June 04, 2014

एक नए मेनिफ़ेस्टो की ज़रूरत



हर तरफ़ वादों और दावों के झंडे लहरा रहे हैं, बयानों और बहानों की बारिश हो रही है। ये मौसम है चुनावो का। जहां सभी ये जताने में लगे हैं कि आपकी फ़िक्र सबसे ज़्यादा की जा रही है, आपके एक वोट के लिए चांद तारे तोड़ कर लाने के वादे अब इतने पुराने हो गए हैं कि उन सबमें रोमांस बिल्कल ख़त्म हो गया है। अब सभी वोटर अपने अपने वोट को लेकर पहले कहीं ज़्यादा तैयार हैं, वोट के बदले में क्या मिल रहा है और क्या देना पड़ रहा है वो एक तौल रहे हैं। लेकिन अब ये कहने में भी कोई नयापन नहीं रह गया है कि अभी भी विचारधाराओं की लड़ाई के नाम पर वही स्कूली डिबेट चल रहा है जिसके पक्ष और विपक्ष में क्या क्या दलीलें देनी हैं वो युगों से नेता और जनता ने रट रखे हैं। वही आपको ट्विटर पर दिखेंग, वही फ़ेसबुक पर। तो ऐसे में, आज के वक्त में पॉलिटिक्स से अलग सोचना किसी भी उस इंसान के लिए मुश्किल है जो किसी भी तरीके के मीडिया से संपर्क में है। मास मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक। और पूरी बहस को देखते हुए मुझे लग रहा था कि कैसे इस बहस में वो मुद्दे अंट सकते हैं, जगह बना सकते हैं जो इतने सालों से नहीं बने। जिनकी वजह से एक तरफ़ तो लाख से ऊपर मरते हैं, लाखों घायल होते हैं, लाखों परिवार तबाह होते हैं और दूसरी ओर लोगों की बनावट को बदल रहा है, उन्हें आक्रामक बना रहा है और एक दूसरे के प्रति संवेदनहीन बना रहा है। 
 तो इस पूरी चर्चा के बीच लगता है कि एक और मेनिफ़ेस्टो है जिसके लिए जगह बनाने की ज़रूरत है। जिससे आने वाले वक्त मे देश की तस्वीर बेहतर हो। सड़क हादसों में हर साल जो सवा लाख से ज़्यादा लोग मारे जाते हैं, दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग भारत में सड़कों पर दम तोड़ते हैं, एक ऐसा मेनिफ़ेस्टो जो उस कलंक को मिटाने की कोशिश करे। ये मेनिफ़ेस्टो है सड़क का मेनिफ़ेस्टो। 
लाइसेंस - सबसे पहले ज़रूरत है हमारी ड्राइविंग को ईमानदार बनाने की। देश के तमाम लाइसेंसिंग ऑथोरिटी में दलालों का कैसा साम्राज्य चलता है इसके बारे ना जाने कितनी बार लिखा-पढ़ा जा चुका है। लेकिन कैसे आसानी से बिना टेस्ट के लाइसेंस मिल जाते हैं, वो लाइसेंस जो किसी को भी सड़क पर गाड़ी लेकर जाने की इजाज़त दे देता है, चाहे वो मारुति ८०० या ऑल्टो है या फिर फ़ेरारी और लैंबोर्गिनी। चाहे ४० हॉर्सपावर की गाड़ी हो या ४०० की। चाहे स्प्लेंडर हो या हायाबूसा। और बिना ट्रेनिंग और बिना टेस्ट के मिले इस लाइसेंस का ख़तरा वैसा ही है जैसा कि बच्चे के हाथ में असल पिस्तौल देना है, बिना इसकी परवाह किए कि इससे किसी की जान जा सकती है। सोचिए कि जिस लाइसेंस के लिए कुछेक सौ रुपए एक्स्ट्रा देने के अलावा अगर और कुछ नहीं करना हो तो फिर उसकी अहमियत और ज़िम्मेदारी क्या रह जाएगा। जो सड़कों पर दिखता है, जहां ड्राइविंग की काबिलियत का कोई मापदंड नहीं है। सड़क पर नौसिखुए से लेकर एक्सपर्ट हर तरीके के ड्राइवर मिल जाते हैं। जो आम हालात में एक जैसी ड्राइविंग करते दिखेंगे, लेकिन जहां कुछ मुश्किल आई दोनों का रिएक्शन अलग होगा और नतीजा भी। चूंकि ये मामला सड़क का है तो ड्राइवर की बेवकूफ़ी का ख़ामियाज़ा केवल उस ड्राइवर को नहीं भुगतना पड़ता है। 
विदेशों में लाइसेंस मिलना एक उपलब्धि होती है, जिसके लिए बार बार फ़ेल होना भी आम बात है। यही नहीं कुछ सालों में फिर से टेस्ट लेकर लाइसेंस रिन्यू करना भी आम है। फिर ये भी होता है कि अलग अलग गाड़ियों या इंजिन क्षमता के लिए अलग लाइसेंस होते हैं। यानि ज़रूरी नहीं कि एक ही लाइसेंस से आप ऐक्टिवा भी चला सकें और डुकाटी भी। विडंबना यही है कि हमारे यहां वर्ल्ड क्लास प्रोडक्ट तो आ गए हैं लेकिन वर्ल्ड क्लास सेफ़्टी स्टैंडर्ड नहीं आए। तो ज़रूरत है हमारी लाइसेंिसंग व्यवस्था दुरूस्त हो। नए ज़माने के लिए, नई गाड़ियों के लिए बने। उन ऑफ़िसों से भ्रष्टाचार दूर हो। क्योंकि भ्रष्टाचार हमारी ज़िंदगी मुश्किल कर देता है, लेकिन लाइसेंस देने में भ्रष्टाचार ज़िंदगी मुश्किल नहीं, बल्कि ख़त्म कर देती है। तो क्या इस भ्रष्टाचार पर भी किसी पार्टी की नज़र जाएगी ?

पैदल - किसी यूरोप के शहर में टहलिए या जापानी सड़कों पर चलिए, ज़ेब्रा क्रॉसिंग से सड़क पार कीजिए। सामने से आने वाली गाड़ियों को देखिए, उनका रवैया देखिए। चलिए कई किलोमीटर तक। अगर आप गए हैं तो फिर कल्पना करने में कोई दिक़्कत नहीं, अगर नहीं गए हैं तो थोड़ा अपना तजुर्बा बता दूं। ज़्यादातर जगहों पर चलने वालों को तरजीह दी जाती है, फ़ुटपाथ का मतलब फ़ुटपाथ होता है, पैदल यात्रियों के लिए गाड़ियां रुकती हैं और अगर आप सड़क पार करे रहे हैं तो आपके लिए वो रुक जाएंगी, हम हिंदुस्तानियों के लिए आश्चर्य की एक और बात की वो ड्राइवर इशारा करेगा कि आप पहले पार कर लीजिए।  और फिर आईए वापस देश में। अब अपने अपने कॉलनी में चलिए, ऐसे ही फ़ुटपाथ पर चलने की कोशिश कीजिए, सड़क क्रॉस करने की कोशिश कीजिए और लंबी दूरी पैदल तय करने की कोशिश कीजिए। और अब अचानक लगेगा कि हमारे देश की सड़कें और ट्रैफ़िक व्यवस्था पैदल यात्रियों के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। देश के ज़्यादातर शहरों में ज़्यादातर सड़कों के फ़ुटपाथ पर लोगों ने क़ब्ज़ा कर रखा है। बड़ी सड़कों पर ये क़ब्ज़ा ठेलेवालों और रिक्शे वालों का रहता है तो कॉलनी के अंदर अपने आप को सभ्य कहने वालों का होता है। जिनकी कोठियों के सामने की सड़क कार पार्किंग के तौर पर इस्तेमाल होती है। यानि अगर आप पैदल चलने की कोशिश करते हैं तो आपको चलती और पार्क की गई गाड़ियों के बीच रास्ता खोजना पड़ता है। तो जो टहलना आराम के लिए होता, एक संघर्ष में तब्दील हो जाती है। और इस संघर्ष का मतलब ये कि आपको केवल रास्ता नहीं ढूंढना होता है, जान भी बचानी होती है। और पैदल यात्रियों की भारत में जितनी कम इज़्ज़त है वो शायद ही कहीं हो। गाड़ी वाले उनके लिए रुकेंगे क्या, कुचल कर निकल जाते हैं। हाल में दिल्ली में एक नौजवान पैदलयात्री की कुचल कर मौत हो गई थी। जिसमें एक चौंकानेवाली दलील ये सुनने को मिल रही थी कि उस नौजवान ने कान में हेडफ़ोन लगाया हुआ था और कार की हॉर्न नहीं सुन पाया और कुचला गया। बताइए, यानि पैदल यात्री के जान की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उसकी ख़ुद की है, अगर उसने ग़लती की, हॉर्न नहीं सुना तो उसे अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। सवाल ये है कि पैदल यात्रियों के हक़ के लिए क्या कोई क़दम उठाया जाएगा ? 


साइकिल ट्रैक- दिलचस्प बात ये है कि एक राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिन्ह है साइकिल। एक हद तक राज्य में सरकार बनाने तक का रास्ता भी तय किया है साइकिल पर चढ़ कर ही। ये एक प्रतीक है। वहीं आम ज़िंदगी में भी साइकिल की अहमियत बहुत ज़्यादा है। ग़रीबों की सवारी के तौर पर देखें तो भी और हम सबकी ज़िंदगी में साइकिलों की इमोशनल मौजूदगी के तौर पर भी। लेकिन साइकिल चलाना आजकी तारीख़ में जान पर खेलने वाली बात है। जो आंकड़े बता रहे हैं कि देश में सड़क हादसों में मारे जाने वाले लोगों में आधी संख्या पैदल यात्रियों और साइकिल सवारों की ही होती है। और जिस तरीके से सड़कों को कारों के लिए बना सिग्नल वाले रास्ते बनाने की कोशिशें चल रही हैं ऐसे में पैदल यात्री और साइकिल सवार पर ख़तरा और बढ़ा है। हालांकि ये दोनों ही वर्ग ऐसे हैं जिसमें आम लोग होते हैं, ग़रीब होते हैं, और उनकी ज़िंदगी की क़ीमत राजनीति में कम आंकी जाती है इसलिए अब तक उनकी सेफ़्टी के लिए गंभीरता नहीं दिखाई देती है। हां ये हादसे हेडलाइन तभी बन पाते हैं जब कोई बड़ा नाम इसमें शामिल होता है, चोट पहुंचाने वाले में या फिर चोट खाने वाले में। हाल में हमने देखा था सेंटर फ़ॉर साइंस एंड इनवायरन्मेंट की सुनीता नारायण का जब साइकिल चलाते वक्‍त एक्सिडेंट हुआ था। अख़बारों में ख़बरें देखी थीं मैंने। कहने का मतलब ये नहीं आम साइकिल सवार का ऐक्सिडेंट हो तो ख़बर छपे, सवाल ये है कि क्यों नहीं इस तबके के लिए सोचा जाए कि दुर्घटनाएं कमसेकम हो।
क़ानून- मैं क़ानून का जानकार नहीं लेकिन ये ज़रूर समझ सकता हूं कि जो क़ानून हैं भी उनका पालन नहीं हो रहा है। पालन इसलिए नहीं हो रहा है कि क्योंकि उसे लागू करने में कोताही बरती जाती है। कोताही क्यों बरती जाती है ये सवाल ऐसा है जिस पर थिसीस लिखी जा सकती है। लेकिन इस कोताही से क्या कुछ हो रहा है ये अब दिख तो रहा है लेकिन इसकी गंभीरता समझी नहीं जा रही है। रेड लाइट जंप करने पर, ग़लत ओवरटेक करने पर, ओवरस्पीड करने पर इन सभी मौक़ों पर जब आराम से छूट जाते हैं, ज़्यादातर मौक़ों पर कोई देखनेवाला नहीं होता है, कुछेक मौक़ो पर १००से ४०० रु में छूट जाते हैं। या फिर किसी एक बच्ची को अपनी गाड़ी से कुचल देते हैं जिसके स्कूल का पहला दिन होता है, और उसके पिता को भी जो अपनी बेटी को स्कूल बस में पहले दिन जाते देखने की ख़्वाइश के साथ सुबह उठ कर आया था, जो गुड़गांव के एक अस्पताल में दिल का डॉक्टर भी था। और दोनों की जान लेने के बाद कुछ घंटों में अगर ड्राइवर को बेल मिल जाए, और वो ज़मानत पर छूट आए। ये सब देखकर यही लगता है कि यहां आप कुछ भी करके निकल सकते हैं, सब चलता है। 
अपनी बेटी और पति को एक साथ खोने के ग़म में जो महिला सदमे में चली जाती है, शायद हर साल सवा लाख परिवार भी ऐसे ही सदमे में चले जाते होंगे, जिनका अपना घर वापस नहीं आता होगा। लेकिन बाकी के हम लोग सदमे में नहीं जाते हैं। देश सदमे में नहीं जाता। सवाल यही है कि इस सदमे की आदत कब जाएगी ? 

Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है।
(published before 2014 elections I guess..)