विकल्प जितने ज़्यादा होंगे
कन्फ़्यूज़न उतना ज़्यादा होगा...और हो भी रहा है लोगों में। गाड़ियों के जितने
विकल्प बढ़ते जा रहे हैं वहां पर कन्फ़्यूज़न बढ़ता जा रहा है। ग्राहकों के दिमाग़
में क्या चल रहा है ये मैं किसी सर्वे का नतीजा नहीं बता रहा हूं। ये मैं बता रहा
हूं उन सवालों के बाद जिनसे रोज़ मेरा सामना होता है। कौन सी कार कौन सा इंजिन और
कौन सा वेरिएंट। और इन तीन सवालों के अनगिनत जवाब हो सकते हैं। फ़ैसला लेना वाकई
पहले से बहुत टेढ़ा काम हो चुका है। एक तो हर सेगमेंट में अनगिनत प्रोडक्ट हो चुके
हैं और ऊपर से चुनाव के लिए क्राइटेरिया भी बहुत कौंप्लेक्स हो चुके हैं। पहले
वैल्यू का मतलब सिर्फ़ पैसा वसूल था, जिसमें माइलेज से लेकर आफ़्टर सेल्स और
मेंटेनेंस तक का दायरा आता था, अब ये पैमाना अगले लेवल पर जा चुका है। वैल्यू के
तमाम माएने दिखाई दे रहे हैं। हाल के वक्त में देखें कुछ प्रोडक्ट देखें तो बात
समझ में आएगी।
एक वक्त था जब कन्फ़्यूज़न नहीं था...वैल्यू का मतलब सिर्फ़ पैसा वसूल था। अब वैल्यू के तमाम माएने दिखाई दे रहे हैं।
नैनो जब आई थी तो उसके लिए
लॉट्री निकली थी, लेकिन उसके बाद बिक्री के आंकड़ें ऐसे औंधे मुंह गिरे ये हम सब
जानते हैं। लेकिन इसे समझना किसी के लिए भी मुश्किल है, कंपनी के लिए भी। अब नई
नैनो की बिक्री थोड़ी बढ़ी है लेकिन एक वक्त ऐसा था जब रतन टाटा के सपना टूटा हुआ
मान लिया गया था। कुछ लोग इस असुरक्षित कार बता रहे थे, जहां हर दिन कहीं ना कहीं
किसी ना किसी कार में आग लगती है फिर 5-6 नैनो में लगी आग इस कार की बिक्री को तहस
नहस नहीं कर सकती। ग्राहकों ने इस कार में वैल्यू देखना छोड़ दिया था। और ये वो
कार है जो सबसे सस्ती औऱ ज़्यादा माइलेज देनी पेट्रोल कार थी। यही नहीं टाटा
गाड़ियों का रखरखाव भी ज़्यादा ख़र्चीला नहीं।
ठीक उल्टा देखा हमने एक ऐसी
गाड़ी के मामले में जो सस्ती नहीं थी, छोटी नहीं थी, और किफ़ायती भी नहीं।
महिंद्रा की XUV 500, एक ऐसी गाड़ी जिसकी शुरूआती क़ीमत ही 10 लाख 80 हज़ार रखी गई थी। और आज
की हालत ये है कि एक्सयूवी लॉट्री से मिल रही है। यानि सवा लाख की नैनो पर लॉट्री
नहीं चला, एक्सयूवी पर चल गया।
वहीं तीसरी गाड़ी एर्टिगा
का ज़िक्र भी ज़रूरी है। लौंच होते ही चारों ओर से बात आने लगी काफ़ी सस्ता लौंच
है...और जिसे सस्ता बताया जा रहा था वो क़ीमत 5 लाख 90 हज़ार से शुरू हो रही थी।
ऐसा नहीं कि ये गाड़ी इनोवा जैसी बड़ी या ज़ाइलो जैसे फ़ीचर्स से भरी हो। सात
लोगों के बैठने के लिए काफ़ी बेसिक सा इंतज़ाम है। और इन्हीं सीमित फ़ीचर्स के साथ
एर्टिगा ने आते ही मारुति को ख़ुश कर दिया, ग्राहकों को खींचकर। सिर्फ़ 5 दिनों
में ही 10 हज़ार एर्टिगा बुक हो गई। ग्राहकों ने इसमें ऐसी सवारी देखी जो बड़े
परिवार, छोटे ऑफिसों के लिए फिट गाड़ी कही जा सकती है और उन्होंने इसे बुक किया। जिसे
परखने के लिए ज़ाहिर सी बात है कि केवल माइलेज और क़ीमत को ध्यान में नहीं रखा
गया।
दरअसल अब जितनी गाड़ियां
आती जा रही हैं ग्राहक पहले से परिपक्व होते जा रहे हैं, जिसमें किसी एक गाड़ी को
देखने के लिए उनका चश्मा पहले से ज़्यादा पैना हो गया है, वृहत हो गया है। किसी भी
कार के सिर्फ़ एक या दो पहलू नहीं देखते। इन सभी गाड़ियों को देखकर सिर्फ़ यही बात
याद आती है कि जिस नज़रिए से भारतीय ग्राहकों को अब तक देखा जाता रहा है , वो
पुराना पड़ गया है। अब भारतीय ग्राहक नई गाड़ी देखकर सिर्फ़ ये नहीं पूछते हैं कि-
कितना देती है ?
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