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और पहचान का ग्लोबलाइज़ेशन
काफ़ी
विविधता भरा हफ़्ता रहा। एक ही हफ़्ते में जब मुझे तीन अलग अलग तरह की गाड़ी चलाने
को मिले, जिन्हें लगभग एक जैसे सेगमेंट में अलग अलग कंपनियों ने अलग अलग लेवल पर
उतारा है, जिनकी क़ीमत में कई गुना का फ़र्क है और प्रदर्शन में भी, तो लगता है कि
गाड़ियों का दर्शनशास्त्र कहीं ज़्यादा पेचीदा हो जाता है, वो क्यों आगे बताता हूं।
वैसे ऐसा नहीं कि तीनों में से कोई ऐसी है जिस पर ख़ासकर अलग से आपको बताना चाहता
था लेकिन एक ही साथ ये तीनों ज़ेहन में आ रही थीं और साथ में कहीं ना कहीं तुलना
भी। वैसे पहली नज़र में इन तीनों को एक ख़ाने में रखना थोड़ा हास्यास्पद ज़रूर
लगेगा। हो सकता है कि बेतुका। क्योंकि भले ही इसे नाम दिया गया हो कौंपैक्ट
स्पोर्ट्स यूटिलिटी कारों का जिनका मैं ज़िक्र कर रहा हूं, लेकिन तीनों को नज़दीक
से देखें तो पता चलेगा कि ये सब मिथ्या है। तीनों को किसी एक तकनीकी नामकरण की वजह
से भले ही साथ में जोड़ा जाए लेकिन ये बहुत अलग हैं। और ब्रांड और क़ीमत देखें तो
लगेगा कि कहानी कितनी अलग है। एक तरफ़ बीएमडब्ल्यू है, फिर ऑडी है और एक तरफ़
महिंद्रा। जर्मन महारथी बीएमडब्ल्यू का एक ब्रांड है मिनी है, उसकी कार मिनी कूपर
एस कंट्रीमैन मैंने चलाई। जिसकी क़ीमत लगभग 32 लाख रु है। वहीं ऑडी की क्यू थ्री
एक नई छोटी एसयूवी है कंपनी की ओर से। ये भी 27 लाख रु से ऊपर से शुरू होती है। इन
सबके बीच महिंद्रा की नई क्वांटो चलाने का । अब इसकी क़ीमत पौने छह लाख रु से शुरू
हो रही है। ऐसे में अगर मैं ये कहूं कि एक बेहतर है और दूसरी नहीं। मतलब ये कहना
कि मिनी और ऑडी क्या शानदार है और क्वांटो कितनी फिसड्डी बेमानी है। समझने में कोई
मुश्किल चीज़ नहीं कि क्वांटो से पांच गुना ज़्यादा क़ीमत वाली कार पांच गुना
बेहतर होगी, ये सीधा और सहज गणित है, जिसे ग़लत भी नहीं कहूंगा मैं । लेकिन केवल
क़ीमत, ब्रांड और महंगे फ़ीचर्स की वजह से तुलना ना ही हो ऐसा सोचना भी एकतरफ़ा
है। दरअसल हाल फ़िलहाल में मैंने हिंदुस्तानी ग्राहकों को थोड़ा और बदलते देखा है।
जिनकी पसंद में कई और पहलू जुड़े हैं, उन्होंने ग्लोबल स्वाद चख लिया है और वो
बारीकियां पहचानने भी लगे हैं और ज़ाहिर भी करने लगे हैं। जो गाड़ियों और
मोटरसाइकिलों में भी हुआ है। बीएचपी और टॉर्क के बारे में तो हिंदुस्तानी ग्राहक
बात करने ही लगे हैं साथ में गाड़ी के तकनीकी प्रदर्शन पर भी कड़ी निगाह रखने लगे
हैं। वो अब हाईटेक फ़ीचर से मिलने वाली सुविधा, गाड़ी की हैंडलिंग पर भी सटीक
टिप्पणी कर रहे हैं। और ये सब हुआ है हर सेगमेंट में ग्लोबलाइज़ेशन की वजह से।
कहने का मतलब है दुनिया की अलग अलग कंपनियों की गाड़ियों की भारत में एंट्री पिछले
कुछ वक्त से कहीं बढ़ गया है, और उन्होंने हमारे स्वाद-बोध में कुछ नया जोड़ा है।
जिसमें दो चीज़ें ख़ास लगती हैं, एक तो रिफ़ाइनमेंट ( जिसमें बनावट, डिज़ाइन से
लेकर गाड़ी की चाल तक शामिल है) और दूसरा प्रदर्शन ( जिसमें इंजिन से निकलने वाली
ताक़त से लेकर आड़े-तिरछे रास्तों पर चलने की क्षमता शामिल है)। ये दोनों पहलू
इसलिए याद आए क्योंकि ये वो इलाक़े हैं जहां पर शुद्ध भारतीय गाड़ी कंपनियां अब भी
संघर्ष कर रही हैं। और मैं ये सिर्फ़ कारों और एसयूवी तक सीमित नहीं रख रहा हूं,
मैं मोटरसाइकिलों की भी बात कर रहा हूं। आज इसका ज़िक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि
आज ज़रूरत और ज़्यादा बढ़ गई है भारतीय कंपनियों के लिए अंतर्राष्ट्रीय
रिफ़ाइनमेंट के साथ कंपीट करने की। वो इसलिए क्योंकि खुले बाज़ार, बेहतर होती
सड़कों और ख़रीदने की बढ़ती ताक़त के बीच एक और चुनौती है उनके लिए। वो है बहुत ही
आक्रामक क़ीमत पर ग्लोबल प्रोडक्ट भारत में आ रहे हैं, चाहे वो दो पहिए हों या फिर चार पहिए। जो
हिंदुस्तानी बाज़ार को कम बदल पा रहे हैं, हिंदुस्तानियों को ज़्यादा।
www.twitter.com/krantindtv
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