( जब सड़कों को चौड़ा करने, कॉरीडोर बनाने, इंफ़्रास्ट्रक्चर बेहतर करने पर ज़ोर दिया जा रहा था, लगा कि ये सरकार कुछ ऐसे ऐलान करेगी जो इतने सालों से कांग्रेस ने नहीं किया था, रोड सेफ़्टी के लिए कुछ पैसे निकालेगी, १०० करोड़ वाले २९ प्रोजेक्ट हो ही चुके थे, ३० भी हो सकते थे !! कुछ इशारा तो करते, ज़िक्र तो करते कि जिन सड़क हादसों की वजह से कहा जाता है सालाना सवा लाख लोग मारे जाते हैं, जीडीपी का दो-ढाई फीसदी का नुक़सान करता है, उस पर भी कुछ पॉलिसी टाइप की बात करते, उस बहस में नहीं जा रहा कि महिला सुरक्षा के लिए इतना और पटेल की मूर्ति के लिए इतना...कमसेकम सोच तो दिखा देते ? थोड़े दिन पहले ये कॉलम लिख रहा था तो लग रहा था कि बजट के वक्त कुछ ऐसा सुनाई दे जाए, आख़िर एक मंत्री की मौत हुई थी, किसी आम हिंदुस्तानी की नहीं...तब तो चिंता होनी चाहिए थी ?? )
हाल में एक मौत ने फिर से हमारे सामने ये सवाल खड़ा कर दिया है जिसे हम बार बारे उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन जवाब नहीं मिल रहा है। वो ये कि कब तक हिंदुस्तानी
सड़कें दुनिया की सबसे ख़ूनी सड़कें बनी रहेंगी। कब तक हम रोड सेफ़्टी को इतने हल्के में लेते रहेंगे, कब तक हिंदुस्तानियों की जान की अहमियत को इतना कम आंकते रहेंगे।
अलग अलग आंकड़ों का औसत भी लें तो देश की सड़कों पर हर साल सवा लाख से ज़्यादा लोग अपनी जान सड़क हादसे में गंवा देते हैं। और अब तक अगर सरकारों का रवैया देखें तो लगेगा कि इन जानों की फ़िक्र सरकार को नाम मात्र की ही है, कागज़ों में, ख़ानापूर्ति में। लेकिन सड़क हादसे में एक मंत्री की मौत के बाद अचानक लग रहा है कि तस्वीर शायद बदले।
अचानक सा लगने लगा है कि इस बार शायद कुछ अलग है, सवा लाख मौत पर जैसा रवैया अब तक सरकारों का देखने को मिलता रहा है,पता नहीं क्यों उम्मीद हो रही है, या कमसेकम ऐसा लग रहा है कि अब चारों ओर से चर्चा शुरू होगी, कोशिशें शुरू होंगी समाधान निकालने की और कुछ ठोस क़दम उठाए जाएंगे। लोगों की जान की क़ीमत समझी जाएगी, ट्रैफ़िक सेफ़्टी नियमों को लागू करने में कड़ाई बरती जाएगी, सड़कों के डिज़ाइन की ख़ामियां दूर की जाएंगी और सेफ़्टी को सबसे बड़ी प्राथमिकता माना जाएगा।
इस उम्मीद की वजह साफ़ है, एक तो इस बार किसी आम आदमी या नेता की हादसे का शिकार नहीं हुआ है। इस बार हादसे में मौत एक मंत्री की भी हुई है। और हादसे की तस्वीर लगभग वैसी ही, जैसी हमें हर रोज़ देखने की आदत है। क्रॉसिंग से गुज़रती दो गाड़ियां, एक की रफ़्तार ज़्यादा, कोई एक लापरवाह और कोई बेपरवाह। नतीजा मौत। इस बार दिल्ली के चौराहे पर ऐसा देखा गया है।
दूसरी वजह है सरकार का नया होना। अभी जिस तरीके से सालों बाद फिर से सरकार में आई एनडीए में जोश दिख रहा है, कई मुद्दों पर सकारात्मक ऐलान सुनने को मिले है, हालांकि कार्रवाई का इंतज़ार है, उसे देखकर लग रहा है कि गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद सरकार कुछ क़दम उठाए, जिससे सड़कें ज़्यादा सुरक्शित हों।
सबसे अहम तो ट्रैफ़िक नियमों का पालन ही है। ये समझते हुए कि सभी हाईवे, सड़कों या चौराहों पर ट्रैफ़िक पुलिस को तैनात करना नामुमकिन है। हर स्पॉट पर पुलिस कर्मी हों तो भी ज़रूरी नहीं कि सभी नियम तोड़ने वाले उनकी नज़र में आ जाएं, या वो सभी को पकड़ पाएं। तो इसका समाधान टेक्नॉलजी ही हो सकती है। जहां सबसे पहले स्पीड कैमरे लगाने की ज़रूरत है। सबसे पहले देश की उन ख़ूनी सड़कों को कैमरे से लैस किया जाना चाहिए, जहां पर रिकॉर्ड के मुताबिक सबसे ज़्यादा सड़क हादसे होते हैं। वहां पर कैमरे से लोगों पर एक अंकुश लगेगा कि वो स्पीड लिमिट को ना तोड़ें, या नियम ना तोड़ें। इससे चप्पे चप्पे पर पुलिसवालों की तैनाती से छुट्टी मिलेगी।
इसके बाद लाइसेंसिग की पूरी प्रक्रिया को फिर से देखने की ज़रूरत है। बिना काबिलियत के ड्राइविंग लाइसेंस देना बंद किया जाना चाहिए, जिसके लिए लाइसेंस से पहले ट्रेनिंग भी अनिवार्य की जा सकती है। इसके अलावा इस इलाक़े में भी टेक्नॉलजी का इस्तेमाल ज़रूरी है। लाइसेंस देने के मापदंड और प्रक्रिया साफ़ सुथरी, सटीक और पारदर्शी होनी चाहिए,जिसका एक एक रिकॉर्ड इंटरनेट पर होना चाहिए। किसे किस गाड़ी के लिए किस आधार पर लाइसेंस मिल रहा है।
सरकार की तरफ़ से एक और कोशिश दिखनी चाहिए। वो है पैदल यात्रियों की सुरक्शा और उन्हें मिल रही तरजीह। ना सिर्फ़ उनके लिए फ़ुटपाथ साफ़ करवाए जाने चाहिए, बल्कि उनके लिए सड़क पार करने के सेफ़ रास्ते बनाए जाने चाहिए।
और साथ में गाड़ियों के ड्राइवरों को याद दिलाया जाए कि पैदल यात्रियों के अधिकार क्या हैं। हादसों की सूरत में लागू होने वाले क़ानून को कड़ा करने की ज़रूरत भी है। ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने की सूरत में ज़्यादा बड़ा चालान भी, क्योंकि असल समाधान लोगों से ही आने वाला है। सड़क पर जान लेने के लिए सरकारें सड़क पर ड्राइव करने नहीं आती हैं। लोग जाते हैं, अपनी गाड़ियों के साथ, लापरवाह, बेपरवाह वो आम लोग जिनके लिए ट्रैफ़िक नियमों की कोई अहमियत नहीं है, या उन नियमों को तोड़ने में फ़ख़्र महसूस करते हैं।
वैसे लिस्ट अभी लंबी है जिनकी उम्मीद मुझे सरकार से है, और इंतज़ार भी।
सड़कें दुनिया की सबसे ख़ूनी सड़कें बनी रहेंगी। कब तक हम रोड सेफ़्टी को इतने हल्के में लेते रहेंगे, कब तक हिंदुस्तानियों की जान की अहमियत को इतना कम आंकते रहेंगे।
अलग अलग आंकड़ों का औसत भी लें तो देश की सड़कों पर हर साल सवा लाख से ज़्यादा लोग अपनी जान सड़क हादसे में गंवा देते हैं। और अब तक अगर सरकारों का रवैया देखें तो लगेगा कि इन जानों की फ़िक्र सरकार को नाम मात्र की ही है, कागज़ों में, ख़ानापूर्ति में। लेकिन सड़क हादसे में एक मंत्री की मौत के बाद अचानक लग रहा है कि तस्वीर शायद बदले।
अचानक सा लगने लगा है कि इस बार शायद कुछ अलग है, सवा लाख मौत पर जैसा रवैया अब तक सरकारों का देखने को मिलता रहा है,पता नहीं क्यों उम्मीद हो रही है, या कमसेकम ऐसा लग रहा है कि अब चारों ओर से चर्चा शुरू होगी, कोशिशें शुरू होंगी समाधान निकालने की और कुछ ठोस क़दम उठाए जाएंगे। लोगों की जान की क़ीमत समझी जाएगी, ट्रैफ़िक सेफ़्टी नियमों को लागू करने में कड़ाई बरती जाएगी, सड़कों के डिज़ाइन की ख़ामियां दूर की जाएंगी और सेफ़्टी को सबसे बड़ी प्राथमिकता माना जाएगा।
इस उम्मीद की वजह साफ़ है, एक तो इस बार किसी आम आदमी या नेता की हादसे का शिकार नहीं हुआ है। इस बार हादसे में मौत एक मंत्री की भी हुई है। और हादसे की तस्वीर लगभग वैसी ही, जैसी हमें हर रोज़ देखने की आदत है। क्रॉसिंग से गुज़रती दो गाड़ियां, एक की रफ़्तार ज़्यादा, कोई एक लापरवाह और कोई बेपरवाह। नतीजा मौत। इस बार दिल्ली के चौराहे पर ऐसा देखा गया है।
दूसरी वजह है सरकार का नया होना। अभी जिस तरीके से सालों बाद फिर से सरकार में आई एनडीए में जोश दिख रहा है, कई मुद्दों पर सकारात्मक ऐलान सुनने को मिले है, हालांकि कार्रवाई का इंतज़ार है, उसे देखकर लग रहा है कि गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद सरकार कुछ क़दम उठाए, जिससे सड़कें ज़्यादा सुरक्शित हों।
सबसे अहम तो ट्रैफ़िक नियमों का पालन ही है। ये समझते हुए कि सभी हाईवे, सड़कों या चौराहों पर ट्रैफ़िक पुलिस को तैनात करना नामुमकिन है। हर स्पॉट पर पुलिस कर्मी हों तो भी ज़रूरी नहीं कि सभी नियम तोड़ने वाले उनकी नज़र में आ जाएं, या वो सभी को पकड़ पाएं। तो इसका समाधान टेक्नॉलजी ही हो सकती है। जहां सबसे पहले स्पीड कैमरे लगाने की ज़रूरत है। सबसे पहले देश की उन ख़ूनी सड़कों को कैमरे से लैस किया जाना चाहिए, जहां पर रिकॉर्ड के मुताबिक सबसे ज़्यादा सड़क हादसे होते हैं। वहां पर कैमरे से लोगों पर एक अंकुश लगेगा कि वो स्पीड लिमिट को ना तोड़ें, या नियम ना तोड़ें। इससे चप्पे चप्पे पर पुलिसवालों की तैनाती से छुट्टी मिलेगी।
इसके बाद लाइसेंसिग की पूरी प्रक्रिया को फिर से देखने की ज़रूरत है। बिना काबिलियत के ड्राइविंग लाइसेंस देना बंद किया जाना चाहिए, जिसके लिए लाइसेंस से पहले ट्रेनिंग भी अनिवार्य की जा सकती है। इसके अलावा इस इलाक़े में भी टेक्नॉलजी का इस्तेमाल ज़रूरी है। लाइसेंस देने के मापदंड और प्रक्रिया साफ़ सुथरी, सटीक और पारदर्शी होनी चाहिए,जिसका एक एक रिकॉर्ड इंटरनेट पर होना चाहिए। किसे किस गाड़ी के लिए किस आधार पर लाइसेंस मिल रहा है।
सरकार की तरफ़ से एक और कोशिश दिखनी चाहिए। वो है पैदल यात्रियों की सुरक्शा और उन्हें मिल रही तरजीह। ना सिर्फ़ उनके लिए फ़ुटपाथ साफ़ करवाए जाने चाहिए, बल्कि उनके लिए सड़क पार करने के सेफ़ रास्ते बनाए जाने चाहिए।
और साथ में गाड़ियों के ड्राइवरों को याद दिलाया जाए कि पैदल यात्रियों के अधिकार क्या हैं। हादसों की सूरत में लागू होने वाले क़ानून को कड़ा करने की ज़रूरत भी है। ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने की सूरत में ज़्यादा बड़ा चालान भी, क्योंकि असल समाधान लोगों से ही आने वाला है। सड़क पर जान लेने के लिए सरकारें सड़क पर ड्राइव करने नहीं आती हैं। लोग जाते हैं, अपनी गाड़ियों के साथ, लापरवाह, बेपरवाह वो आम लोग जिनके लिए ट्रैफ़िक नियमों की कोई अहमियत नहीं है, या उन नियमों को तोड़ने में फ़ख़्र महसूस करते हैं।
वैसे लिस्ट अभी लंबी है जिनकी उम्मीद मुझे सरकार से है, और इंतज़ार भी।
Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कुछ दिनों पहले छपी थी।
No comments:
Post a Comment