाट पर नृत्य के लिए सफ़ाई देने में जा रहा था, लेफ़्ट इतनी लेफ़्ट हो गई कि सर्विस लेन में घुस गई। क्यों इन सभी पार्टियों में से आस्था चली गई है आम लोगों की ? क्यों लोग लाफ़्टर चैलेंज में नेताओं के ऊपर आइटम तो देखना चाहते हैं लेकिन असल नेता जब मातम पुर्सी में घर आता है तो मारे गए शख़्स के परिवार वाले उसे पत्थर मारकर भगाते हैं, या गुर्गों के साथ अण्णा के आंदोलन में हिस्सा लेने आता है तो आम जनता द्वारा खदेड़ा जाता है । दरअसल सरकार के मंत्री, उनके चंगू-मंगू और कुछ स्वयंभू चिंटू विचारकों ने इस आंदोलन की सबसे बड़ी ख़ासियत पर से सबका ध्यान हटा दिया है। वो है कलेक्टिव कोशिश । आजतक किसी भी मुद्दे को मध्यम वर्ग को बाहर आते नहीं देखा गया था...जिसके लिए ये गाली खाता था, वैसे अब इस बार बाहर आया है तो भी गाली खा रहा है। लेकिन आगे के लिए ये उम्मीद की जा सकती है मुद्दों पर लोगों का पार्टिसिपेशन बढ़ेगा। सामाजिक सरोकार केवल किताबी बात शायद ना रहे।
तो ऐसे में मैं अपनी बात बताता हूं। मुझे ऐसा नहीं लग रहा कि जनलोकपाल बिल से कुछ क्रांतिकारी होगा। देश की राजनीति इतनी ताक़तवर है कि कैसे भी सांढ़ का बधिया कर सकती है, बैल क्या टट्टू बना सकती है। आरटीआई के ज़रिए देश ने बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन लगातार उसके पंख, पूछ और अब गुर्दे तक काटने की कोशिश की जाती रही है, कितने ही कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। थोड़े वक्त के बाद हो सकता है कि जलोपा बिल में भी कुछ कटिंग शटिंग हो जाए...लेकिन उम्मीद बची हुई है। वो किताब पढ़ी थी टिपिंग प्वाइंट, जिसके बाद से भारत में मैं उस प्वाइंट का इंतज़ार कर रहा हूं ।
मैं इस पूरे मूवमेंट के पक्ष में हूं, टीवी पर देख कर लोगों की तादाद का सही अंदाज़ा लगाना मुश्किल है लेकिन ख़ुश हूं बहुत सारे शहर से कुछ-कुछ लोग आए तो हैं सड़कों पर...उतरकर एक दो-नारे तो लगाए हैं।
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