November 08, 2011

फ़ॉर्मूला पर फ़साद ...WHY ???



फ़ॉर्मूला वन रेस को जब सामने से देखें तो सबसे पहले जिस चीज़ को आप महसूस करेंगे, जो आमतौर पर लोगों के रौंगटे खड़े कर देती है, वो है उन कारों की आवाज़। और कुछ चक्कर (जिसे एफ 1 की भाषा में लैप कहते हैं) के बाद जब आवाज़ की थोड़ी आदत हो जाए तो फिर नज़र जाती है उन बाईस कारों पर, जो एक जैसी, लेकिन बहुत तेज़ रफ़्तार में रेसट्रैक का चक्कर काटती भागती रहती हैं। अगर आप इस रेस को सिर्फ़ एक अजूबे की तरह देखने गए हैं तो फिर ये वो बिंदु होता है जिसके बाद से आपकी दिलचस्पी कम होने लगती है। आप इस रेस के पैटर्न को समझ कर, तेज़ आवाज़ की वजह से सरदर्द के साथ रेसट्रैक से बाहर जा सकते हैं। लेकिन अगर आप गए हैं, इस ईवेंट को एक नए खेल की तरह देखने के लिए। ये समझने के लिए कि आख़िर क्यों ये खेल दुनिया भर में सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले खेलों में टॉप पर है... क्या है ऐसा जो इसे सबसे महंगा बनाता है और क्या इसकी अहमियत है, तो कुछ बातें सामने आती हैं। जिनमें पश्चिमी संस्कृति के दो ख़ास पहलू भी हैं। एक तो है कांपिटिशन और दूसरा अनुशासन। कांपिटिशन ये कि कौन कितनी तेज़ कार बना सकता है और कौन इसे सबसे तेज़ भगा सकता है। लेकिन जो हिस्सा अजूबा लगता है वो है अनुशासन। वो अनुशासन जो कारों को तेज़, ड्राइवरों को संयमित और रेस को सुरक्षित बनाता है। कार, हेलमेट, रेसिंग के लिए कपड़े, टायर, कार की बॉडी और बेहद कड़े नियम, इन सबको तैयार करने के पीछे सिर्फ़ एक मक़सद कि कैसे इस रेस को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित बनाया जाए। मुझे ये उम्मीद थी कि इसी पहलू पर शायद लोगों की नज़र जाए, ट्रैक के अनुशासन का थोड़ा असर आम भारतीय सड़कों पर दुहराने की बात की जाए। भारत में इस रेस का आना, साफ़ है कि बढ़ते मार्केट और बिज़नेस की गुंजाईश की वजह से ही हुआ है, लेकिन है ये एक बड़ी विडंबना। सोचिए एक खेल, जिससे जुड़े हज़ारों लोग साल भर दो ही चीज़ों के बारे में सोचते हैं कि कैसे इन कारों को ज़्यादा से ज़्यादा तेज़ और सुरक्षित बनाया जाए, यही वजह कि कि 360 किमी की रफ़्तार में चलने वाली कारों के साथ भी पिछले 27 सालों से किसी की जान नहीं गई है, वो उस देश में आता है जहां पर दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं। एक लाख बीस हज़ार मौत सालाना। जिसकी चर्चा नहीं होती है, सरकारी मंत्रालयों, मीडिया या फिर ऑटोमोबील कंपनियों के द्वारा। ना तो सरकार लाइसेंस देने में कड़ाई की बात करती है, लाइसेंस जारी करने वाले आफ़िसों को दलालों से मुक्त कराती है और ना ही पैसे देकर लाइसेंस बनाने के ऊपर मीडिया का कोई स्टिंग ऑपरेशन होता है। क्योंकि ये किसी के लिए मुद्दा नहीं है। हालत ये है कि पिछले हफ़्ते मुंबई में एक शख़्स को लापरवाही से स्कूटर चलाने के आरोप में बंद कर दिया पुलिस ने, वो भी तब जब सड़क हादसे में उसकी मां की मृत्यु हो गई । दरअसल वो अपनी मां के साथ जा रहा था, सड़क के बीचोबीच गड्ढे की वजह से स्कूटर गिर गया, और मां की मौत हो गई। लेकिन इन सबके उलट बहस की अलग ही दिशा दिखी। तमाम तर्क सुनने को मिल रहे हैं इस खेल के ख़िलाफ़।

कुछ दिनों पहले तक फेसबुक पर कई ऐसे संदेश आ रहे थे आख़िर क्यों हो रहा है फ़ॉर्मूला वन भारत में और इससे किसका भला होगा। ग़रीबों का क्या भला होगा और किसानों का क्या भला होगा ? चूंकि ये सोच केवल कुछ आम हिंदुस्तानियों की नहीं थी। अचानक कई बौद्धिक भी इस खेल की आलोचना में उतर गए। बिना ये सोचे कि अगर एफ़-1 ग़रीबों और किसानों का भला करने लगेगा तो वो क्या करेंगे जिन्हें इस काम के लिए सरकार पैसे देती है। वो शायद भूल गए कि ये फ़ॉर्मूला वन, यूनाइटेड नेशन का उपक्रम नहीं है। कई क्रिकेट प्रेमियों को बर्नी एक्लेस्टन की वो बात बड़ी नागवार गुज़री कि भारत में एफ1 एक दिन क्रिकेट के बराबर लोकप्रिय हो जाएगा। वो लगे एफ 1 के मुखिया के बयान की धुलाई करने। सवाल तो ये भी उठता है कि आख़िर आईपीएल से कितने लोगों को रोज़गार मिलता है, क्रिकेट से कितने ग़रीबों का भला होता है। आईपीएल में तो शुरू में कुछ प्रतिभाशाली बालाओं की जगह भी थी, लेकिन अब तो वहां भी सभी विदेशी प्रतिभाएं नाचती दिखती हैं।
पता नहीं चल रहा है कि विरोध हो रहा है तो क्यों हो रहा है आख़िर भारत की किस परंपरा को ये चोट पहुंचा रहा है और किन मूल्यों का ह्रास हो रहा है इस खेल से जो सिर्फ़ एक खेल नहीं बल्कि ऑटोमोबील टेक्नॉलजी की एक तरह से प्रयोगशाला भी है। यहां से निकलने वाली टेक्नॉलजी कमसेकम आने वाले समय में आम गाड़ियों में तो अपनाई जाती है। इस रेस केआयोजन में देश की इज़्ज़त दांव पर नहीं लगी थी, कमसेकम वैसे नहीं जैसे कॉमनवेल्थ या वर्ल्ड कप क्रिकेट पर थी, इसीलिए जब इसका सफल आयोजन हो भी गया तो उसका रिश्ता देश के गौरव से नहीं जोड़ा गया, बल्कि मोटरस्पोर्ट्स के लिए बढ़ते फैन्स की संख्या और प्राइवेट कंपनियों के प्रबंधन की कुशलता से जोड़ा गया। इस पर कोई दो राय नहीं कि ये बाज़ार है, रेस एक व्यापार है। लेकिन ये भी समझने वाली बात है कि स्पांसर भी उसी पर पैसे लगाते हैं जिसमें गुंजाईश होती है। खेल और बाज़ार के नाम पर तो और भी दुकान चल ही रही है, इसे भी चलने दीजिए। इससे कुछ सीखने को तो मिल रहा है। 

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