June 08, 2012

इसे कहेंगे Petro-Guilt :)

थोड़ा अपराध बोध हो रहा है। जिस बारे में आज आपसे अपने विचार बांटने की सोच रहा हूं वो आज के समय में थोड़ी अटपटी बात है। थोड़ी अव्यवहारिक भी। लेकिन जीवन में अव्यवहारिक चीज़ें ही कई बार बहुत रोमांचक भी होती हैं। जैसा कि फ़ॉर्मूला वन ट्रैक पर रेस कार ड्राइव करना है। इस जानकारी के साथ कि सरकार ने पेट्रोल की क़ीमतों में प्रतिलीटर साढ़े सात रु की बढ़ोत्तरी कर दी है तब मैं मोटरस्पोर्ट की कैसे बात कर सकता हूं। सरकार ने जब डीज़ल और गैस पर से सब्सिडी ख़त्म करने के लिए संकेत दे दिए हैं तब मैं कैसे माइलेज की जगह रफ़्तार और टॉप स्पीड की बात कर सकता हूं। लेकिन इस अपराध बोध के साथ भी लग ज़रूर रहा है कि ये अनुभव आपके साथ बांटूं। एक पेट्रोल पर भागने वाली रेस कार चलाने का। फ़ॉर्मूला वन ट्रैक पर ड्राइव का। वो ट्रैक जहां पर दुनिया की सबसे तेज़ कारें भागती हैं। जहां पर हम अपने सामने साढ़े तीन सौ किमी प्रतिघंटे की रफ़्तार में जाती कार को देख सकते हैं । जिसके बाद ड्राइवर की काबिलियत, हिम्मत और टेक्नॉलजी की तारीफ़ करते हुए हफ़्ते गुज़ार सकते हैं। ऐसे ट्रैक पर अगर गाड़ी भगाने का मौक़ा मिले तो कैसा रहे ? मैं बताऊं...बहुत अच्छा रहे। ऐसा कोई भी मौक़ा मिले तो तपाक से हां कर देनी चाहिए, सोच तो यही थी लेकिन जीवन इतना सरल नहीं इसीलिए काम के सिलसिले में मुझे एक-दो न्यौतों को मना करना पड़ा। ख़ैर मौक़ा बना और मैं दिल्ली की चंडाल गर्मी की ठीकठाक गर्म सुबह पहुंच गया बुद्धा इंटरनैशनल सर्किट पर। और मुझे इस ट्रैक पर चलानी थी पोलो कप कार। दरअसल फ़ोक्सवागन जेके टायर के साथ मिल कर एक रेसिंग सीरीज़ भारत में लाई है। इसे वन मेक रेस भी कह सकते हैं, जिसमें हर ड्राइवर एक ही गाड़ी चलाता है, यानि एक जैसी। दरअसल इस तरह की रेसिंग सीरीज़ में गाड़ियां आयोजक तैयार करते हैं और ड्राइवर को सिर्फ़ रेस करना होता है। इससे एक तरह से ड्राइवर की असल काबिलियत भी पता लगती है क्योंकि सभी ड्राइवर एक ही इंजिन, ताक़त और बनावट वाली कार दौड़ाता है। तो इस साल इस ख़ास ड्राइव का मक़सद ये था कि फोक्सवागन ने पोलो कप में दौड़ाने वाली कार को बदला है, पिछले दो साल जो डीज़ल पोलो दौड़ती थी वो अब बदल कर पेट्रोल हो गई है। लगभग सवा सौ हॉर्सपावर वाले डीज़ल इंजिन को बदल कर लगभग 180 हॉर्सपावर वाले पेट्रोल इंजिन में।



पेट्रोल की क़ीमतों में प्रतिलीटर साढ़े सात रु की बढ़ोत्तरी के बाद मोटरस्पोर्ट की बात कैसे हो। डीज़ल और गैस सब्सिडी ख़त्म करने के संकेत दे हैं तब माइलेज की जगह रफ़्तार और टॉप स्पीड की बात कैसे हो !!
ख़ैर इसमें रेस करने के लिए पहले तो ड्राइवर को काबिलियत दिखानी होती है और फिर 7 से 14 लाख रु सालाना फ़ीस देनी होती है। इसी के टेस्ट ड्राइव का मौक़ा था और हमारी बारी आते आते सूरज ने मूड और उग्र कर लिया था। और रेसिंग कारों में एसी तो होती नहीं और ऊपर से वीराने में बने रेसट्रैक पर गर्मी का आलम तो कुछ अलग ही होता है लेकिन चलाने का मज़ा ऐसा आता गया कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था मैं। दरअसल रेसट्रैक पर ड्राइव करने का सबसे पहला मतलब ये है कि आप अपनी और अपनी गाड़ी की सीमा जान सकते हैं। आप ज़्यादा से ज़्यादा किस रफ़्तार में जा सकते हैं, गाड़ी को तेज़ रफ़्तार में कैसे मोड़ सकते हैं और कम से कम समय में ट्रैक का चक्कर काट सकते हैं। और ये भावना वाकई चस्के वाली होती है क्योंकि रेसट्रैक सीधे तो होते नहीं, तुरत-फुरत तीखे मोड़ होते हैं और ऐसे में गाड़ी की रफ़्तार बनाए रखना बहुत चुनौती का काम होता है। कई मोड़ ऐसे होते हैं जहां पहिए ज़मीन छोड़ने लगते हैं और संभालना काफ़ी मुश्किल होता है। कुल मिलाकर कहें तो हमारे ड्राइविंग,संतुलन और काबिलियत को पूरा टेस्ट कर लेते हैं रेस ट्रैक। और ऐसे ट्रैक पर चलाते वक्त मुझे ये ही महसूस हो रहा था कि देश के हर शहर के बाहर एक ना एक छोटा-बड़ा रेसट्रैक होना ही चाहिए। जहां पर जाकर हम आप अपनी ड्राइविंग को सुधार सकें और वो ड्राइवर जो शहरों की सड़कों पर लोगों के बीच ख़ुद को माइकल शूमाकर साबित करने की कोशिश करते रहते हैं, उनकी ड्राइविंग की असलियत भी तो पता चले !

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