October 30, 2012

नाम में क्या रखा है...


पसंद और पहचान का ग्लोबलाइज़ेशन
काफ़ी विविधता भरा हफ़्ता रहा। एक ही हफ़्ते में जब मुझे तीन अलग अलग तरह की गाड़ी चलाने को मिले, जिन्हें लगभग एक जैसे सेगमेंट में अलग अलग कंपनियों ने अलग अलग लेवल पर उतारा है, जिनकी क़ीमत में कई गुना का फ़र्क है और प्रदर्शन में भी, तो लगता है कि गाड़ियों का दर्शनशास्त्र कहीं ज़्यादा पेचीदा हो जाता है, वो क्यों आगे बताता हूं। वैसे ऐसा नहीं कि तीनों में से कोई ऐसी है जिस पर ख़ासकर अलग से आपको बताना चाहता था लेकिन एक ही साथ ये तीनों ज़ेहन में आ रही थीं और साथ में कहीं ना कहीं तुलना भी। वैसे पहली नज़र में इन तीनों को एक ख़ाने में रखना थोड़ा हास्यास्पद ज़रूर लगेगा। हो सकता है कि बेतुका। क्योंकि भले ही इसे नाम दिया गया हो कौंपैक्ट स्पोर्ट्स यूटिलिटी कारों का जिनका मैं ज़िक्र कर रहा हूं, लेकिन तीनों को नज़दीक से देखें तो पता चलेगा कि ये सब मिथ्या है। तीनों को किसी एक तकनीकी नामकरण की वजह से भले ही साथ में जोड़ा जाए लेकिन ये बहुत अलग हैं। और ब्रांड और क़ीमत देखें तो लगेगा कि कहानी कितनी अलग है। एक तरफ़ बीएमडब्ल्यू है, फिर ऑडी है और एक तरफ़ महिंद्रा। जर्मन महारथी बीएमडब्ल्यू का एक ब्रांड है मिनी है, उसकी कार मिनी कूपर एस कंट्रीमैन मैंने चलाई। जिसकी क़ीमत लगभग 32 लाख रु है। वहीं ऑडी की क्यू थ्री एक नई छोटी एसयूवी है कंपनी की ओर से। ये भी 27 लाख रु से ऊपर से शुरू होती है। इन सबके बीच महिंद्रा की नई क्वांटो चलाने का । अब इसकी क़ीमत पौने छह लाख रु से शुरू हो रही है। ऐसे में अगर मैं ये कहूं कि एक बेहतर है और दूसरी नहीं। मतलब ये कहना कि मिनी और ऑडी क्या शानदार है और क्वांटो कितनी फिसड्डी बेमानी है। समझने में कोई मुश्किल चीज़ नहीं कि क्वांटो से पांच गुना ज़्यादा क़ीमत वाली कार पांच गुना बेहतर होगी, ये सीधा और सहज गणित है, जिसे ग़लत भी नहीं कहूंगा मैं । लेकिन केवल क़ीमत, ब्रांड और महंगे फ़ीचर्स की वजह से तुलना ना ही हो ऐसा सोचना भी एकतरफ़ा है। दरअसल हाल फ़िलहाल में मैंने हिंदुस्तानी ग्राहकों को थोड़ा और बदलते देखा है। जिनकी पसंद में कई और पहलू जुड़े हैं, उन्होंने ग्लोबल स्वाद चख लिया है और वो बारीकियां पहचानने भी लगे हैं और ज़ाहिर भी करने लगे हैं। जो गाड़ियों और मोटरसाइकिलों में भी हुआ है। बीएचपी और टॉर्क के बारे में तो हिंदुस्तानी ग्राहक बात करने ही लगे हैं साथ में गाड़ी के तकनीकी प्रदर्शन पर भी कड़ी निगाह रखने लगे हैं। वो अब हाईटेक फ़ीचर से मिलने वाली सुविधा, गाड़ी की हैंडलिंग पर भी सटीक टिप्पणी कर रहे हैं। और ये सब हुआ है हर सेगमेंट में ग्लोबलाइज़ेशन की वजह से। कहने का मतलब है दुनिया की अलग अलग कंपनियों की गाड़ियों की भारत में एंट्री पिछले कुछ वक्त से कहीं बढ़ गया है, और उन्होंने हमारे स्वाद-बोध में कुछ नया जोड़ा है। जिसमें दो चीज़ें ख़ास लगती हैं, एक तो रिफ़ाइनमेंट ( जिसमें बनावट, डिज़ाइन से लेकर गाड़ी की चाल तक शामिल है) और दूसरा प्रदर्शन ( जिसमें इंजिन से निकलने वाली ताक़त से लेकर आड़े-तिरछे रास्तों पर चलने की क्षमता शामिल है)। ये दोनों पहलू इसलिए याद आए क्योंकि ये वो इलाक़े हैं जहां पर शुद्ध भारतीय गाड़ी कंपनियां अब भी संघर्ष कर रही हैं। और मैं ये सिर्फ़ कारों और एसयूवी तक सीमित नहीं रख रहा हूं, मैं मोटरसाइकिलों की भी बात कर रहा हूं। आज इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आज ज़रूरत और ज़्यादा बढ़ गई है भारतीय कंपनियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय रिफ़ाइनमेंट के साथ कंपीट करने की। वो इसलिए क्योंकि खुले बाज़ार, बेहतर होती सड़कों और ख़रीदने की बढ़ती ताक़त के बीच एक और चुनौती है उनके लिए। वो है बहुत ही आक्रामक क़ीमत पर ग्लोबल प्रोडक्ट भारत में आ रहे हैं, चाहे  वो दो पहिए हों या फिर चार पहिए। जो हिंदुस्तानी बाज़ार को कम बदल पा रहे हैं, हिंदुस्तानियों को ज़्यादा। 

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October 29, 2012

लिस्ट अभी बाक़ी है...

त्यौहारों का मौसम इस बार कुछ ख़ास ही है गाड़ी कंपनियों के लिए। जहां पर मंदी की कंपकपाती ज़मीन पर
क़दम मज़बूत करने के लिए कंपनियों को कुछ नया करने की बहुत सख़्त ज़रूरत है। और इसी सोच के साथ
हम देख रहे हैं कि दशहरे से ठीक पहले गाड़ी कंपनियों ने ढेरो गाड़ियां उतार दी। एक हफ़्ते में हमने देखा कि छह नई गाड़ियां लौंच कर दी गई हैं। जो हर तरीके के सेगमेंट की गाड़ियां हैं। जहां पर चिर-परिचित ऑल्टो अब नए ऑल्टो 800 के नाम के साथ आ गई है बाज़ार में वहीं लौंच का दूसरा सिरा महिंद्रा की कंपनी सैंगयौंग की उतारी रेक्सटन थी। जो थोड़े प्रीमियम एसयूवी बाज़ार में आई है। तो मशक्कत सभी तरफ़ से दिख रही है। ऑल्टो 800 की क़ीमत लगभग पुरानी ऑल्टो जैसी ही है। और इस क़ीमत में कंपनी ने कमसेकम कोशिश में नया से नया करने की कोशिश की है। लुक को नया किया है और अंदर भी। 2 लाख 44 हज़ार रु से शुरू हुई है। वहीं ऑल्टो 800 CNG की क़ीमत की शुरूआत 3 लाख 19 हज़ार से हुई है। वैसे हौंडा के पास ऐसा कोई नया प्रोडक्ट तो नहीं था लेकिन कुछ बदलाव के साथ कंपनी ने छोटी कार ब्रियो को ऑटोमैटिक ट्रांसमिशन के साथ उतारा है। जहां क़ीमत की शुरूआत हो रही है 5 लाख 74 हज़ार से , दूसरा ऑटोमैटिक 5 लाख 99 हज़ार में आ रहा है।

बड़ी कारों के इलाके में एक बदलाव दिखा है टाटा की ओर से। जो अपनी मांज़ा का एक क्लब क्लास वेरिएंट लेकर आई है। इसके पेट्रोल और डीज़ल वेरिएंट की क़ीमतें 5 लाख 70 हज़ार से 6 लाख 49 हज़ार के बीच है।
लेकिन हां एक बड़ा लौंच जिसका इंतज़ार बहुत लंबा खिंच गया था वो भी दिखा इस हफ़्ते। टाटा मोटर्स ने अपनी स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेह्किल सफ़ारी को नए रंग-रूप में उतार दिया है। सफ़ारी स्टॉर्म के नाम से। अब ये एक ऐसी गाड़ी रही है जिसने लंबे वक्त तक टाटा का साथ दिया है। हिंदुस्तानी ग्राहकों के एसयूवी के शौक को पूरा किया है। लेकिन पिछले कुछ सालों में ये सेगमेंट बदल गया है। स्कॉर्पियो ने ग्राहकों के लिए नया विकल्प दिया और पिछले दो साल में हमने इस सेगमेंट में कई नए एसयूवी की चर्चा सुन ली है। सभी कंपनी सस्ती एसयूवी के इलाके में पैर जमाने में लगी हुई हैं वहीं टाटा मोटर्स ने इस इलाक़े में ज़्यादा कुछ किया नहीं। नतीजा ये रहा कि एक वक्त में अपने रौबीले रंग-रूप की वजह से पसंद की जाने वाली सफ़ारी पुरानी हो गई। जिस नए अवतार को स्टॉर्म के तौर पर उतारा गया है वो काफ़ी दिनों से तैयार हो रही थी लेकिन ना जाने क्या वजह रही कि टाटा मोटर्स ने इतनी देरी की। जिसका असर ज़रूर पड़ेगा इसकी बिक्री पर क्योंकि इस बीच कई सुपरहिट प्रोडक्ट इस सेगमेंट में आ चुके हैं। एक तरफ़ रिनॉ की डस्टर है तो दूसरी ओर महिंद्रा की एक्सयूवी है। ऐसे में टाटा  कैसे वापसी कर पाएगी, ये सवाल तो है। क्योंकि इसकी क़ीमत भी थोड़ी ज़्यादा ज़रूर है फ़िलहाल। जिसकी क़ीमत शुरू हो रही है 9 लाख 95 हज़ार रु से। वैसे ये बात और है कि पुरानी सफ़ारी भी बाज़ार में बरकरार रहेगी।

तो एक हफ़्ते में छह लौंच के बाद भी कहानी ख़त्म नहीं हुई है। कई और आ सकते हैं, और जो नए नहीं हैं उनके भी इश्तेहार अख़बारों में दिखेंगे ही, डिस्काउंट ऑफ़र के साथ।

((पिछले हफ़्ते लिखी थी..))

October 24, 2012

बस का रस !!


बदलती हवा, सुबह शाम में गुनगुनी हवा में छुप कर चुपके से आने वाला ठंडा झोंका। धूप का पीला होता रंग और छोटे होते दिन। जब तापमान और रौशनी मन को समय और भूगोल से कहीं दूर और अलग ले जाता है। ये मौसम, साल का वो वक्त है, जब मुझे एक गाड़ी सबसे ज़्यादा याद आती है। जो कोई कार या बाइक नहीं एक बस है। कोई आम बस नहीं, ख़ास। जो दशहरे में मुझे गांव ले जाती थी। जिस त्यौहार और गांव के मेले का साल भर इंतज़ार होता था बचपन में। उस समय सिर्फ़ बस ही ज़रिया थी, पटना से मधुबनी को जोड़ने के लिए। राज्या ट्रांसपोर्ट की बसें और प्राइवेट। जर्जर हालत में चलने वाली सरकारी बसें जिन पर लिखे क्रैक सेवा को कभी समझ नहीं पाया था, लेकिन तब लगता था कि बसें टूटी-फूटी-क्रैक हालत में होती थीं इसलिए उनका नाम ऐसा है। उनपर सफ़र बेरस लगता था। जो बेरंगे बस स्टैंड से निकलती और पहुंचती थीं। जाने का असल रस आता था उस बस में जिसे आज आपके साथ बांट रहा हूं। पटना के हार्डिंग पार्क से निकलने वाली ये बसें एक ख़ास रंग के कॉंबिनेशन में आती थीं। तीन पट्टियां ख़ास तौर पर बस के चारो ओर लिपटी होती थी। लाल और भूरे रंग को मिलाकर बना ईंट का रंग और गाढ़ा ग्रे, जिसमें एक नीलापन था और नीला, जो आसमानी से लेकर गाढ़े नीले तक जाता था, हालांकि तीसरे रंग के बारे में बहुत पक्का नहीं हूं। क्योंकि दशक से ज़्यादा हो गया इन बसों को उस रंग-रूप में देखे हुए। जिनपर लिखा होता था तिरुपति ट्रैभल्स और सामने लिखा होता था शाही तिरुपति। इन पर सीट मिलना आपकी क़िस्मत और जुझारुपन पर निर्भर करता था। और पहियों पर चढ़कर, खिड़की के रास्ते रुमाल या तौलिया रखकर, सीट लूटने का कर्मकांड सफल हो जाता था तो फिर ज़िंदगी बदल जाती थी। अचानक ब्लैक एंड व्हाइट से कलर टीवी की तरह। बस के बाहर दुश्मन दिखने वाले लोग अब इंसान लगने लगते थे, सहयात्री हो जाते थे। बस का कंडक्टर अपने ही परिवार का हिस्सा लगने लगता था। नज़रें गड़ जाती थीं ड्राइवर वाले केबिन में गतिविधियों पर। ड्राइवर की बारीक समीक्षा के साथ। देखने में ही धाकड़। आजकल के बस ड्राइवरों से कहीं ज़्यादा संभ्रांत। बुलंद बनावट और चकाचक सफ़ेद कलफ़ वाले धोती-कुर्ता में। कुर्ते की बांह में चुन्नट किया हुआ। उसकी हर मूवमेंट पर लगता था कि अब बस चलेगी। और मैं चौकन्ना होकर खिड़की से अपने पिताजी को काउंटडाउन देता रहता था। जिनकी आदत थी कि बस या ट्रेन में आख़िर वक्त तक नहीं चढ़ने की। ये ड्राइवर कम बोलते थे और इशारों में कंडक्टर के सवाल जवाब करते थे। ऐसे में ये समझना मुश्किल था कि बस कब चलेगी। कई बार के फॉल्स अलार्म के बाद बस चलना आमतौर पर तब तय होता था, जब ड्राइवर ने कुर्ते की बांह समेट कर मुंह में एक पान दबा ली होती थी। और फिर सफ़र की होती थी शुरूआत। इसके बाद क्या होता था ये समझना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि आपका भी कोई ऐसा सफ़र होगा, जो ऐसे ही आपको बार बार याद आता होगा। वैसी ही उत्सुकता, आश्चर्य और ख़ुशी का पैकेट लाता होगा। रास्ते की मुश्किलें और हिचकोले, कभी ना भूलने वाले मंज़र और सफ़र में मिले अच्छे इंसान। आपको भी याद होगा। पता नहीं कि वो बसें आजकल चल भी रही हैं या नहीं, लेकिन मैं आज भी उसी सफ़र पर हूं।